सूरदास की काव्य भाषा की विशेषताएं

SHARE:

सूरदास की काव्य भाषा की विशेषताएं भाषा भावाभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। अनुभूति की विशदता और सूक्ष्मता को, प्रौढ, सांकेतिक और सशक्त भाषा में ही

सूरदास की काव्य भाषा की विशेषताएं

 
भाषा भावाभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। अनुभूति की विशदता और सूक्ष्मता को, प्रौढ, सांकेतिक और सशक्त भाषा में ही व्यक्त किया जा सकता है। यों तो किसी कवि की भाषा का अध्ययन अनेक दृष्टियों से किया जा सकता है, किन्तु साहित्यिक दृष्टि से विचार करते समय काव्य-भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता पर विचार करना ही अधिक समीचीन है। 

सूर की भाषा में अभिव्यक्ति-क्षमता किस सीमा तक है, इसे समझने के लिए उसके अन्तर-संघटन, भावानुरूपता, ध्वन्यात्मकता, चित्रमयता और सजीवता पर विचार करना आवश्यक है। सूर की भाषा ब्रज है, किन्तु उसका संघटन व्यापक आधार पर हुआ है। वह समृद्ध भाषा है। उसमें संस्कृत के शब्द, प्राचीन हिन्दी (अपभ्रंश) के अप्रचलित, अर्द्धतत्सम और तद्भव शब्द तथा विदेशी (अरबी-फारसी) भाषाओं के अनेक प्रचलित शब्द मिल जाते हैं। भाषा की अभिव्यंजना वृद्धि के लिए सूर ने अनेक अनुकरणात्मक शब्दों का भी प्रयोग किया है। उसमें लोक-प्रचलित मुहावरों और लोकोक्तियों की भी कमी नहीं है।

लोक प्रचलित मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग कवि ने स्वतन्त्र ढंग से किया है। शब्द-ग्रहण करते समय सोच-विचारकर उसे पद में जड़ा नहीं गया है। गेय पद के प्रवाह में वह जहाँ जैसे बैठ गया बिठा दिया गया है, यदि टेक की पंक्ति में 'घटी' शब्द आ गया तो अंत्यानुप्रास की पूर्ति के लिए कटी, गटी, पटी, आरभटी, लटी, जटी, उचटी, हटी, नटी, ठटी और मिटी शब्द बिठाल दिये गये। यदि कोई शब्द विकृत होता है तो कवि को उसकी चिन्ता नहीं है। यद्यपि यह स्थित सर्वत्र नहीं है। इससे प्रकट है कि सूर की भाषा समृद्ध होते हुए भी पूर्णत: परिमार्जित नहीं है। भ्रमर गीत प्रसंग में लोकोक्तियों और मुहावरों से युक्त गोपियों का प्रस्तुत कथन है, जिसे सुनकर उद्धव को मौन रह जाना पड़ा-
 
आए जोग सिखावन पांड़े। 
परमारथी पुराननि लादे, ज्यौं बनजारे टाँड़े । 
हमरे गति-पति कमल नयन की, जोग सिखै ते राड़े। 
कहौं मधुप कैसे समाहिगे, एक म्यान दो खांड़ै । 
कहु षट्पद कैसे खैयतु है, हाथी के संग गांड़ै । 
काकी भूख गयी बयारि भखि बिना दूध घृत मांड़े। 
काहे को झाला लै मिलवत, कौन चार तुम डॉड़े। 
सूरदास तीनौ नहिं उपजत, धनिया, धान, कुम्हाड़े ।। 

भावों के अनुसार सूर की भाषा का रूप बदलता गया सरस-मधुर शृंगारिक पदों में वह माधुर्य-प्रसाद-गुण युक्त हो जाती है। उत्साहपूर्ण प्रसंगों में उसकी स्वाभाविक मिठास का स्थान परुषता और औज ले लेते हैं। संवाद और कथोपकथन के अवसरों पर उसमें नाटकीयता आ जाती है। किसी अपरिचित को देखकर मानो वह स्वयं आगे बढ़कर रोकने लगती है- कहाँ रहति ? काकी है बेटी ? देखी नहीं कबहूँ ब्रज खोरी ? या काकी नारि ? कौन की बेटी, कौन गाउँ तैं आई? 

