कुंडली में उच्च और नीच ग्रहों के फल हमारे विद्वान् ज्योतिषशास्त्रियों ने सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व शनि को अलग-अलग विशेष राशियों में उच्
उच्च और नीच ग्रहों के फल
हमारे विद्वान् ज्योतिषशास्त्रियों ने सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व शनि को अलग-अलग विशेष राशियों में उच्च तथा विशेष राशियों में ही नीच का बताया है। कोई भी ग्रह जिस राशि में उच्च का होता है उसे 180° डिग्री पर वह नीच का होता है। जैसे सूर्य मेष राशि में उच्च का होता है तो उससे 180° पर अर्थात् तुला राशि में वह नीच का होता है। इसके साथ ही प्रत्येक ग्रह एक विशेष डिग्री पर ही उच्च या नीच का होता है। इस डिग्री के आसपास ही उच्चता या नीचता का प्रभाव अधिक तीव्रता से प्राप्त होता है। कोई ग्रह इस डिग्री से जितना दूर होगा, उच्चता या नीचता का प्रभाव उतना ही कम होगा। सूर्य मेष राशि में 10° पर उच्च के तथा तुला राशि में 10° पर नीच के होते हैं। चंद्रमा वृषभ राशि में 3° पर उच्च के तथा वृश्चिक राशि में 3° पर नीच के होते हैं। मंगल मकर राशि में 28° पर उच्च के तथा कर्क राशि में 28° पर नीच के होते हैं। बुध कन्या राशि 15° पर उच्च के तथा मीन राशि में 15° पर नीच के होते हैं। गुरु कर्क राशि में 5° पर उच्च के तथा मकर राशि में 5° पर नीच के होते हैं। शुक्र मीन राशि में 27° पर उच्च के तथा कन्या राशि में 27° पर नीच के होते हैं। शनि तुला राशि में 20° पर उच्च के तथा मेष राशि में 20° पर नीच के होते हैं। राहु और केतु के बारे में ज्योतिष शास्त्रियों के बीच मतांतर होने के कारण इस लेख में उनका जिक्र नहीं किया गया है।
हमारे ॠषि मुनियों ने चिंतन-मनन करके अपने अनुभव के आधार पर ही ग्रहों के उच्च तथा नीच राशियों का निर्धारण किया है। उदाहरण के लिए, तुला राशि सूर्य के शत्रु की राशि है, साथ ही काल पुरुष की कुंडली में तुला राशि सप्तम भाव में आती है। सप्तम भाव पश्चिम दिशा को इंगित करता है, जहाँ पर सूर्य अस्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त तुला राशि वायु तत्व राशि है तथा सूर्य अग्नि तत्व ग्रह है। इन सब कारणों से सूर्य की तुला राशि में स्थिति अच्छी नहीं होती तथा वह वहाँ पर वे नीच के माने जाते हैं। इसके विपरीत मेष राशि मंगल की राशि है और मंगल सूर्य का मित्र है, इसके अलावा मेष राशि अग्नि तत्व राशि है तथा सूर्य स्वयं अग्नि तत्व ग्रह है इसलिए मेष राशि में सूर्य का प्रभाव निखर कर सामने आता है, इसके अतिरिक्त मेष राशि काल पुरुष की कुंडली में प्रथम राशि है जो कि पूर्व दिशा में है। सूर्य ग्रहों का राजा है और पूर्व दिशा से ही उदित होता है। इन सभी कारणों से सूर्य मेष राशि में उच्च का माना जाता है। यदि कोई ग्रह उच्च का हो तो उसके नैसर्गिक कार्यकत्वों में उच्चता का समावेश हो जाता है, उसी प्रकार यदि ग्रह नीच का हो तो ग्रह के नैसर्गिक कार्यकत्वों में नीचता आ जाती है। उदाहरण के लिए यदि किसी जातक की पत्रिका में मंगल उच्च का हो तो वह जातक को सेना में स्थान दिलवा सकता है अथवा उसे अच्छा शल्य चिकित्सक बना सकता है, लेकिन यदि मंगल नीच का हो तो वह जातक को हत्यारा भी बन सकता है। नीच का ग्रह जातक को उदारता से दूर करके लालची भी बना सकता है। अतः नीच का ग्रह जातक को भौतिकता के मायाजाल में ही फंसा कर रखता है, वहीं उच्च का ग्रह जातक को भौतिकता से ऊपर उठाकर आत्म-उत्थान करवाने में सहायक होता है। इसप्रकार नीच के ग्रह जातक को भौतिक संसाधनों की प्राप्ति में सहायक होते हैं, इसलिए नीच के गुरु और नीच के शुक्र धन तथा भौतिक लाभ के लिए अच्छे माने जाते हैं, लेकिन यदि ये उच्च के हों तो जातक को आत्म-उत्थान व आध्यात्मिकता की राह पर ले जाने में सक्षम होते हैं।
पत्रिका में उच्च नीच के ग्रहों का फलादेश करने के लिए अनेक नियम हैं, जिनमें से कुछ विशेष नियमों का उल्लेख इस लेख में किया गया है। यदि कोई ग्रह लग्न पत्रिका में नीच का हो लेकिन नवांश में स्वराशि अथवा उच्च का हो जाए तो उसके नीचता में कमी आ जाती है या उसका नीच भंग होने की स्थिति बन जाती है। यदि कुंडली में कोई ग्रह उच्च का हो और नवांश में वही ग्रह नीच का स्थित हो तो उस ग्रह की महादशा/अंतर्दशा में प्रारम्भ में उस ग्रह के कुछ अच्छे परिणाम प्राप्त होंगे लेकिन समय के साथ उसके खराब परिणाम प्राप्त होंगे। इसके विपरीत यदि कोई ग्रह लग्न पत्रिका में नीच का हो और नवांश में उच्च का स्थित हो तो उसकी महादशा/अंतर्दशा में प्रारम्भ में कुछ अशुभ परिणाम ही प्राप्त होते हैं लेकिन समय के साथ उस ग्रह के शुभ परिणामों की प्राप्ति होती है, क्योंकि इस स्थिति में उस ग्रह का नीचभंग हो जाता है। अतः जन्म कुंडली में जो ग्रह उच्च या नीच का हो, उसे नवांश में अवश्य देखना चाहिए ताकि ग्रहों के परिणामों की सही व्याख्या की जा सके।
यदि कोई ग्रह शत्रु राशि में नीच का वर्गोत्तम हो तो यह अच्छे परिणाम नहीं देता है। इसके विपरीत यदि वह मित्र राशि में उच्च का वर्गोत्तम हो तो अत्यधिक अच्छे परिणाम देता है। महर्षि पाराशर के अनुसार नीच के ग्रह की लग्न पर सप्तम दृष्टि एक राजयोग की भांति प्रभावी होती है, क्योंकि ऐसी स्थिति में वह नीच का ग्रह लग्न में स्थित अपनी उच्च राशि को देखता है। इस स्थिति में जातक स्वयं को ऊँचा उठाने का सदैव प्रयास करता है। इसके विपरीत यदि कोई उच्च का ग्रह लग्न पर दृष्टि डालता है तो इस स्थिति में वह अपनी नीच राशि को ही देखता है, जो कि अच्छा नहीं माना जाता। ऐसी स्थिति बनने पर जातक बार-बार विचलित होता है तथा अपनी पहचान बनाने में असमर्थ रहता हैं। इसप्रकार यह आवश्यक नहीं है कि उच्च के ग्रह सदैव अच्छा फल देंगे या नीच के ग्रह सदैव बुरे परिणाम ही देंगे। उदाहरण के लिए सूर्य आत्मा, पिता, आत्मविश्वास, सरकार, रोग प्रतिरोधक क्षमता, नेतृत्व, प्रसिद्धि, सामाजिक छवि या हैसियत इत्यादि का प्रतिनिधित्व करता