सरकारी विद्यालय योजनाओं का महाकुंभ सरकारी विद्यालय आजकल पढ़ने-पढ़ाने की जगह कम योजनाओं के प्रदर्शन का केंद्र ज़्यादा बन गए हैं। यहां किताबें कम
सरकारी विद्यालय योजनाओं का महाकुंभ
सरकारी विद्यालय आजकल पढ़ने-पढ़ाने की जगह कम योजनाओं के प्रदर्शन का केंद्र ज़्यादा बन गए हैं। यहां किताबें कम खुलती हैं, पर योजनाओं की फाइलें रोज़ खुलती हैं। यहां बच्चे घटते जा रहे हैं, पर योजनाएं बढ़ती जा रही हैं।
किसी को यह बताया जाए कि कोई एक ऐसी संस्था भी है जहां योजनाओं की संख्या अधिक है और लाभार्थियों की संख्या कम।तो वह इसे अर्थशास्त्र का नया सिद्धांत समझेगा। पर यह सिद्धांत शिक्षा विभाग में वर्षों से सफलतापूर्वक लागू है।
सरकारी विद्यालय अब विद्यालय नहीं रहे, वे बहुउद्देश्यीय सरकारी चौकी बन चुके हैं।जहाँ शिक्षा एक वैकल्पिक गतिविधि है।ये विद्यालय नहीं, सरकारी योजनाओं की प्रदर्शनी बन गए हैं।सरकारी विद्यालयों में प्रवेश करते ही ऐसा लगता है जैसे किसी सरकारी मेले में आ गए हों।
दीवार पर पोषण अभियान
दरवाज़े पर स्वच्छता मिशन
बरामदे में बेटी बचाओ
मैदान में फिट इंडिया
रसोई में मिड-डे मील
कार्यालय में दर्जन भर पोर्टल
बैनर पर दर्जनों भामाशाह के नाम
बस जो चीज़ नहीं दिखती, वह है नियमित पढ़ाई।
विद्यालय का नाम भले ही “प्राथमिक विद्यालय” हो, पर उसकी प्राथमिकता अब शिक्षा नहीं रही। प्राथमिकता है "सरकारी योजनाओं की क्रियान्वयन।"
सरकारी शिक्षक वह अद्भुत प्राणी है जिसे सरकार ने इस विश्वास के साथ नियुक्त किया है कि,“यह पढ़ा-लिखा है, यह सरकार के सब काम कर लेगा ।”...और सचमुच, शिक्षक से सरकार द्वारा सब काम लिया जा रहा है!सिवाय पढ़ाने के।वह कभी जनगणना कर्मी होता है तो कभी चुनाव कर्मी,कभी बीएलओ तो कभी सर्वेयर,कभी डाटा एंट्री ऑपरेटर तो कभी हैल्थ ट्रैकर, कभी वह पेड़ लगाता है तो कभी गड्ढे खोदता है, कभी वह स्कूल की सफाई करता है तो कभी टॉयलेट और छतों की, कभी उसे रैली निकालनी होती है तो कभी बच्चों को साथ ले जाकर नारों को बुलंद आवाज में छात्रों से बुलवाना होता है।
किसके घर में शौचालय है! किसके घर में नहीं?कौन खुले में शौच जा रहा है,कौन नहीं ?शौचालय किसके हैं, किसके नहीं? किसके कितने जानवर है, कौन बीमार है, कौन स्वस्थ है, इस सब की जिम्मेदारी है तो सिर्फ शिक्षक पर। यदि कोई खुले में शौच करता मिल गया तो उसे भगाने की जिम्मेदारी भी शिक्षक पर ही है।
रसोई के गेहूं, चावल साफ करने से लेकर बच्चों के आधार कार्ड बनवाने, जन आधार कार्ड में नाम संशोधन करवाने, बैंक में अकाउंट खुलवाने , एमडीएम के गेहूं चावल साफ करने से लेकर बालक की नोजी ,पोटी तक साफ करने की जिम्मेदारी उसी पर है। स्कूल में थोड़ी बहुत मरम्मत करवानी है। टूट-फूट ठीक करवानी है तो वह भी उसे ठेकेदार बनकर करना होता है। सरकारी भवन या उसके मैदान पर यदि कोई दबंग अतिक्रमण कर लेता है तो उस दबंग से लड़ने की जिम्मेदारी, उसे नोटिस देने की जिम्मेदारी भी उसी शिक्षक पर है।
