लेह में गहराता जल संकट

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लेह में गहराता जल संकट नदी, तालाब, नहर, डैम जहां सूख चुके हैं वहीँ भूजल भी लगातार गिरता जा रहा है। इस कड़ी में जम्मू कश्मीर के स्वायत्त क्षेत्र लेह का नाम भी जुड़ गया है। जहां इस महीने की शुरुआत से ही लेह शहर और उसके आसपास के गांव में जल विभाग द्वारा पानी की कटौती का काम शुरू कर दिया गया है।

लेह में गहराता जल संकट


गर्मी की तपिश बढ़ने के साथ ही देश भर में पानी की कमी सबसे बड़ी चुनौती बन गई है। समूचा मध्य और पूर्वी भारत इस गंभीर समस्या से जूझ रहा है। नदी, तालाब, नहर, डैम जहां सूख चुके हैं वहीँ भूजल भी लगातार गिरता जा रहा है। इस कड़ी में जम्मू कश्मीर के स्वायत्त क्षेत्र लेह का नाम भी जुड़ गया है। जहां इस महीने की शुरुआत से ही लेह शहर और उसके आसपास के गांव में जल विभाग द्वारा पानी की कटौती का काम शुरू कर दिया गया है। विभाग की ओर से दो घंटे सुबह और शाम में दो घंटे के लिए जल की आपूर्ति की जा रही है। कई स्थानों पर नलकूप भी सूख रहे हैं, क्योंकि लद्दाख विशेषकर लेह का भूजल स्तर काफी नीचे गिर चुका है।

भूजल का गिरता स्तर- 

शोधकर्ताओं और पर्यावरणविदों ने दावा किया है कि पानी का स्तर गिरने के पीछे मुख्य कारण पिछले एक
jal sankat
दशक में इस क्षेत्र के जलवायु में परिवर्तन और ऋतु चक्र का असामान्य होना रहा है। वर्ष के अधिकतर महीने बर्फ से ढंके इस क्षेत्र में अब ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं। यहां तक कि लद्दाख के लोगों के लिए मौजूदा गर्मी के मौसम में भूजल का उपयोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता जा रहा है। एक समय ऐसा भी था जब लेह से बहने वाली नदी और उसकी उपनदियां यहां के निवासियों के लिए पानी का मूल स्रोत हुआ करती थीं और इन्हीं से स्थानीय लोगों को पीने का पानी सप्लाई किया जाता था, परंतु आज यही नदियां इतनी दूषित हो चुकी हैं कि इस पानी को पीने की बात तो छोड़िये, बहती लहरों में हाथ डालने से पहले स्वास्थ्य के बारे में सोंचना पड़ता है। शहर के कुछ स्थानों पर बहने वाली नदी की स्थिती नगर निगम के कूड़ेदान से कहीं अधिक ख़राब हो चुकी है।
कभी प्रकृति का अनमोल तोहफा कहे जाने वाला लेह और उसका समूचा क्षेत्र आज मानवीय लालसाओं की पूर्ति का शिकार होता जा जा रहा है। प्राकृतिक निर्मित यह इलाका बहुत जल्द मानव निर्मित कंक्रीट के शहर में तब्दील हो जायेगा। पिछले कुछ सालों में लेह और उसके आसपास 1000 से अधिक नए होटल और गेस्ट हॉउस बनाये गए हैं और अभी भी तेज़ी से सैकड़ों निर्माण कार्य जारी है।

पर्यावरण संरक्षण को नजरअंदाज - 

लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद् के कार्यकारी पार्षद (पर्यटन) त्सेरिंग संडूप ने डाउन टू अर्थ पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में स्वीकार किया था कि "2005 से पहले लद्दाख में विदेशी पर्यटकों की संख्या अधिक हुआ करती थी। लेकिन यह संख्या 25 से 30 हज़ार तक सीमित हुआ करती थी। लेकिन इसका बाद के वर्षों में घरेलू पर्यटकों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज की गई। संडूप के अनुसार 2015 से 2017 के बीच लेह आने वाले घरेलू पर्यटकों की संख्या जहां 43 प्रतिशत थी वहीं विदेशी पर्यटकों की संख्या मात्र 28 प्रतिशत थी। इस संख्या ने न केवल लेह की पर्यटन संस्कृति बल्कि यहां के पर्यावरण को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। देश के अन्य शहरों की तरह लेह का भी तेज़ी से आधुनिकीकरण हो रहा है। इसके पीछे फलते-फूलते पर्यटन, व्यवसाय और उद्योग जैसे प्रभावी कारण महत्वपूर्ण हैं। जिससे स्थानीय निवासियों की मानसिकता को भौतिकवादी बना दिया है। पैसे की लालसा के पीछे पर्यावरण संरक्षण को नज़रअंदाज़ किया जाने लगा है। इसका उदाहरण यहां के बने होटल हैं, जिन्हें पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए खूबसूरत तो बना दिया गया लेकिन इनमें बने बाथरूम में जल निकासी की सुविधा का बिलकुल भी ध्यान नहीं रखा गया है। परिणामस्वरूप इनसे निकलने वाले गंदे पानी स्थानीय जल निकाय में समाहित होकर उन्हें लगातार प्रदूषित कर रहे हैं।