ध्वनि के माध्यम से रूप, गति, लय, स्थिति आदि को व्यक्त करके भाषा को गतिमय और संगीतात्मक बनाने में सूर प्रवीण हैं। इसका सुन्दरतम उदाहरण रासलीला के पदों में देखा जा सकता है। इसका एक उदाहरण इस प्रकार है-
 
मानौ माई घन-घन अन्तर दामिनि । 
घन-दामिनि दामिनि घन अंतर, सोभित हरि ब्रज-भामिनि।
सुन्दर ससि गुन-रूप-राग-निधि, अंग-अंग अधिरामिनि। 
रच्यौ रास मिलि रसिक राइ सौं मुदित भई गुन ग्रामिनि।।
 
सूरदास की काव्य भाषा की विशेषताएं
प्रथम पंक्ति गोपियों और कृष्ण की रासनृत्य के समय की स्थिति की और संकेत करती है। दूसरी पंक्ति का वेग, त्वरा और प्रवाह नृत्य की तीव्रता का सूचक है। पूरे छन्द से मुखरित ध्वनि और लय रास-नृत्य का स्वरूप-सा खड़ा कर देती हैं। अष्टछाप के कवियों में नन्ददास का रास-वर्णन भी इन सभी विशेषताओं से युक्त है। दावानल-वर्णन में भी कवि ने इसी ध्वन्यात्मकता के सहारे प्रचण्ड होती हुई दावाग्नि का रूप-सा खड़ा कर दिया है-
 
बरत बन-बाँस, थरहरत कुस-कास, 
जरि उड़त बहु झाँस, अति प्रबल धायो।
 
इस पंक्ति के पढ़ते ही भयानक दावानल का तीव्र वेग से बढ़ता हुआ रूप नेत्रों के सामने साकार हो जाता है। सूरदास जी की भाषा में चित्रांकन की पूर्ण क्षमता है। पात्रों के मुख से निकलते हुए वाक्य उनकी मुद्रा का भी द्योतन कर देते हैं। 'मैया मैं नहिं माखन खायो' वाले पद में सफाई देते हुए बालक का भोलापन भी मूर्त हो गया है-
 
तुही निरखि नान्हे कर अपने मैं कैसे करि पायो। 
मुख दधि पोछि कहत नंद-नन्दन दोना पीठ दुरायो।।
 
सफाई देते-देते अपराध के चिह्नों-दधि को पोंछना और दोने को छिपा लेना- को मिटा देना, बालक कृष्ण की चपलता और ढिठाई का द्योतक है। पूरा छन्द एक भोले, चपल और धृष्ट बालक का चित्र-सा उपस्थित कर देता है। उदाहरण-

नटवर वेष धरे ब्रज आवत । 
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल कुटिल अलक मुख पर छवि छावत।। 

सूरसागर में इस प्रकार के चित्रों की कमी नहीं है।

भाषा की सजीवता के लिए आवश्यक है कि शब्द चयन लोक प्रचलित शब्दावली से किया जाये। वे शब्द जो व्यावहारिक जीवन में बराबर प्रयुक्त होते रहते हैं, युग विशेष के सामाजिक सम्बन्धों को व्यक्त करने की अधिक क्षमता रखते हैं। उनकी यह क्षमता ही उन्हें सजीव रखती है। इस सम्बन्ध में डॉ० गुप्त का यह कथन ध्यान देने योग्य है- “सूर की ब्रजभाषा साहित्यिक होते हुए भी अपने समय की प्रचलित सजीव भाषा थी।" इस सजीवता का एक कारण यह भी है कि सूर का प्रत्येक प्रयुक्त होने वाले शब्द के साथ परिचय ही नहीं निकट का सम्बन्ध भी है। वे शब्द को दुलारकर प्रयुक्त करते हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
 
'बैठे जाइ मथनियाँ के ढिग मै तब रहौ छपानी' 
कैसे गहत दोहनी घुटुवनि कैसे बछरा थन लै लावहु । 
मुरलिया कपट चतुराई ठानी। 
हमारे माई मोरवा बैर परे। 
ऊधौ इक पतिया हमरी लीजै। 
बरु ये बदराऊ बरसन आये।
 
उपर्युक्त उदाहरणों में प्रयुक्त शब्दों को ध्यान से देखने से स्पष्ट होता है कि 'मथनियाँ', 'घुटुवनि', 'मुरलिया', 'मोरवा', 'पतिया', 'बदराक' आदि शब्दों के स्थान पर किसी अन्य कोमल से कोमल शब्द को रख दीजिए, पूरी पंक्ति निर्जीव हो जायेगी। इन शब्दों के साथ कवि की आत्मीयता-सी जान पड़ती है। सूर जब गोप-जीवन के अनेक मधुर प्रसंगों की अवतारणा करते हैं तो उनका मानस लोक-जीवन की सामान्य भूमि पर उतरकर लोक-मानस बन जाता है। सारा प्रसंग एक तरल जीवन-स्रोत से आप्लावित हो जाता है। भाषा के साथ लोक-जीवन सिमटकर साकार हो उठता है। भाषा सजीव, प्राणवान् और आभामयी हो जाती है।
 
संस्कृत के सरल तत्सम रूप ही सुरक्षित है अन्यथा तद्भव रूप ही प्रायः दृष्टिगत होते हैं। तत्सम शब्दावली का प्रयोग, सिद्धान्त-निरूपण या अप्रस्तुत योजना में ही हुआ है, शेष पदों में तद्भव एवं लोक-शब्दावली का ही बाहुल्य है-