है, अतः उच्च का सूर्य जातक को सूर्य से संबंधित क्षमताएँ अवश्य प्रदान करता है, लेकिन साथ ही वह जातक को अहंकारी, क्रोधी, महत्वाकांक्षी, अति आत्मविश्वासी, प्रतियोगी स्वभाव वाला व सदैव जीतने की लालसा रखने वाला व्यक्ति भी बना सकता है, जिसके कारण जातक को जीवन में कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ सकता है। एक अन्य उदाहरण के अंतर्गत यदि किसी जातक की पत्रिका में उच्च का बृहस्पति हो तो, बृहस्पति का बल काफी बढ़ जाता है और जातक को उसके नैसर्गिक कार्यकत्वों की प्राप्ति भी होती है, लेकिन इसके साथ ही जातक को अपने ज्ञान का अहंकार भी हो सकता है। इसप्रकार उच्च के ग्रह भी कभी-कभी जातक के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं। यही कारण है कि कभी-कभी पत्रिका में नीच के ग्रहों की उपस्थिति में भी जातक को अच्छे परिणामों की प्राप्ति होती है, क्योंकि इस स्थिति में जातक अहंकारविहीन होता है। उच्च और नीच के ग्रहों के परिणाम उनकी स्थिति पर निर्भर करते हैं।
यदि कोई ग्रह लग्न की डिग्री पर हो तथा उच्च का भी हो तो वह अत्यधिक प्रभावशाली होता है। यदि उच्च का ग्रह वक्री हो तो उसकी उच्चता में कमी आ जाती है, उसीप्रकार यदि नीच का ग्रह वक्री हो तो उसकी नीचता में कमी आ जाती है। यदि पत्रिका में कोई उच्च का ग्रह स्थित हो और वह लग्नेश का मित्र हो तथा शुभ स्थिति में भी हो तो वह अत्यधिक शुभ परिणाम प्रदान करता है, इसके विपरीत यदि पत्रिका में कोई उच्च का ग्रह स्थित हो लेकिन वह लग्नेश का शत्रु हो तो वह अशुभ परिणाम देता है।
उच्च और नीच के ग्रहों का फल समझने के लिए भगवान श्रीराम की कुंडली पर विचार किया जा सकता है। कर्क लग्न की पत्रिका में षष्ठेश बृहस्पतिदेव कर्क लग्न में अपनी उच्च राशि में विराजमान हैं। षष्ठम भाव रोग-ऋण-रिपु का होता है। बृहस्पति ग्रह ब्राह्मण वर्ण के हैं तथा यह ज्ञान के दाता भी हैं। अतः भगवान श्रीराम के शत्रु रावण, अत्यधिक प्रभावशाली व ज्ञानी ब्राह्मण थे। इसीप्रकार उनके चतुर्थ भाव में अष्टमेश शनि अपनी उच्च राशि तुला में स्थित है। चतुर्थ भाव राजसिंहासन का होता है, इसलिए श्रीराम जी को राज्याभिषेक होने से पूर्व अचानक ही वनवास प्राप्त हुआ, अर्थात् राज्याभिषेक की राह में बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ा। कुंडली का दशमेश मंगल सप्तम भाव में अर्थात् केंद्र में अपनी उच्च राशि मकर में स्थित है जिसने भगवान श्रीराम जी को उच्च कोटि के कर्म करने के लिए प्रेरित किया। इसके अतिरिक्त इस पत्रिका में नवमेश गुरु भी लग्न अर्थात् केंद्र में स्थित है। नवमेश व दशमेश दोनों अपनी-अपनी उच्च राशियों में स्थित होकर एक-दूसरे पर दृष्टि भी डाल रहे हैं, जिसके कारण पत्रिका में बहुत प्रभावशाली धर्मकर्माधिपति राजयोग भी बन रहा है, जिसके अंतर्गत भगवान श्रीराम जी ने समाज के उत्थान के लिए तथा धर्म स्थापना के लिए बड़े-बड़े कार्य किए।