स्थानीय किसानों का मानना है कि पानी का संकट नया नहीं है बल्कि 1985 के बाद से ही यहां बर्फ़बारी में कमी आती जा रही है। बर्फ के कम गिरने से पानी स्टोर करने की क्षमता में कमी आती जा रही है क्योंकि लेह के
पद्मा लाडोल
पद्मा लाडोल
आसपास अधिकतर गांव बर्फ से पिघले पानी पर निर्भर रहते हैं। वर्त्तमान में लगभग सभी घरों, होटलों और गेस्ट हाउसों के पास अनियंत्रित रूप से अपना निजी बोरवेल है। जिसे सीमित रखने के लिए कोई क़ायदा कानून नहीं है। परिणामस्वरूप भूजल के अंधाधुंध दोहन ने इसके स्तर को लगातार गिरा दिया है और अब वर्त्तमान पीढ़ी के सामने जल का सबसे बड़ा संकट खड़ा हो गया है।गिरते भूजल ने न केवल प्रशासन बल्कि पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी चिंता में डाल दिया है। सभी का एकमत विचार है कि यह समस्या असीमित भूजल दोहन और पानी की बर्बादी के कारण उत्पन्न हो रहा है, जिसे समय रहते नहीं रोका गया तो लेह को भयंकर जल संकट का सामना करना पड़ सकता है। लद्दाख पारिस्थितिक विकास समूह के कार्यकारी निदेशक नॉर्डन ओटज़र के अनुसार जल संकट से निपटने के लिए केवल बोरवेल की संख्या निर्धारण ही समस्या का हल नहीं है बल्कि वह ज़मीन से कितना पानी निकालेंगे, इसका भी व्यापक अध्ययन की ज़रूरत है। जबकि वर्त्तमान परिस्थिती यह है कि प्रत्येक नागरिक की यही कोशिश होती है कि उसके मकान और दुकान में पानी की सप्लाई 24 घंटे बानी रहे। उन्हें मालूम होना चाहिए कि भूजल सीमित हैं और पानी का अनुचित उपयोग उसे बर्बाद कर रहा है और कुछ समय बाद उसकी अगली पीढ़ी इसी पानी के लिए तरसेगी।लेह शहर में पानी की कमी एक बड़ी समस्या है। पानी की समस्याओं को हल करने के लिए हमें इसका कम और कम उपयोग करना होगा। अधिक से अधिक पानी का उपयोग करने वाले होटलों और कैफे को आधुनिक फ्लश शौचालयों के बजाय लद्दाख के पारंपरिक शुष्क शौचालयों का प्रयास करना चाहिए।

पानी बचेगा तो लेह बचेगा - 

यदि प्राकृतिक झरने सूख रहे हैं तो उन्हें फिर से ज़िंदा करने के लिए लेह वासियों को स्वयं आगे आना होगा। वर्षा जल संचयन घटते भूजल भंडार को रिचार्ज करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय हो सकता है। इसके अतिरिक्त भूजल को बचाने के लिए कृत्रिम ग्लेशियर बनाने की ज़रूरत है, साथ ही प्राकृतिक ग्लेशियरों को संरक्षित करने पर विशेष अभियान चलाने की ज़रूरत है। हमें यथासंभव प्राकृतिक झरने के पानी के उपयोग को कम करने का प्रयास करना चाहिए। इन छोटे कदमों से हम लेह और आसपास के गांवों में पानी की कमी के संकट को दूर करने में मदद कर सकते हैं। क्योंकि पानी बचेगा तो लेह बचेगा। (चरखा फीचर्स)


-पद्मा लाडोल
लेह, लद्दाख

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