प्रत्यारोपण - विज्ञान कथा

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पूरी यात्रा के दौरान मैं उस खोज का मनुष्य जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में ही सोचता रहा। मैं बहुत रोमांचित और जिज्ञासु था। तभी मेरी दृष्टि मेरे नाम की तख्ती लिए एक व्यक्ति पर पड़ी। इसे त्रिपाठी ने ही भेजा था। वह मुझे कुछ दूर खड़े एक हेलीकॉप्टर तक ले गया। हमारे अंदर बैठे हुए हेलीकॉप्टर ने उड़ान भरी और तीव्र गति से हमारे गंतव्य की ओर बढ़ने लगा।

प्रत्यारोपण


"हैलो! क्या मि. भट्ट बोल रहे हैं?" दूसरी तरफ से एक खरखराता हुआ अपरिचित स्वर उभरा। मैंने हां में जवाब दिया तो उधर से कहा गया - 'मैं त्रिपाठी बोल रहा हूं। क्या तुम मुझसे शीघ्र ही मिल सकते हो।' कुछ क्षण बाद ही मैं उसे पहचान सका। वह तो मेरा पुराना मित्र था। मैं बोल उठा - 'क्या तुम्हारा प्रयोग सफल हो गया?'  

'हां, इसलिए तुम्हें बुला रहा हूं। अब शीघ्र यहां चले आओ। बाकी बातें तुमसे मिलकर ही होंगी' उधर से जवाब आया। 

फोन पर बात खत्म होने के बाद मैं धम्म से सोफे पर बैठ गया। तो क्या मेरे उस सनकी वैज्ञानिक मित्र ने अंततः वह सफलता अर्जित कर ली थी? मेरे मस्तिष्क में सत्रह वर्ष पुराना घटनाक्रम घूमने लगा। "अंतर्राष्ट्रीय जीव-विज्ञान सम्मेलन" में डॉ. त्रिपाठी द्वारा कहे गए शब्द मेरे कानों में गूंजने लगे। उस समय वहां उपस्थित विश्व के शीर्षस्थ वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने उसके विचारों को विज्ञान फंतासी (science fiction) के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं समझा था। आखिर उसका विचार था ही इतना अविश्वसनीय। वह मानव मस्ष्कि प्रत्यारोपित करना चाहता था। उसका मत था कि कई लाइलाज बीमारियों का उपचार इसके द्वारा संभव था।  

उसके अनुसार किसी भी कैंसर, एड्स इत्यादि से ग्रस्त व्यक्ति का मस्तिष्क किसी स्वस्थ शरीर में प्रत्यारोपित किए जाने पर उसे एक नया शरीर प्राप्त हो जाएगा और उसकी व्याधि स्वतः दूर हो जाएगी। उस व्यक्ति की बौद्धीक क्षमता, आचार-व्यवहार और मानसिकता सब कुछ पूर्ववत् ही रहेंगे।  

त्रिपाठी ने तो यहां तक कहा था कि उपर्युक्त बीमारियों का अलग-अलग इलाज ढूंढ़ने की बजाए सभी प्रयास इस तकनीक के विकास की दिशा में केन्द्रत किए जाने चाहिए।  

जब किसी ने भी उसे सहयोग नहीं किया तब उसने अपने बलबूते पर अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के निर्जन द्वीप पर एक आधुनिक प्रयोगशाला स्थापित की। दरअसल उसके पास करोड़ों की पैतृक संपत्ति थी। उसके पिता देश के अग्रणी व्यवसायियों में से एक थे। इसलिए उसे कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई।
प्रत्यारोपण
प्रत्यारोपण

इतने वर्षों बाद उसका मुझे बुलाना निस्संदेह बहुत महत्वपूर्ण है। अगर वह सफल हुआ है तो वह मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है। मैंने तुरंत सब तैयारियां की और दो दिन बाद ही मैं पोर्ट ब्लेयर के हवाई अड्डे पर खड़ा था। पूरी यात्रा के दौरान मैं उस खोज का मनुष्य जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में ही सोचता रहा। मैं बहुत रोमांचित और जिज्ञासु था। तभी मेरी दृष्टि मेरे नाम की तख्ती लिए एक व्यक्ति पर पड़ी। इसे त्रिपाठी ने ही भेजा था। वह मुझे कुछ दूर खड़े एक हेलीकॉप्टर तक ले गया। हमारे अंदर बैठे हुए हेलीकॉप्टर ने उड़ान भरी और तीव्र गति से हमारे गंतव्य की ओर बढ़ने लगा। प्रकृति के नयनाभिराम दृश्यों को देखते हुए हम जल्दी ही त्रिपाठी के टापू पर पहुंच गए। वह छोटा टापू हरियाली से आच्छादित था। बीच में थोड़ी सी खाली भूमि पर प्रयोगशाला और आवास दिखाई दिए। 