किसी भी प्रकार के पोर्टल पर नागरिकों का या छात्र छात्राओं का किसी भी तरह का रजिस्ट्रेशन करना है, करवाना है तो वह भी शिक्षक ही करवाएगा।..और यह सब करते हुए बीच-बीच में, यदि उसे समय मिल जाए, तो कक्षा में पढ़ाने की जिम्मेदारी भी उसी पर है।यह बीच-बीच में मिला हुआ समय ही उस बच्चे का और उसके खुद का रिजल्ट बनाता है। यदि कभी गलती से बच्चा यह पूछ लेता हैं कि , “सर, आज पढ़ाएंगे?”तो शिक्षक मन ही मन बड़ा दुखी होकर कहता है ,“हां, जरूर! यदि अन्य कार्यों से फुर्सत मिल गई तो" शिक्षक अंदर से कितना दुखी है । वह बच्चों को शिक्षण कार्य नहीं करवा पा रहा है। इससे शिक्षा विभाग के अधिकारी कितने परेशान है। इस बात को कोई समझना नहीं चाहता।
जितने भी विभाग है।उन सब की योजनाओं के प्रचार प्रसार का मुख्य केंद्र सिर्फ शिक्षा विभाग रह गया है।पंचायती राज, राजस्व विभाग से लेकर न्याय विभाग। चिकित्सा , सामाजिक न्याय ,सहकारिता विभाग। जल संसाधन से लेकर विद्युत विभाग तक। ऐसा कोई डिपार्टमेंट नहीं ,जिसका प्रचार प्रसार शिक्षा विभाग के द्वारा नहीं किया जाता हो।
सरकारी विद्यालय का छात्र केवल छात्र मात्र नहीं है। वह सरकार के लिए एक बहुउपयोगी संसाधन है। कभी उसे योजनाओं के प्रचार प्रसार के लिए नाटक मंचन करना होता है,तो कभी मंच पर खड़े होकर भाषण। कभी उसे निबंध लिखना होता है, कभी रैली में नारे लगाने ,कभी सर्वे का फॉर्म भरना होता है। तो कभी लाइन में खड़े होकर व्यवस्था संभालनी होती है।
स्कूल में सफाई से लेकर घंटी लगाने की जिम्मेदारी तक भी उसी पर होती है।सरकारी विद्यालय का बालक बहुत व्यस्त है इस व्यस्तता से यदि उसे थोड़ा बहुत समय मिल जाए तो वह पढ़ाई लिखाई कर लेता है।यही कारण है कि सरकारी विद्यालयों के बच्चें कक्षा में कम और गतिविधियों में ज़्यादा पास होते हैं। ऐसा लगता है सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई अब अनिवार्य नहीं, बल्कि एक वैकल्पिक सुविधा बनती जा रही है।जैसे स्टेशन पर वेटिंग रूम।अगर शिक्षक अन्य ड्यूटी पर नहीं गया,पोर्टल डाउन नहीं हुआ,कोई नई योजना नहीं आई तो पढ़ाई हो जाती है।वरना "आज पढ़ाई नहीं होगी, बच्चों को योजनाओं के बारे में बताया जाएगा। रैली निकाली जाएगी।"
सरकार हर साल शिक्षकों से ही प्रश्न करती है ,“सरकारी विद्यालयों में नामांकन क्यों घट रहा है?"सरकारी शिक्षक को ही नामांकन घटने का दोषी माना जाता है। उसे नोटिस दिया जाता है उसके खिलाफ कार्रवाई की जाती है,उसके इंक्रीमेंट रोके जाते हैं।...फिर सरकार "सरकारी विद्यालयों में नामांकन बढ़ाने के लिए नई योजना लाती है,नया पोस्टर छपवाती है,नया ऐप लॉन्च करती है।"
शिक्षक बच्चों को कब पढ़ाएं,साल भर उसे इसकी कोई चिंता नहीं होती।
“बच्चे पढ़ेंगे कब?” इसकी सरकार के पास कोई कार्य योजना नहीं।
अभिभावक बहुत भोला प्राणी नहीं है। वह देखता है कि सरकारी विद्यालय में शिक्षक कभी है, कभी नहीं,कभी कक्षा है, कभी अभियान,कभी पढ़ाई है, कभी सर्वे
आख़िर वह तय करता है।भले ही उसे फीस देनी पड़े , पर बच्चा रोज़ पढ़ना चाहिए।
...और आखिर बालक को निजी विद्यालय भेज देता है।
निजी विद्यालयों की सबसे बड़ी गलती यह है कि वे शिक्षक से सिर्फ पढ़ाने का काम लेते हैं,
बच्चे से सिर्फ पढ़ने की अपेक्षा करते हैं,
वहां शिक्षक चुनाव नहीं कराता,बच्चा सर्वे फार्म नहीं भरता,कक्षा रोज़ चलती है।
यह सब देखकर सरकारी विद्यालय को लगता है कि निजी विद्यालय अनुचित प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं।
नामांकन घटता है तो सरकार सोचती है,“चलो, एक और योजना लाओ!”
साइकिल दे दी,ड्रेस दे दी,जूते दे दिए,बैग दे दिया,टैबलेट देने की घोषणा कर दी
बस एक चीज़ नहीं दी,शिक्षक को पढ़ाने का समय।
सरकार का मानना है कि “जब सब कुछ मुफ्त मिल रहा है, तो बच्चा पढ़ ही लेगा।”
पर बच्चा किताब नहीं, समय और शिक्षक से पढ़ता है, यह बात शायद पाठ्यक्रम से बाहर है।
"विगत 17 दिसंबर2025 को शिक्षा मंत्रालय ने संसद में जानकारी दी कि शून्य या 10 से कम छात्रों वाले स्कूलों की संख्या में बीते दो साल में 24% की बढ़ोतरी हुई है। देश में 10.13 लाख सरकारी विद्यालयों में से 5149 विद्यालयों में एक भी छात्र नहीं है।"अगर यही हाल रहा तो आने वाले समय में सरकारी विद्यालयों में बच्चे नहीं रहेगें।सिर्फ योजनाएं होंगी,शिक्षक होंगे, पर पढ़ाने वाला कोई नहीं।भवन होंगे, पर कक्षाएं नहीं..और तब सरकार गर्व से कहेगी,“हमारे पास सबसे ज़्यादा योजनाएं हैं,भले ही बच्चे कम हों।”
शिक्षा कोई अभियान नहीं, जिसे हर महीने बदला जाए।शिक्षक कोई सर्वेयर नहीं, जिसे हर योजना में झोंका जाए।बच्चा कोई स्वयंसेवक नहीं, जिसे हर रैली में खड़ा किया जाए।जब तक शिक्षक को शिक्षक नहीं बनाया जाएगा।विद्यालय को विद्यालय नहीं रहने दिया जाएगा और पढ़ाई को योजनाओं से ऊपर नहीं रखा जाएगा।
जब तक सरकारी विद्यालयों में योजनाएं बढ़ती रहेगी, सरकारी विद्यालयों का नामांकन घटता रहेगा और निजी विद्यालय फलते-फूलते रहेंगे। अभिभावक वही करता है,जो बच्चे के भविष्य के लिए ज़रूरी है।सरकारी योजनाओं के लिए नहीं।इसलिए सरकार को ईमानदारी से इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।सरकारी विद्यालय के शिक्षक को शिक्षक ही रहने दें। सरकारी विद्यालयों को सिर्फ सरकारी योजनाओं के प्रचार प्रसार का माध्यम नहीं बनाएं।बालक को पढ़ने और शिक्षक को पढ़ाने के लिए समय दें।
- हनुमान मुक्त ,"मुक्तायन" ,
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