हैप्पी न्यू ईयर सेम टू यू

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हैप्पी न्यू ईयर सेम टू यू हर साल सात जनवरी को दस बजकर बीस मिनट में वह अपनी अलमारी खोलकर वही नीली पेन निकालती है। पेन को देखकर कहीं खो जाती है। वह मंजर

हैप्पी न्यू ईयर सेम टू यू


फोन करने जाना था बेटा.....परेशानी में डूबे बाबूजी तीसरी बार कह चुके थें।

नीलू स्वयं बहुत परेशानी में पड़ गई थी। फोन तो रखा था बगल के कमरे में। दरवाजा खोलो तो रखा हेै फोन। लेकिन दरवाजा थोड़े ही खोला जा सकता है। दरवाजा तो उस तरफ से बंद हैै। औेर उस तरफ है ऑफिस। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी का जोनल ऑफिस।ं सारे दिन काम चलता रहता है वहाँ। बैठा रहता हैै वहाँ नया मैनेजर। ”नो नॉनसेेंस“ टाइप का कड़ियल आदमी“। सारे दिन इस नये बॉस की सधी हुई फरमाबदार आवाज गूंजती रहती हैे ऑफिस में। ऑफिस के बाद वाले कमरों में ही तो रहते हैेैं नीलू लोग। ऑफिस की एक एक बात सुनाई देती है नीलू लोगों को। जरूर नीलू लोगों की बातें भी उधर सुनाई देती होेंगी।

यह ऑफिस देखकर ही बिदके थे नीलू और नितिनं, जब वे मकान देखने आये थे। उस समय ऑफिस के मैनेजर थे आस्थाना साहबं। उन्होंने ही आश्वस्त किया था.-नही, आप लोगों को कोई दिक्कत नहीं होगी, बल्कि सहयोग ही मिलेगा हम लोगों से।

और मिला भी। बड़े ही माईडियर किस्म के इन्सान थे आस्थाना साहबं। ढीले ढाले अलमस्त। शाम पाँच बजते बजते अपने घर वल देते। उनका अपना पुश्तैनी मकान इसी शहर में था। आस्थाना साहब के पहले जो मैनेजर थे, वे नीलू वाले हिस्से में ही रहते थे। दरअसल यह हिस्सा था ही ऑफिस के मैनेजर के लियें। आस्थाना साहब के न रहने से  मकानमालिक को इस हिस्से के लिए किरायेदार ढंूंढना पड़ा था। बहुत पेशोपेश में पड़े थे नीलू और नितिन जब मकान देखने आए थे । मकान बढ़िया था, पर ऑफिस एकदम सटा हुआ। आस्थाना साहब ने ही कहा था, नही,ं आप लोगों को कोई्र दिक्कत नहीं होगी, बल्कि सहयोग ही मिलेगा। और सच में उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। ऑफिस के सारे कर्मचारी युवक ही थे। अपने में मस्त रहते। आस्थाना साहब के घर के लिए रवाना होते ही मौज मस्ती में आ जाते। मेज को तबला बनाकर खूब गाते। कभी फिल्मी गाने, कभी भोजपुरी लोकगीत। कभी पॉप सांग, तो कभी शास्त्रीय गीत। बीच बीच में खूब ठहाके लगते, लेकिन नितिन और नीलू से अदब से पेश आते। वे जब जरूरत हो ऑफिस जाकर फोन कर लेते। नितिन का फोन अभी इस घर में नहीं लग पाया था और मोबाइल अभी चलन में नहीं आया था।

हैैप्पी न्यू इयर, सेम टू यू
मगर अब आस्थाना साहब का तबादला हो गया था। उन्होंने ही बताया था,नया मैनेजर पहले सेना में मेजर था। सचमुच उसने आते ही सेना का अनुसाशन लागू कर दिया था ऑफिस में। सारे दिन अॅाफिस में कड़क सन्नाटा छाया रहता। सिर्फ मैनेजर की धीमे, सधे हुए स्वर में दी गई हिदायतें सुनाई देतीं। नितिन ने एक दिन बताया था, मैं फोन करने गया था, तो इस मैनेजर का थोबड़ा लटक गया था। इसी कारण वह बाबूजी से बार बार कह रही थी- आप मुझे नंबर और संदेश दे दीजिए, तो मैं मोड़ के टेलीफोनबूथ पर जाकर कह दूंगीं। आप तो उतनी दूर चल नहीं सकेंगे। मगर तब बाबूजी बिगड़ने लगे थे कि उनका खुद बात करना बहुत जरूरी है।