नीचे उतरने के बाद त्रिपाठी ने मेरा स्वागत किया। पहले तो वह मुझे पहचान में ही नहीं आया। उसकी अंदर धंसी हुई आंखें, उसका पीला चेहरा, सिर पर बेतरतीब बाल, हल्की बढ़ी हुई दाढ़ी और कृश्काय शरीर इस बात को प्रमाणित कर रहे थे कि उसने अपनी समस्त ऊर्जा अपने प्रयोगों में झोंक दी थी।   

भोजन करते हुए मैंने उसके प्रयोगों की बात छेड़ दी तो वह गम्भीर हो गया। वह बोला कि वह सफल हुआ भी और नहीं भी। मैं, उसकी बात समझ नहीं सका और उसे खुलकर बताने को कहा। उसने एक गहरा निःश्वास लिया और बताना शुरू किया।  

उसने बताया कि बंदरों पर सफल प्रयोग करने के बाद उसने मनुष्य पर भी प्रयोग किया। किसी दूसरे द्वीप पर एक निकोबारी जनजाति के त्वाचा कैंसर से पीड़ित एक व्यक्ति को उसने बहला फुसलाकर मनाया। उस प्रयोग को सविस्तार समझाना उसके लिए संभव नहीं था। वह बस इतना ही समझ पाया कि उसे एक नया शरीर मिलेगा और अपने रोग से छुटकारा मिल जाएगा। 

अब त्रिपाठी को आवश्यकता थी एक शरीर की, उसको पता चला कि एक दूसरे कबीले में एक अपराधी को मृत्युदण्ड दिया जा रहा है तो उसने उसके बारे में पता लगाया। वह बहुत हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ व्यक्ति था और प्रयोग के लिए सर्वथा उपयुक्त। वह रात में अपने सहयोगियों के साथ वहां गया और उस अपराधी के सिर में गोली मारकर बड़ी मुश्किल से अपने टापू पर लाने में सफल हुआ।  

'तो क्या तुमने हत्या की।' मैं बहुत क्रोधित हो उठा और साथ ही भयभीत और बेचैन भी। मेरे शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गई। क्या मेरा मित्र अपने प्रयोग के लिए किसी का खून भी कर सकता था? त्रिपाठी ने मुझे समझाते हुए कहा कि अगर वह उसे न मारता तो अगले दिन उसे मगरमच्छों के बीच डाल दिया जाता और उसे एक दर्दनाक मौत मिलती। मैं थोड़ा संयत हुआ लेकिन फिर भी अपने आपको समझा नहीं पा रहा था।  

'लेकिन तुम ठीक कहते हो', त्रिपाठी ने आगे कहना शुरू किया, "यह मेरी सबसे बड़ी भूल सिद्ध हुई। इतने वर्षों से दुनिया से अलग-थलग मैं जिस प्रयोग में लगा हुआ था उसको साकार होते देखने के लिए मैं बहुत उतावला था और कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहता था। मैंने फिर शल्यक्रिया की और पहले उस अपराधी का सिर खोलकर उसका दिमाग बाहर निकाल दिया और फिर उस कैंसर पीड़ित का मस्तिष्क अपराधी के सिर में प्रत्यारोपित कर दिया। यह सारी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि इसे मनुष्य नहीं कर सकता था इसके लिए मैंने रोबोटिक बाहों का आविष्कार किया था। जो अत्यंत सटीकता से प्रत्येक नाड़ी को जोड़ सकें और मस्तिष्क को कोई चोट न पहुंचाएं। एक हल्की सी चूक से मस्तिष्क का कोई भाग नष्ट हो सकता है और स्वतः ही उससे संबंधित शरीर का अंग निष्क्रिय हो सकता है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान मरीज़ के शरीर के महत्वपूर्ण क्रियाकलापों जैसे हृदय गति, रक्त प्रभाह इत्यादि को सुपर कम्प्यूटर द्वारा नियंत्रित किया गया और इसके लिए विशेष प्रोग्राम भी हमने तैयार किया।" 

"अद्भुत...!"  मेरे मुंह से अनायास ही निकल पड़ा, "यह तो वैसा ही हुआ जैसे किसी की आत्मा को उसके शरीर से निकालकर दूसरे शरीर में डाल दिया जाए।"

"हां, तुम ऐसा कह सकते हो", त्रिपाठी ने कहा।

मैंने कहा, "त्रिपाठी तुम्हारी इस तकनीक से मानव-जाति की बहुत भलाई हो सकती है। तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए। तुम आखिर परेशान क्यों हो?"  

"मेरे इस कृत्य ने ऐसी जटिलताएं प्रस्तुत की जिससे मानव का कभी भी सामना नहीं हुआ है। मैंने इसलिए तुम्हें यहां बुलाया है। मेरी परेशानी तुम जैसे संवेदनशील लेखक ही समझ सकता है, कोई वैज्ञानिक नहीं", कहते-कहते त्रिपाठी का गला भर आया। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर सांत्वना दी और अपनी बात स्पष्ट करने को कहा। 

त्रिपाठी ने बताया कि होश में आने के बाद उसके मरीज को बहुत प्रसन्नता हुई परन्तु ज बवह घर लौटा तो उसके परिवार वालों ने उसे नकार दिया। उसकी शक्ल और शरीर पहले जैसे नहीं थे। लेकिन उसका व्यवहार और आदतें पूर्ववत् ही थी। वह उसे कोई भूत समझने लगे। उन्हें समझाने के सभी प्रयास निष्फल रहे। उधर जब विरोधी कबीले को पता चला तो वे अपने भगोड़े अपराधी की मांग करने लगे और मरीज के कबीले वाले उसे उन्हें सौंपने को तैयार हो गए जिसका मतलब था साक्षात् मृत्यु। वह पुनः त्रिपाठी के पास आ गया और अपने को पहले जैसा ही बनाने की ज़िद करने लगा। लेकिन उसका शरीर तो वे नष्ट कर चुके थे। वह बहुत हिंसक हो गया और तोड़-फोड़ करने लगा। अंततः त्रिपाठी और उसके सहयोगियों को उसे बेहोश करना पड़ा। इतना सब बताने पर त्रिपाठी के चेहरे पर अत्यधिक हताशा और दयनीयता के भाव उभर आए। उसने कहा, "दोनों कबीले युद्ध के कगार पर हैं। मेरे कारण सैकड़ों लोग मरने वाले हैं। अब तुम्हीं बताओं मैं क्या करूं?" 

मैंने उससे पूछा कि क्या उसने सारी समस्याओं का पहले से आकलन नहीं किया था? उसने उत्तर दिया, "यह सामाजिक जटिलताएं मेरी समझ से परे हैं। मुझे उस समय सिर्फ अपना लक्ष्य दिखाई दे रहा था। मैंने तो सबकुछ अच्छे के लिए ही किया था लेकिन मुझे उसका ऐसा दुष्परिणाम मिला। मेरी वर्षों की मेहनत बेकार हो गई।"

उसका उत्तर मैं सोच में पड़ गया। त्रिपाठी ने जो कुछ गलत कदम उठाए उसके पीछे उसका निहित स्वार्थ था या फिर समाज सेवा? कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। त्रिपाठी ने अद्वितीय बौद्धिक क्षमता सामाजिक समझ की कीमत पर पाई है।  

मेरे दिमाग में इस समस्या का एक ही हल आया। मैंने कहा, "तुम उस व्यक्ति को विरोधी कबीले में पहुंचा दो। सारी समस्या खत्म हो जाएगी।"

त्रिपाठी ने मुझे घूरा और बोला, "मैं, अपनी वर्षों की मेहनत को यूं ही नष्ट कर दूं। नहीं, यह नहीं हो सकता।"

मैं समझ गया कि वह व्यक्ति उसके गले की हड्डी बन चुका है। काफी सोच विचार के बाद में एक निर्णय पर पहुंचा और बोला "त्रिपाठी सुनो, तुम्हारी मेहनत निष्फल नहीं जाएगी। तुमने अपना प्रयोग असभ्य लोगों पर किया जो इसे नहीं समझ सकते। तुम्हें समाज की मुख्यधारा में आना होगा और बुद्धिजीवियों के सामने अपना प्रयोग दोबारा करना होगा। जिन लोगों ने तुम्हारा अपमान किया था वे ही तुम्हारे आगे नतमस्तक हो जाएंगे। तुम्हारे ऊपर पुरस्कारों की वर्षा होगी और वह सब कुछ मिलेगा जिसके तुम अधिकारी हो। परंतु सबसे पहले तुम्हें उस व्यक्ति को वापस कबीले में पहुंचाना होगा। तुम्हारे लिए यह आसान नहीं होगा लेकिन इस जंगल से मुक्ति पाने का यही एकमात्र उपाय है।"  

त्रिपाठी ने भी मेरा समर्थन किया तो मुझे प्रसन्नता हुई और मैंने उसे आगे समझाया कि उसके प्रयोग से संपूर्ण विश्व बदल सकता है। वह किसी आतंकवादी के शरीर में किसी सज्जन का मस्तिष्क लगा सकता है और जब कोई अति महत्वपूर्ण व्यक्ति मर जाए तो उसके मस्तिष्क को किसी अन्य शरीर में प्रत्यारोपित करके उसे पुनर्जीवित किया जा सकता है।

"तुम्हारी कल्पनाशीलता तो गज़ब की है। मैंने इस तकनीक के इतने बहुआयामी उपयोगों के बारे में नहीं सोचा था।" त्रिपाठी ने अचरज भरे स्वर में कहा। 

मैंने उसे जल्दी निर्णय लेकर मुझे सूचित करने को कहा ताकि मैं उसकी वापसी का प्रचार कर सकूं। 

अगले दिन जब मैं हेलीकॉप्टर में सवार हुआ तो त्रिपाठी के मुख पर पहले जैसी परेशानी नहीं थी बल्कि खुशी और संतोष के भाव थे और आंखों में मेरे प्रति कृतज्ञता झलक रही थी।

वापसी की उड़ान पर मुझे अपने मित्र की सहायता करने पर अत्यंत प्रसन्नता हो रही थी कि तभी मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा "अगर सभ्य समाज में त्रिपाठी की तकनीक का दुरूपयोग हुआ तो?" मैं सिहर उठा परंतु शीघ्र ही मैंने इस प्रश्न को भविष्य के लिए छोड़ दिया और पुनः प्रकृति के नयनाभिराम दृश्यों का आनंद लेने लगा।


-सतीश पाण्डेय
विभिन्न पत्रिकाओं में विज्ञान संबंधित लेखों, कहानियों एवं कविताओं का प्रकाशन एवं विद्यार्थियों के लिए विज्ञान विषय पर केन्द्रित ब्लॉग – www.onlinegyani.com लिखना।

COMMENTS

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  1. बहुत ही सुन्दर विज्ञान कथा। हिंदीकुंज.काॅम को ऐसी रचना प्रकाशित करने के लिए बहुत धन्यवाद।

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  2. अंग्रेजी में तो विज्ञान विज्ञान-कथाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं, लेकिन हिंदी में पाठकों के अभाव एवं लेखकों की कमी के कारण विज्ञान कथाओं की स्थिति अच्छी नहीं हैं। फिर हिंदीकुंज का यह प्रयास अच्छा है। एक अच्छी विज्ञान कथा।

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    1. धन्यवाद! आपकी बात तो सही है। हिन्दी भाषा में विज्ञान कथाओं का जितना प्रसार होना चाहिए था उतना नहीं हो पाया है।

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  3. Great Hindi site! Keep publishing this type of science fiction in hindi. Kya aap or bhi is trah ki kahaya likh sakte hai.

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  4. Brain transplant! is it possible... amazing story

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  5. I read many famous science fiction novels by Jules Verne, H. G. Wells, Robert Heinlein, Arthur C. Clarke, Isaac Asimov but this short story is also amazing. Author has good imagination power. Thanks.

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