ग्रह जिस राशि में उच्च का होता है, यदि वह उस राशि स्वामी के साथ पत्रिका में कहीं भी स्थित हो तो वह उच्च राशि के समान ही परिणाम देता है। उदाहरण के लिए शुक्र मीन राशि में उच्च का होता है, अतः यदि पत्रिका में शुक्र मीन राशि में स्थित न हो लेकिन वह मीन राशि के स्वामी गुरु के साथ युति में हो तो वह उच्च राशि में स्थित होने जैसा ही परिणाम देता है। दूसरे उदाहरण के अंतर्गत शनि शुक्र की राशि तुला में उच्च का होता है। अतः यदि शनि पत्रिका में तुला राशि में स्थित न हो लेकिन वह शुक्र के साथ युति में हो तो वह उच्च राशि में स्थित होने जैसा परिणाम ही देता है। अतः यदि सूर्य और मंगल की युति हो तो जातक को अधिकार की प्राप्ति होती है। चंद्र और शुक्र की युति हो तो जातक को मानसिक शांति व शक्ति, मंगल व शनि की युति हो तो जातक को जमीन, शुक्र व गुरु के की युति हो तो व्यक्ति को धन तथा समृद्धि की प्राप्ति होती है।
यदि कोई ग्रह अपनी उच्च राशि में हो और उसके साथ उस ग्रह की युति हो जो उस राशि में नीच का होता है तो उच्च के ग्रह की उच्चता में कमी आ जाती है, साथ ही नीच के ग्रह की नीचता में भी कमी आ जाती है। उदाहरण के लिए यदि सूर्य अपनी उच्च राशि, मेष राशि में हो और उसके साथ शनि की युति हो जहाँ वह नीच का होता है, तो शनि की नीचता में कमी आ जाएगी, साथ ही सूर्य की उच्चता में भी कमी आ जाएगी, अर्थात् सूर्य का उच्चभंग और शनि का नीचभंग हो जाएगा। अर्थात् शनि के प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि और सूर्य के प्रभाव क्षेत्र में कमी आएगी।
तीसरे, छटवें या आठवें या ग्यारहवें भाव के स्वामी नीच के हो अथवा इन भावों में नीच के ग्रह बैठे हो तो वह एक राजयोग की भांति ही कार्य करता है। उसीप्रकार केंद्र-त्रिकोण भावों के स्वामी उच्च के हों तो यह भी राजयोग की भांति परिणाम देते हैं। यदि त्रिषडाय तथा अष्टम भावों में नीच ग्रह का नीचभंग भी हो रहा हो, तब भी वह राजयोग बरकरार रहता है। अर्थात् त्रिषडाय तथा अष्टम भावों में नीच के ग्रह सदैव अच्छे परिणाम देते हैं। यदि उनका नीचभंग हो रहा हो तब यह सोने पर सुहागा वाली स्थिति बन जाती है। त्रिषडाय तथा अष्टम भावों में नीच के ग्रह यदि वक्री भी हों तब भी वे राजयोग की भांति अच्छे परिणाम देते हैं। पत्रिका का तीसरा भाव काम त्रिकोण का पहला भाव है, यह भाव त्रिषडाय का भी पहला भाव है। यह भाव कामनाओं और वासनाओं को जगाने वाला भाव है। इस भाव में यदि नीच का ग्रह स्थित हो तो तो वह कामनाओं और वासनाओं में कमी करेगा, साथ ही वह नवम भाव पर दृष्टि डालकर जातक के भाग्य में वृद्धि करने का कार्य भी करेगा क्योंकि इस स्थिति में नवम भाव में उस नीच के ग्रह की उच्च राशि स्थित होगी। उदाहरण के लिए वृश्चिक लग्न की पत्रिका में तीसरे भाव, मकर राशि में नीच का गुरु स्थित हो तो वह उच्च की दृष्टि नवम भाव, कर्क राशि में डालेगा जो कि उसके भाग्य को बढ़ाएगा और तृतीय भाव के परिणामों में कमी करेगा। तृतीय भाव परिश्रम का भी भाव होता है। अतः इस भाव में स्थित नीच का ग्रह जातक के परिश्रम में कमी करके उसके भाग्य को बढ़ाने का काम करता है। इस प्रकार यह एक राजयोग का निर्माण करता है। छटवाँ भाव त्रिषडाय का दूसरा भाव है। यह रोग, ॠण तथा षड् रिपुओं का भाव है।