मन मारकर वह बोली- चलिए बाबूजी।

बाबूजी को संभाल कर पकड़े हुये वह मैनेजर के कक्ष तक पहुँची।

नया मैनेजर अपनी रौबीली आवाज में अपने सामने खड़े अपने दो सहायकों को झिड़क रहा था। दरवाजे पर एक सभ्रांत वृद्ध और एक शालीन रमणी को देखकर औपचारिकतावश बोल गया-”आ जाइए आप लोग।“

कई लोग बैठे थे ऑफिस में। सिर्फ एक कुर्सी खाली थी। उसने बाबूजी को उसपर बैठा दिया। दोनो ने हल्के से नमस्ते कियां। मैनेजर ने हल्के से सिर हिलाकर प्रत्युत्तर दिया। वह बोली-”ये बगलवाले शर्माजी के पिताजी हैं। इन्हें जरा फोन करना था।

मैनेजर ने फोन आगे बढ़ा दिया। बाबूजी से नंबर लेकर वह मिलाने लगी। नंबर लग नहीं रहा था। मैनेजर बेचैन सा दिख रहा था। अधीर भी। उसने फोन स्वयं ले लिया। उससे नंबर लेकर लगाया। रिसीवर बाबूजी की ओर बढ़ाया। बाबूजी बात करने लगे। अब जैसे मैनेजर ने बड़ी मेहरबानी से उसकी तरफ देखा। बोला-आप मिसेज शर्मा हैं।

जी, वह मुस्कुराई-और आप मेजर सिंह।

जी हाँ, वह भी जरा हँसा। कुछ सहज हुआ। पास में रखे सूटकेस की तरफ इशारा किया और अपने धूल धूसरित सिर पर हाथ फेरता हुआ बोला-अभी ही टूर से लौटा हूँ। घर भी नहीं जा पाया। फिर अपने सहायक को बुलाकर कुछ हिदायत दी और फाइल खोलकर  देखने लगा।

नीलू अब तक खड़ी ही थी। अब एक नजर उसे देखां। कद्दावर फौजी शरीर, तीखे नाकनक्श। तराशी हुई रौबदार मूछें। सांवले से चेहरे पर एक तरह की सख्ती। एक ,खीझ, एक व्यस्तता। तिस पर नाक पर चढ़ा हुआ चश्मा, बेशक उसे एक रौबीली और कड़क छवि देता था।

घर लौटकर उसने बाबूजी को  ठीक से उसी कमरे में बेैठाया। यानी ऑफिस से लगे कमरे में। फिर कॉफी बनाकर लाई। बाबूजी कॉफी सिप करने लगे। वह भी। फिर कहने लगी-बाबूजी, फौजी लोग तो महिलाओं का बहुत सम्मान करते हैं न।

बहुत- बाबूजी बोले।

”लेकिन लगता है बाबूजी, फौैजियों के मापदंड बदल गए हैं। इनके सामने महिलाएं खड़ी रहती हैं और ये कुर्सी पर बैठे रहते हैं।“

बंद दरवाजे के उसपार मानो भारी निस्तब्धता छा गईं।

”सभी जगह स्तर गिर गया है बेटा“-बाबूजी धीरे से बोले।

”असल में बाबूजी- वह सुनाती हुई आवाज में कहने लगी-अब लोग कोई देशभक्ति के चलते थोड़े ही सेना में जाते हैं। ऐश करने के लिए जाते हैं। मौका मिलते ही छोड़ देते हैं सेना, और ज्वाइन कर लेते हैं खूब पैसा देने वाली किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की नौकरी।

उधर की एक्जक्यूटिव चेयर चरमराई। कुछ पलों में दरवाजे के नीचे की दरार से सिगरेट की तीखी गंध आईं।

वह दुष्टता से मुस्कुराई। बाबूजी भी मुस्कुरा दिए।

एकाध हफ्ते में बाबूजी फिर अपने गाँव चल दिएं। जब तक रहे, उनसे बोलते बतियाते हुए एक न एक बोल मार देती नीलू। नितिन सुबह नौ बजे ऑफिस के लिए निकलता तो शाम पाँच बजे ही ऑफिस से लौटता। इसी बीच उसे जब मौका मिलता, चुटकी बजा बजा कर उल्टे सीधे गीत बना बनाकर गाती और मेजर का भेजा उड़ाने लगती-

ऐसी नौकरिया की का कहूँ सजनी,

मुच्छड़ बिचारो दिनरात टरटरावै री।

कभू टरटरावै, कभू गरियावै,

ऑफिस में बिजली बेबात कड़कावै रीं।

नितिन लौटता तो और मौज हो जाती। चाय, नाश्ता, गरम गरम पकौड़े, इडली, दोसे,खाते जाते, गपियाते जाते। नितिन दंभी और शेखीबाज था। बताता रहता कि वह कितना कुशल, कितना कर्मठ अधिकारी है। वह उसे उचकाये जाती-हाँजी, मैं जानती हूँ, इतने चोट्टे और निकम्मे अफसरों के बीच तुम्ही सबसे काबिल और ईमानदार ऑफिसर हो। मैं तो देख ही रही हूँ,, ऑफिसर कितना काम करते हैं।

ईशारा समझ नितिन टरटराने लगता-मैं कोई प्राइवेट कंपनी का ऑफिसर नहीं हूँ। हम राष्ट्र की प्रगति में योगदान करनेवाले लोग हैं। एक एक बात को खुद चेक करता हूँ वर्ना ये जनम जनम के दरिद्र पूरा विभाग बेच खायें। तुम करो किसी सरकारी ऑफिस में नौकरी ,तब न जानो। लायब्ररी से मोटी मोटी किताबें लाना, घंटों बैठे बैठे पढ़ते रहना, और कलम घिसना। फकत नवाबी करती हो तुम तो।

हम क्यों करें साहब नौकरी! हमारी किस्मत में तो राजयोग लिखा हेै। जिनकी किस्मत में चाकरी लिखी है, वे करते फिरते हैं चाकरी। एक छोड़ते हैं, तो दूसरी के पीछे भागते हैं। दूसरी छोड़ते हैं, तो तीसरी के पीछे। हर जगह, ”मोस्ट हंबली एंड फेथफुली योर्स सर...।“

ं उसने सुन रखा था, इस मैनेजर ने सेना छोड़ने के बाद दो तीन नौकरियाँ और भी की थीं।

कोई दिन कुछ सहेलियाँ आ जाएं तो फिर क्या पूछना। शरारत परवान चढ़ जाती। चाय नाश्ता के बाद दुष्टता शुरू- जानती हो, कितने फौजी अफसर तो आतंकवादियों के डर से सेना छोड़कर भाग गए हैं। सरकार ने जासूसी कुत्ते छोड़ रखे हैं, इन आर्मी डेजर्टर्स के पीछे। फिर आँख दबाकर मुस्कुराती, ”एक तो इसी बिल्डिंग में छुपा बैठा हैे।

सारी सहेलियाँ खी...खी... कर हँसने लगतीं....बुला न रे भौं...भौं करते जासूसी कुत्ते। कुदवायेंगे इसको। कर न फोन।

अरे फोन के ही तो चलते सारा  भंडाफोड़ हुआ था री बहना।

सारी महिलाऐं खिलखिलाने लगतीं।

मेजर के लिए जब ये ताने बर्दाश्त से बाहर हो गए, तो वह बाहर बिल्डिंग के हाते में ही अपनी मेज कुर्सी लगवा लेते। वहीं काम करते दिसंबर की गुनगुनी धूप में।

 मगर एक दिन नितिन ऑफिस से आया तो कहने लगा, अब आई अकल इस अहमक को कि पड़ोसियों से बनाकर रखना चाहिए।  उस दिन मैं फोन करने गया था तो थोबड़ा कैसा लटका हुआ था। अब तो मुझे देखते ही नमस्ते करता हैं। कुछ न कुछ बतियाता है। आज तो मुझे जबरदस्ती बेेैठाकर चाय पिलाई। जानती हो, यह तो राजशेखर जी का पोता है। तुमने नाम सुना होगा, शास्त्री राजशेखर सिंह का। बड़े साहित्यकार थे वे। तत्कालीन राष्ट्रपति जी ने उन्हें चाय पर बुलाया था, तब एक नीली पेन भेंट की थी उन्होंने। यह बता रहा था, अपनी बाद की श्रेष्ठ रचनाऐं उसी पेन से लिखी थीं राजशेखर जी ने।  इसका बड़ा भाई ट्रंाबे में वैज्ञानिक है। परिवार में यही एक निकम्मा निकलां। सिर्फ ग्रेजुएट तो है। आगे पढ़ा ही नहीं। घर से भागकर सेना में भर्ती हुआ था।

सेना से भागकर यहाँ आया है- वह बोली।

यहाँ से भी भागेगा-नितिन कहने लगा...मल्टीनेशनल कंपनी की नौकरी इसके बस की नहीं। इतना टेंशन पालता है जैसे सारी जिम्मेदारी इसी की हेै।

मगर उस दिन नीलू स्वयं मुसीबत में पड़ गईं। एक परिचित के घर सगाई थी। परी की तरह सजधज कर निकली नीलू। अपने दरवाजे में ताला लगाकर जैसे ही पलटी, सामने मेजर सिंह धूप में अपनी फाइल निपटाते नजर आए। निगाहें मिलते ही हाथ जोड़कर मुस्कुराए। नीलू का चेहरा आरक्त हो उठा। क्या सचमुच वह इसी सुदर्शन पुरुष को इस कदर चिढ़ाती रहती थी। ज्ल्दी जल्दी कदम बढ़ाकर वह हाते से बाहर निकल गई।

सगाई के सारे कार्यक्रम के दौरान वह अपना आरक्त चेहरा लिए सन्नाटे में ही रही। घंटे भर के बाद लौटी , तो हाते के फाटक पर कदम रखते ही मेजर  ने ऐंसे प्यार से अभिवादन कर दिया कि नीलू का सर्वाग सनसना उठा।

मुश्किलें और भी बढ़ने लगी थीं। वह जब भी दरवाजे तक जाती, दूधवाला आता तो दूध लेने, सब्जीवाला आता तो सब्जी लेने, अखबार पत्रिकाऐं उठाने, धूप में बैठे मेजर की दृष्टि टप से उसपर पड़ ही जाती। इधर उन्होंने अपनी मेज कुर्सी ही ऐसी जगह रखवा ली थी कि नीलू एक मिनट के लिए भी दरवाजे पर आए तो दिख जायें। कभी एकाधबार नीलू भी देख ले तो ऐसी मुहब्बत से नमस्कार करते कि नीलू की जान ही निकल जातीं।

नीलू की बोलती बंद हो चुकी थी। वह हर वक्त एक ताप से झुलसती सी रहतीं। भीतर भीषण अंर्तद्वंद्व सा चलता रहता-यह क्या हो रहा है! लोग क्या सोच रहे होंगे। इतना जिम्मेदार आदमी, बाहर जोगी सा धूनी रमाए बैठा रहता हैे।

वह पहली जनवरी थीं। लगभग दस बजे का समय। नीलू और नितिन तैयार होकर निकले, मित्रों के साथ पिकनिक मनाने। नितिन अपनी मोटरसायकिल निकाल कर किक मारने लगा। नीलू घर के दरवाजे में ताला लगाने लगी। सामने हाते में मेजर बैठा हुआ था, अपने पूरे स्टाफ के साथ। नए साल की नई सुबह। कुछ हँसी दिल्लगी चल रही थी। संभवतः इसी मूड में मेजर बोल उठे-”नमस्कार शर्माजी, किधर चल दिए। कभी हमें भी तो कॉफी वाफी पिलाइए भई। सुना है, आपकी मेम साहब बहुत बढ़िया कॉफी बनाती हैं।“

नितिन का चेहरा तमतमा गयां। वह कुछ बोले नहीं।

क्या बात है शर्माजी, नाराज हैं क्या भई- मेजर कुछ सहम कर बोले।

नितिन ने सिर उठाकर उनकी तरफ घृणा से देखा। फिर अपनी टरटराती आवाज में बोले-”क्या बात है साहब, मैं अपनी फैमली के साथ जा रहा हूँ,, तो मुझे क्यों टोक रहे हैं। मैंने पहले ही कह दिया था, मुझे नॉनएकेडेमिक लोगों की कंपनी पसंद नहीं।“

