बब्बन चाचा और समाज सेवा का अधूरा सपना जैसे ही बब्बन चाचा सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हुए, शहर में कुकरमुत्तों की तरह उग आई संस्थाओं ने उन्हें सर आंखो
बब्बन चाचा और समाज सेवा का अधूरा सपना
जैसे ही बब्बन चाचा सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हुए, शहर में कुकरमुत्तों की तरह उग आई संस्थाओं ने उन्हें सर आंखों और माथे पर बिठा लिया। दरअसल, सेवानिवृत्त होने से पहले ही वह समाज सेवा का मन बना चुके थे। संस्थाओं ने उनकी इस मनोवृत्ति को सूंघ लिया — आखिर संस्थाएं बनी ही इसलिए हैं कि कोई तो ऐसा मिले जिसे सेवा का कीड़ा काटे, और फिर संस्थाएं उससे सेवा करवा सकें!
उनके सेवानिवृत्ति समारोह में सभी लोग अपने-अपने सेवा "मेनू कार्ड" लेकर उनके पास पहुँच गए। विकल्प सुझाए गए — "बताइए, आपको किस प्रकार की सेवा करनी है? हमारी संस्था हर प्रकार की समाज सेवा में अग्रणी है।" सदस्यता पैकेज से लेकर रक्तदान, केले, कंबल, कपड़े — जो भी हो, सब कुछ दान के साथ ही उपलब्ध। सभी के पास लाभार्थियों की "प्रामाणिक सूची", अखबारों से सांठगांठ, नित्य छपने की गारंटी, सम्मान, पदक और सरकार से भी दो-चार अलंकरण दिला देने की गारंटी!
कुल मिलाकर, संस्थाओं के पास समाजसेवा को सुनिश्चित करने के लिए अपने-अपने ‘साम’, ‘दाम’, ‘दंड’, ‘भेद’ के तरीके मौजूद हैं, ताकि सेवा येन केन प्रकारेन हो ही जाए बस ।
अब जीवन की बची हुई फूँक से समाज की सेवा में जान फूँक देने का उनका जज़्बा देखते ही बनता है । लेकिन दुर्भाग्य से समाज सेवा चाचा के लिए कोई मिशन नहीं, एक “मिसफ़ायर” जैसा कुछ हो गया। ऐसा क्यों हुआ, हमने पूरी तहकीकात करके जो शोध रिपोर्ट हासिल की है, वो अब आपको बताते हैं!
इसके लिए हमने अपने कई ख़ुफ़िया स्रोत—जो उनके मित्र कहलाते हैं—बब्बन चाची, उनके बच्चे, आस-पड़ोस, कुछ दीवारें जिनके कान होते हैं, उनके अपने कान लगाकर सारे तथ्यों को इकट्ठा कर लिया है और अब थोड़ा बहुत तोड़-मरोड़कर आपके सामने पेश कर रहे हैं।
तो यह सिलसिला आज से दो साल पहले शुरू हुआ। इस बीच में चार-पाँच संस्थाएँ चाचा ने जॉइन कीं। सिफ़ारिश कहीं नहीं लगानी पड़ी। संस्थाएँ एक जोड़ी जातीं, दूसरी छूटती जातीं। किसी भी संस्था में एक या दो महीने से ज़्यादा नहीं टिके। या तो वे दूसरी संस्था को मौका देना चाहते थे या उसी संस्था में किसी और को। कारण कुछ भी हो सकता है।
चाचा ने पहली संस्था जॉइन की—उसके पहले ही प्रोग्राम में ऐसा अनुभव हुआ कि “सर मुंडाते ही ओले पड़ गए।” संस्था का शपथ ग्रहण समारोह था।
कार्यक्रम बढ़िया था, सब ठीक-ठाक संपन्न हुआ। शपथ लेते वक्त कैमरे वाले को विशेष रूप से अपनी दूर की जान पहचान का हवाला देते हुए और पोते के मुंडन संस्कार में बुलाने का वादा करके बढ़िया-सी फोटो भी खिंचवाई।लेकिन संस्था के अध्यक्ष ने उनकी इस मेहनत पर पानी फेर दिया—अपना खुद का फ़ोटो संस्था की न्यूज़ में लगवा दिया। दूसरे एडिशन में बब्बन का फ़ोटो नदारद पाकर और बब्बन की वर्तनी को “बाबन” कर देने पर नाराज़ होकर फ़ोन कर दिया—“आप मेरी सदस्यता वापस करें जी!”