षड् रिपुओं के अंतर्गत काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य आते हैं। यदि इस भाव में कोई नीच का ग्रह स्थित हो जाए तो वह रोग, ऋण व षड् रिपुओं में कमी तो करेगा ही साथ ही अपनी उच्च की दृष्टि बारहवें भाव पर भी डालेगा, जो कि मोक्ष का भाव है और मोक्ष प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होना मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य होता है। संभवतः इसी कारणवश छटवें भाव में नीच के ग्रह की स्थिति राजयोग मानी जाती है। छटवें भाव में उच्च का ग्रह स्थित हो तो वह जातक को प्रतियोगिताओं में तथा नौकरी में सफलता दिलवा सकता है लेकिन साथ ही जातक को रोग, ऋण, रिपु भी दे सकता है। यदि आठवें भाव में नीच का ग्रह हो तो वह उच्च की दृष्टि से द्वितीय भाव को देखता है जो जातक के धन संचय में वृद्धि करने का कार्य करता है तथा अष्टम भाव से संबंधित परेशानियों को भी कम करने में सहायक होता है। इसके विपरीत यदि अष्टम भाव में उच्च का ग्रह हो तो वह नीच की दृष्टि से द्वितीय भाव को देखता है जो जातक के धन में कमी करता है, हांलाकि अष्टम भाव में उच्च की राशि हो तो वह जातक के अंतर्ज्ञान को बढ़ाकर उसे एक अच्छा ज्योतिषशास्त्री बनाता है, लेकिन धन के क्षेत्र में परेशानियाँ देता है। ग्यारहवाँ भाव काम त्रिकोण का तथा त्रिषडाय का भी सर्वाधिक प्रभावशाली भाव है। यह भाव कामनाओं की पूर्ति करने वाला भाव है। लेकिन एक कामना की पूर्ति होते ही दूसरी कामना सर उठाने लगती है, क्योंकि कामनाएँ अनंत होती हैं इसलिए ग्यारहवें भाव को हमारे ऋषि मुनियों ने अच्छा नहीं माना है। ग्यारहवें भाव में नीच का ग्रह स्थित होने पर वह अपनी उच्च दृष्टि से पंचम भाव को देखता है, जिससे पंचम भाव को बल प्राप्त होता है। पंचम भाव बुद्धि, विवेक, संतान, शिक्षा तथा पूर्व पुण्यों इत्यादि का भाव है इस प्रकार ग्यारहवें भाव में भी नीच का ग्रह अच्छा माना जाता है। तीसरे, छटवें, आठवें या ग्यारहवें भाव के स्वामी यदि नीच के होकर केंद्र त्रिकोण में स्थित हो या तीसरे, छटवें, आठवें या ग्यारहवें भाव में ही स्थित हो तो अच्छे परिणामों की प्राप्ति होती है।
यदि पत्रिका में कोई ग्रह नीच का होता है तो इसके कारण 1) वे भाव प्रभावित हो सकते हैं जिनका वह स्वामी होता है, 2) वह भाव प्रभावित हो सकता है जिसमें वह नीच का ग्रह स्थित है 3) ग्रह के नैसर्गिक कार्यकत्व प्रभावित हो सकते हैं। लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि ग्रह का नीच भंग किस प्रकार हो रहा है। पत्रिका में ग्रह का नीचभंग कई प्रकार से हो सकता है। नीचभंग के एक नियम