मेजर पर मानो घड़ों पानी पड़ गया। पूरा स्टाफ सनाका खा गया।

सारे रास्ते नितिन गुस्से में फुंफकारता रहा...”सुबह से ही मूड खराब कर दिया बेहूदे ने। लुच्चा कहीं का। खूब समझता हूँ मैं। इसकी निगाह मेरी बीबी पर है। मैं मकान बदल लूंगा साहब।“

अवसाद की गहराइयों में डूबती वह किसी तरह बोली-”जल्दी बदल लो जी मकान।“

उस दिन के बाद फिर कभी कोई बाहर हाते में नजर नहीं आयां।

ऑफिस में तो जैसे मातम छा गया था। कर्मचारियों के बोलने की आवाज तक कभी सुनाई नहीं पड़तीं। मेजर की आवाज तो बिल्कुल भी नहीं। दरवाजे से बहुत कान सटाकर सुनती नीलू तो आभास होता, कोई बेहद कमजोर सी आवाज में कुछ निर्देश दे रहा हेैं, और फिर एकदम खामोशी छा जाती।

लेकिन उस दिन आस्थाना साहब ही आ गए नीलू के धरं। नितिन था नहीं। वे नीलू से ही बतियाने लगें। परेशान से कहने लगे कि कंपनी के डायरेक्टर्स मिस्टर एंडरसन और मिस्टर सुब्रमनियम आ रहे हैं मुआयना करने। लेकिन यहाँ तो सब ठंडा पड़ा है। कोई तैयारी ही नहीं। इस मेजर को जाने क्या हो गया है।

 नीलू का हृदय विदीर्ण होने लगा- इनके डायरेक्टर्स आ रहे हैं और इनका ये हाल। क्या इनके घर में कोई इनका मूड ठीक करने वाला नहीं हेैं! इनके मित्रों में कोई नहीं करता इनका मूड ठीकं। सारी करतूत तो उसी की हैं। बिना बात उनका दिमाग खराब किया। सरेआम अपमान करवा दियां।

वह जनवरी की सात तारीख थी। संपूर्ण उत्तर भारत शीत लहर की चपेट में था। चारों ओर घना कोहरां। तिस पर सुबह से बिजली गोल। नितिन अपने ऑफिस की गाड़ी में जा चुका था। मेजर की जीप भी आकर  सामने हाते में खड़ी हो चुकी थी। दस बज गए थें। कुछ ही देर में ऑफिस के बाकी कर्मचारी भी आ जायेंगे।

नीलू का हृदय धक धक कर रहा थां। वह जो कदम उठाने जा रही थी, कहीं गलत तो नहीं समझी जायेगीं। कहीं कोई बेैठा न हो वहाँ। न जाय तो अच्छा। बेकार नया फसाना बन जायेगा।

मगर वह तैयार हुई। राख के रंग की सादी साड़ी। हल्के भूरे रंग का पुराना कार्डिगन। बिना किसी प्रसाधन के सादा सलोना चेहरा।

दरवाजे से कान लगाकर आहट ली। एकदम सन्नाटा। कुर्सी जरा सी चरमराई तो लगा, हाँ हैं।

भीतर के सारे डर को धकेलकर वह पहुँच ही गई, ऑफिस के दरवाजे पर। भीतर मेज पर एक मोटी सी मोमबत्ती जल रही थी। मोमबत्ती के मायावी प्रकाश में कुर्सी पर बैठे मेजर कुछ लिख रहे थे, गहन विचारपूर्ण मुद्रा में। बदन पर मैरून रंग का फुलओवर,, आँखों में चश्मा,  सुव्यवस्थित कमरा,  पूरा वातावरण स्वप्नलोक सा।

वह दरवाजे पर ठिठक गईं। मुँह से आवाज नहीं निकल पा रही थी। मेजर ने ही सिर उठाकर देखा और मृदुल स्वर में बोले-आइए।

वह भीतर आ गई। कुर्सी पर बैठ गई। कागज पर लिखा एक फोन नंबर मेजर की तरफ बढ़ा दिया। मेजर ने नंबर मिलाकर रिसीवर उसकी तरफ बढ़ा दियां।

रिसीवर लेकर उसने कुछ बातें की। फिर उठने लगी। मन में एक हूक सी उठी...”भय, संकोच, की इतनी घाटियाँ लांघकर यहाँ तक पहुँच पाई हूँ, क्या फोन करने के लिये। बोली-आपने हमें नये साल का कलेंडर नहीं दियां।