मधुकर, पीत बदन किहिं हेतु। 
जनियत है मुख पांडु रोग भयौ जुबतिनि कों दुख देत । 
रसमय तन मन स्याम राम की जो उचरै संकेत । 
कमलनयन के वचन सुधासम करन घूँट भरि लेत। 
कुत्सित कटु बायक सायक से को बोलत रस खेत। 
इनहिं चातुरी लोग बापुरे बहत धरम की सेत । 
माथे परौ जोग पथ ताकै वक्ता छपद समेत । 
लोचन ललित कटाच्छ मोच्छ बिनु महिमा जियें निकेत । 
मनसा वाचा औरु कर्मना स्याम सुन्दर सौ हेत । 
सूरदास मन की सब जानत, हमरे मनहिं जितेत ।।
 
इस पद की शब्दावली का यदि विश्लेषण किया जाये तो 32 प्रति तत्सम शब्दावली है और शेष शब्दावली में से कटाच्छ, मोच्छ, वाच आदि बिगड़े हुए रूप हैं। 'मनसावाचा कर्मना' जैसे व्याकरणिक रूप भी कही-कहीं सुरक्षित हैं, शेष शब्दों में ब्रज की प्रवृत्ति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन हुआ है।
 
अरबी-फारसी के शब्द पर्याप्त संख्या में हैं, पर सूर के काव्य में वे ऐसे घुल-मिल गये हैं कि आसानी से पहचानना कठिन है। भाषा में आगत शब्दावली अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है और अपने विदेशीपन को हटाकर ही वह अपना स्थायित्व बना लेती है। मुसलमानी शासन के कारण लोक में ये शब्द बहुत प्रचलित थे, अतएव सूर की भाषा में इनका प्रयोग होना स्वाभाविक है, जैसे- अबीर, अमीर, खसम, जवाब, मुसाहिब, अकल, कुलफ, कादर, खबर, खरच, खवास, गुलाम, जमानत, जहाज, तलफ, दगा, सन्दूक, महल, फौज, जहाँ, जौहर, बकसीस, खराद, रेशम, गुमान, दरबार, दलाली, दस्तक, सरदार, दीवान, मेहमान आदि लगभग 150 शब्द हैं।
 
कवि की शब्द-क्रीड़ा का चरम रूप दृष्टिकूट पदों में मिलता है। शब्द-क्रीड़ा संस्कृत के कवियों का रुचिकर विषय था। सूर का भी भाषा पर असाधारण अधिकार था। साधारणतः सूर ने अपने सहस्रों पदों में सरस शैली को ही स्थान दिया है जिसमें वह क्लिष्टत्व दोष से बचे रहे हैं, पर जहाँ शब्द-क्रीड़ा की ओर आप झुके वहाँ आपने खुलकर उसका प्रयोग किया है। इस शैली में लिखे गये आपके लगभग तीन शतक पद मिलते हैं, जिनको 'दृष्टिकूट-पद' की संज्ञा दी गयी है। इन पदों में सूर की तत्सम-प्रियता विशेष दृष्टिगत होती है, एक दृष्टिकूट पद का उदाहरण इस प्रकार है- 

कहत कत परदेशी की बात? 
मंदिर-अरध अवधि बदि हमसों, हरि अहार चलि जात । 
ससि-रिपु बरष, सूर-रिपु जुग बर, हरि-रिपु कीन्हौ घात । 
मघ पंचक लै गयो साँवरौ, तातै अति अकुलात । 
नखत, वेद, ग्रह-जोरि अर्ध करि, सोई बनत अब खात।
'सूरदास' बस भई बिरह के, कर मीजैं पछितात ।।
 
सूर के काव्य में वाग्विदग्धता के भी उत्कृष्ट उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनमें शब्दों के चमत्कार से वक्रोक्ति की तो झलक आती है, साथ ही कथन में नवीनता और भावों में अतिशयता आती है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
 
ह्वै गई स्याम, स्याम की पाती । 
पद-वक्रता- गोकुल सबै गोपाल उपासी । 
विशेषण वक्रता  - मधुकर स्याम हमारे चोर । 
मन हरि लियौ माधुरी मूरति चितै नयन की कोर । 

संक्षेपतः कहा जा सकता है कि सूरदास जी ने ब्रजभाषा में अपनी काव्य-प्रतिभा का किया है। इनकी भाषा के सम्बन्ध में कैलासचन्द्र भाटिया का कथन है- "जो उद्घाटन कोमलकान्त पदावली, भावानुकूल शब्द चयन, सार्थक अलंकार-योजना, धारावाही प्रवाह, संगीतात्मकता और सजीवता सूर की भाषा में है, उसे देखकर तो यही कहना पड़ता है कि सूर ने ही सर्वप्रथम ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया।"

COMMENTS

Leave a Reply

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका