कीर के कागर ज्यों नृप चीर पद का अर्थ व्याख्या

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कीर के कागर ज्यों नृप चीर पद का अर्थ व्याख्या तुलसीदासजी कहते हैं कि वन जाते समय सीताजी एवं लक्ष्मण के साथ भगवान् राम ने राज्योचित परिधान और आभूषण का

कीर के कागर ज्यों नृप चीर पद का अर्थ व्याख्या


कीट के कगार ज्यों नृप चीर विभूषन उप्पम अंगनि पाई । 
औध तजि मग बास के रुख ज्यों, पंथ के साथी ज्यों लोग लुगाई।
संग सुबंधु, पुनीत प्रिया, मनो धर्म किया धरि देह सुहाई । 
राजीव लोचन राम चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाई ।। 

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने राम वनगमन का चित्रण किया है।

व्याख्या- तुलसीदासजी कहते हैं कि वन जाते समय सीताजी एवं लक्ष्मण के साथ भगवान् राम ने राज्योचित परिधान और आभूषण का परित्याग ठीक उसी प्रकार कर दिया जैसे- कोई तोता अपने पुराने पंखों का परित्याग कर देता है। परिणामत: उसके शरीर का नैसर्गिक स्वरूप निखर उठता है। 

श्रीरामचन्द्रजी ने अयोध्या को उसी प्रकार से छोड़ दिया जैसे- पथिक मार्ग में मिलने वाले वृक्षों का आश्रय तो ग्रहण करता है, परन्तु फिर उसकी चिन्ता न करके वहाँ से चल पड़ता है अथवा मार्ग में मिलने वाले स्त्री-पुरुष से जैसे किसी पथिक का कोई सम्बन्ध नहीं रहता, उनके प्रति कोई लगाव नहीं रह जाता, उसी प्रकार भगवान् राम अयोध्या का परित्याग करके चल पड़ते हैं।

राम के साथ लक्ष्मण तथा सीता इस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं मानों धर्म तथा क्रिया साक्षात् स्वरूप धारण करके उनके सम्मुख उपस्थित है। कमल के समान नेत्रों वाले राम ने अपने पिता द्वारा दिये हुए राज्य को बटोहियों की भाँति छोड़कर सहर्ष वन में चले जाते हैं, जैसे- कोई पथिक मार्ग में मिलने वाली समस्त आकर्षक वस्तुओं का परित्याग करके लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता है।
 
विशेष - उपरोक्त पद में निम्नलिखित विशेषताएं हैं -
  • प्रस्तुत पंक्तियों में रामचन्द्र जी की राज्य के प्रति उदासीनता का चित्रण हुआ है। 
  • राम के चरित्र की दृष्टि से यह अंश महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ पर राम की चारित्रिक विशेषताएँ अपूर्व सहन-शक्ति, धीरता और त्याग, भाव तथा निर्लिप्तता आदि प्रकट होती है। 
  • यहाँ पर उत्प्रेक्षा, उदाहरण, अनुप्रास और उपमा अलंकारों का सुन्दर प्रयोग है। 
  • विरक्ति और निर्वेद भाव का चित्रण किया गया है। अतः यहाँ पर शान्त रस है।

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