अरे..रे... अभी लीजिए....वे बोल उठे....बैठिए, बेठिए तो जरां।

घंटी बजाकर उन्होंने चपरासी को बुलाया और कलेंडर लाने कहा। चपरासी कलेंडर निकालने गया। अब दोनो आमने सामने थे। मेजर की अनुराग भरी दृष्टि ने उसे अपने घेरे में ले लिया था। घबराहट में वह इधर उधर देखने लगी। बोली...”बापरे, कितनी ठंड है।“

”बहुत“... वे वैसे ही मंत्रमुग्ध से निहारते गहरे स्वर में बोले.। फिर मेज की दराज से डायरी निकालकर उसकी ओर बढ़ाया....यह रखिये।

उसने डायरी रख ली। चपरासी ने कलेंडर लाकर उन्हें दिया। उन्होंने कलेंडर भी उसकी ओर बढ़ाया...इसे भी रखिए।

 कलेंडर और डायरी लेकर वह उठ खड़ी हुई। सहसा बोल गई...लेकिन आपने तो हमें कुछ नहीं दिया। ये तो कंपनी के हैं।

मानो एकबारगी ही तड़प गए हों वें। कुर्सीं में सिर टिका निढाल से हो गए, बोले- बैठिए,बैठिए न एक मिनटं।

वह बैठ गईं। मेजर व्यवस्थित हुए। बड़े प्यार से  कलमदान में रखी एक अनूठी सी पेन निकाली। उसकी ओर यूं बढ़ाया जैसे समर्पित कर रहे हों, बोले...आप लिखती हैं न,, ये रखिए।

उसने पेन ले लिया। डायरी और कलेंडर भी। उठी। बाहर चली। मेजर भी उठे। साथ चले। तृप्त,आल्हादित, स्वर्गिक  सुख में डूबे से क्षण।

दरवाजे पर पहुँचकर उन्होंने हाथ जोड़े। उसने भी। अंतिम बार साहस कर नजरें उठाईं। भर नजर मेजर को देखा। आँखें डबडबा आईं। बोली...”हैप्पी न्यू इयर।“

 मेजर का चेहरा घने बादलों सा हो रहा था। भरे गले से बोले...”थैंक्यू, सेम टू यू“।

मंत्रमुग्ध सी वह घर लौटी। सोफे में सिर टिका आँखें मूद लीं। पेन का ध्यान आया। आँखें खोलकर गौर से देखा...नीली पेन, नीचे बारीक सुनहले अक्षरों में चमक रहा था....प्रजेंटेड बाई.....। उससे पढ़ा नहीं गया। आँखें झरझर बरसने लगीं।

शाम तक पूरे ऑफिस का माहौल जीवंत हो चुका था। जीवंत और क्रियाशील। बढ़ती हुई सरगर्मियां बता रही थीं कि मि. एंडरसन ओैेर मि. सुब्रमनियम के  स्वागत की जोरदार तैयारियाँ हो रही है। मेजर अपनी स्नेहसिक्त, गंभीर आवाज में अपने कर्मचारियों को आवश्यकं निेर्देश. दे रहे हैं।

बगल के कमरे में नीलू अपना सामान पैक कर रही थी। अपने में डूबीं। आत्मतृप्त। नितिन ने नया मकान ले लिया था। यहाँ से दूर। बहुत दूर।

एंेसे ही बहुत दूर रहते बहुत बरस बीत गए नीलू को। मेजर को उसने फिर कभी नहीं देखा। लेकिन हर साल सात जनवरी को दस बजकर बीस मिनट में वह अपनी अलमारी खोलकर वही नीली पेन निकालती है। पेन को देखकर कहीं खो जाती है। वह मंजर आँखों के आगे जीवंत हो उठता है....सिंउूरी आभा बिखेरती वह पृथुल मोमबत्ती,  अनुराग छलकाती वे अवश आँखें। उसके मुँह से  अनायास ही निकल पड़ता है..”.हैप्पी न्यू इयर टू यू मेजर।“

और उसे भरे कंठ की धीमी आवाज सुनाई देती है...”थैंक्यू, सेम टू यू।“


- शुभदा मिश्र
14,पटेलवार्ड, डोंगरगढ़(छ. ग.)491445
मो. नं.,9182695,94598

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