के अनुसार यदि ग्रह किसी नीच राशि में स्थित हो और उसका उच्चनाथ (अर्थात् वह ग्रह जो उसके उच्च राशि का स्वामी हो), बली होकर चंद्रमा से केंद्र में हो अथवा उस नीच राशि को दृष्ट कर रहा हो या नीच के ग्रह के साथ युति कर रहा हो तो ग्रह का नीचभंग हो जाता है। इसके अलावा यदि नीच का ग्रह किसी उच्च के ग्रह के साथ युति करता हो तब भी उसका नीच भंग हो जाता है। इस नीचभंग की प्रकिया में उच्चनाथ या उच्च का ग्रह, नीच ग्रह की नीचता को भंग करता है, अतः नीच का ग्रह ग्रह जिन भावों का स्वामी होता है केवल उन भावों के अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं अथवा नीच ग्रह के स्वामित्व वाले भावों की रक्षा हो जाती है। सूर्य जहाँ उच्च का होता है, शनि वहाँ नीच का होता है और शनि जहाँ उच्च का होता है सूर्य वहाँ नीच का होता है। यदि नीच के सूर्य के साथ उच्च का शनि विराजमान हो तो सूर्य का नीचभंग या नीच के शनि के साथ उच्च का सूर्य स्थित हो तो शनि का नीचभंग माना जाएगा। लेकिन अक्सर यह देखा गया है कि सूर्य और शनि की युति अच्छे परिणाम नहीं देती क्योंकि सूर्य और शनि आपस में शत्रु हैं। यदि तुला राशि में सूर्य व शनि की युति होती है और सूर्य का नीचभंग हो जाता है तब इस स्थिति में, उच्च का शनि तुला राशि के परिणामों की तो रक्षा करता है क्योंकि वह उसके मित्र की राशि है लेकिन वह सिंह राशि के अच्छे परिणामों की रक्षा नहीं करता क्योंकि सूर्य से उसकी शत्रुता है, भले ही सूर्य का नीचभंग ही क्यों न हो रहा हो। यही काम सूर्य मेष राशि में शनि के साथ युति की स्थिति में करता है। अर्थात् मेष राशि में स्थित सूर्य, शनि का नीचभंग तो करता है परंतु शनि के स्वामित्व वाली राशियों पर अच्छे परिणाम नहीं डालता क्योंकि शनि से उसकी शत्रुता है, लेकिन वह मेष राशि के अच्छे परिणामों की रक्षा अवश्य करता है क्योंकि वह उसके मित्र की राशि है।
नीचभंग के एक अन्य नियम के अनुसार यदि ग्रह जिस नीच राशि में स्थित हो और उस नीच राशि का स्वामी बली होकर चंद्रमा से केंद्र में हो या बली होकर उस राशि में ही स्थित हो या उस राशि को दृष्ट कर रहा हो जिसमें नीच का ग्रह स्थित है, तब भी ग्रह का नीचभंग हो जाता है। उदाहरण के लिए गुरु मकर राशि में नीच के होते हैं। यदि पत्रिका में गुरु मकर राशि में स्थित हो लेकिन मकर राशि का स्वामी शनि बली होकर गुरु को दृष्ट करे तो गुरु का नीचभंग हो जाता है। इस स्थिति में जातक को प्रारंभ में गुरु से संबंधित खराब परिणाम प्राप्त होने की संभावना हो सकती है, लेकिन समय के साथ नीच भंग होने के कारण उसे अच्छे परिणामों की प्राप्ति होती है। इन स्थितियों में ग्रह जिस भाव में नीच का हो केवल उस भाव के अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं, क्योंकि उस भाव का स्वामी स्वयं उस भाव की रक्षा करता है।