दूसरी संस्था ने उनका नाम तो दर्ज कर लिया, पर संस्था के लैटर हेड में नहीं छपवाया। वह अपना नाम ढूंढते रह गए। काउंसिल के मेम्बर थे, लेकिन अध्यक्ष जी ने कहा कि “चिंता न करें नए मेम्बर, अगली साल ऐड होंगे।” बताइए ज़रा! संस्था की फीस तो पहले साल भी लगी थी, फिर कैसे होगी समाज सेवा?
अब कोई ज्ञापन दें, किसी अधिकारी से मिलें, पोस्टर-बैनर बनें—सबके लिए नाम तो होना चैये की नहीं ।इसी वादे के मुताबिक बब्बन चाचा जुट पड़े पूरी तरह संस्था की सेवा करने के लिए —खूब खिलाया . पिलाया, संस्था की कोर कमेटी को अपनी हैं हैं ब्रांड चापलूसी मुद्रा भाव के नाच से रिझाया, डोनेशन भी दिया। लेकिन संस्था में छोड़े गए अपने कुछ गुप्त सूत्रों से पता लगा कि किसी और को अध्यक्ष पद दिया जा रहा है।
बब्बन खफा होकर वहाँ से चले आए।
एक संस्था ने तो हद ही कर दी—उनकी एनिवर्सरी पर 10 रुपये की माला पहनाई गई! बताइए, जबकि उससे पहले एक दूसरे सदस्य की एनिवर्सरी पर 20 रुपये की माला थी। इस अपमान से उनका कोमल हिर्दय छुई मुई की तरह कुम्हला गया ,उन्होंने तुरंत अपने सेवा पंखों को फैलाने से पहले ही समेट लिया । वो सेवा कार्य बीच में ही छोड़कर चले आए।
एक संस्था में उन्हें मंच पर नहीं बिठाया गया। उन्होंने एक बार क्या कह दिया कि वो ज़मीनी स्तर से जुड़े कार्यकर्ता हैं, उन्हें पद, मंच, माला, माइक की कोई ज़रूरत नहीं है—उन्हें इतने गंभीरता से ले लिया गया कि वाकई में मंच से हटा दिया गया!
एक संस्था ने तो हद की सारी हदें पार कर दीं। संस्था का व्हाट्सऐप ग्रुप था—सेवा कार्यों को विस्तार देने के लिए। शहर में सेवा कार्यों को हथियाने की होड़ में एक व्हाट्सऐप ग्रुप बना जहाँ कहीं भी कोई सेवा कार्य दिखे,बस लपकने के लिए ,उसकी गुप्त सूचना देने के लिए ताकि कोई और संस्था उसे हथिया न ले।
इस ग्रुप में बब्बन चाचा के बड़बोलेपन और सेवा की उठती चूल को देखकर उन्हें जोड़ तो लिया गया, लेकिन एडमिन नहीं बनाया गया!
यह तो सरासर नाइंसाफ़ी है—बिना एडमिन अधिकार के सेवा के बारे में चर्चा करना अब उन्हें सेवा और खुद की दोनों की तौहीन लगने लगी।
वो अपने सेवा-आइडिया को अपने ही हलक में दबाए, वहाँ से सटक लिए।
अब क्या करें बब्बन चाचा? विकल्प है भी क्या? बिना सेवा किए उनका मुँह सिवा लटकने के और कर ही क्या सकता था भला!
कोई है संस्था, जो उन्हें लटका सके, सेवा की साइकिल के करियर पर उन्हें लाद सके?
सेवा के गठरियें उनके माथे पर तनिक भारी तो हैं मित्र! संस्था खुद ही सेवा में इतनी घिचपिच मचाए है...
भीतर भरा है सेवा का कोठा—बाहर ड्रॉइंग रूम में सेवा की डीलें चल रही हैं।
पद, माला, माइक से नाम, प्रतिष्ठा, अवसरों को भुनाने की डील।
सब कुछ हो रहा है सेवा के नाम पर ही—लेकिन वह कैद है संस्था की इस कालकोठरी में... इस घुटन में!
कोई है जो सुनेगा बब्बन चाचा की भी?
रोज़ ऐसे ही बब्बन चाचा हर बार समाज सेवा से थोड़ा-थोड़ा वंचित होते चले जा रहे हैं।
- डॉ मुकेश असीमित,
मेल ID-drmukeshaseemit@gmail.com
Address- Garg Hospital Gangapur city Rajasthan


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