यदि नीच का ग्रह उस भाव में स्थित हो जहाँ पर उसे दिग्बल प्राप्त है तो उसका नीचभंग हो जाता है। इस स्थिति में ग्रह के नैसर्गिक कार्यकत्वों के अच्छे परिणामों की रक्षा हो जाती है। उपरोक्त बताई हुई स्थितियां ग्रह के नीचभंग की स्थितियाँ हैं। लेकिन यदि ग्रह का नीचभंग इस प्रकार हो रहा हो कि वह जिन भावों का स्वामी हो उन भावों के अच्छे परिणामों की रक्षा होती हो साथ ही वह जिस भाव में स्थित हो उसके भी अच्छे परिणामों की रक्षा होती हो तो इसे नीच भंग "राजयोग" नाम दिया जाता है, और यदि साथ ही उसके नैसर्गिक कार्यकत्वों की भी रक्षा हो रही हो तो सोने पर सुहागा वाली स्थिति बनती है। नीच का ग्रह यदि वक्री हो तो वह भी नीचभंग ही कहलाता है क्योंकि वह वक्री होने पर ग्रह में चेष्टा बल का समावेश हो जाता है, जो उसे नीच स्थिति से उबरने में सहायता करता है। यदि लग्नेश नीच का होकर वक्री हो तो वह नीचभंग राजयोग ही बन जाता है, क्योंकि इस स्थिति में लग्नेश का चेष्टा बल नीचता को स्वीकार नहीं करता और संघर्ष करके जातक को सफलता प्राप्त करवाने में सहायक होता है। दक्षिण भारत में यह माना जाता है कि उच्च ग्रह पर यदि शनि की दृष्टि हो तो वह उसके परिणामों में कमी करती है, लेकिन नीच ग्रह पर शनि की दृष्टि उसका नीचभंग करती है। दो नीच के ग्रह यदि एक दूसरे के सम-सप्तक स्थित होकर एक दूसरे को दृष्ट करते हों तो दोनों ग्रहों का नीच भंग हो जाता है। इसीप्रकार यदि दो उच्च के ग्रह सम-सप्तक स्थित होकर एक दूसरे को दृष्ट करते हों तो उनकी उच्चता में क्षीणता आ जाती है तथा उन दोनों ग्रहों का उच्चभंग हो जाता है।
पत्रिका में यदि किसी ग्रह का नीचभंग हो जाता है तो उस ग्रह की महादशा/अंतर्दशा में प्रारम्भ में जातक को कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन समय बीतने के साथ जातक को उस ग्रह के अच्छे परिणामों की प्राप्ति होती है।
यदि जन्म पत्रिका में एक से अधिक ग्रह उच्च के हों और कोई भी नीच का ग्रह न हो तो जीवन में कठिनाइयाँ आती हैं। लेकिन यदि पत्रिका में एक से अधिक उच्च के ग्रहों के साथ कम से कम एक नीच का ग्रह स्थित हो तब यह स्थिति नहीं बनती, क्योंकि उच्च के ग्रह जातक को अतीव आत्मविश्वास, आत्ममुग्धता और अहंकार की भावना से भर देते हैं और जातक स्वयं की कमियों को सुधारने की ओर ध्यान नहीं ही देता। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानने लगता है, इस कारणवश वह गलतियाँ करता है और जीवन में कठिनाइयों का सामना भी करता है। वहीं नीच के ग्रह जातक में अहंकार या अभिमान का नाश करते हैं। इसी क्रम में यदि कम से कम एक ग्रह नीच का हो तो पत्रिका में संतुलन आ जाता है और जातक की कठिनाइयाँ कम हो जाती हैं।
इसप्रकार उच्च और नीच के ग्रह अपनी स्थितियों के अनुसार अलग-अलग परिणाम देते हैं।पत्रिका में उच्च और नीच के ग्रहों का फलादेश करने से पूर्व पत्रिका का बारीकी से विश्लेषण करना आवश्यक है।
- डॉ. सुकृति घोष,
प्राध्यापक, भौतिक शास्त्र,शा. के. आर. जी. कॉलेज
ग्वालियर, मध्यप्रदेश


COMMENTS