त्रिलोचन शास्त्री के काव्य में जनवादी चेतना त्रिलोचन शास्त्री हिंदी साहित्य की प्रगतिशील धारा के वे स्तंभ हैं जिन्होंने अपनी कविता के माध्यम से जनता
त्रिलोचन शास्त्री के काव्य में जनवादी चेतना
त्रिलोचन शास्त्री हिंदी साहित्य की प्रगतिशील धारा के वे स्तंभ हैं जिन्होंने अपनी कविता के माध्यम से जनता के दुख-दर्द को न केवल उकेरा, बल्कि उसे एक क्रांतिकारी जागृति का स्वर भी प्रदान किया।त्रिलोचन शास्त्री की कविता आधुनिक हिंदी काव्य की प्रगतिशील त्रयी का अभिन्न अंग है, जिसमें नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल उनके साथी स्तंभ हैं। वे घटनाओं के कवि नहीं, मूल्यों के कवि थे, जिनकी रचनाओं में यथार्थवाद का गहरा प्रभाव दिखता है। उनकी भाषा लोक-आधारित है, अवधी और ब्रज की सरलता से ओतप्रोत, जिसमें संस्कृत की गरिमा और प्राचीन परंपराओं की सुगंध भी घुली हुई है।
तुलसीदास और निराला जैसे महाकवियों से प्रेरित होकर उन्होंने हिंदी सॉनेट को भारतीय परिवेश में ढाला, लगभग 550 सॉनेट रचकर इसे लोक-रंग से सराबोर कर दिया। उनके 17 कविता संग्रहों में 'धरती', 'गुलाब और बुलबुल', 'उस जनपद का कवि हूं' और 'ताप के ताए हुए दिन' जैसे संग्रह विशेष रूप से चर्चित हैं। लेकिन इन सबके केंद्र में उनकी जनवादी चेतना है, जो मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होते हुए भी क्लिशे या जार्गन से परे एक गहन, जीवन-संबद्ध विश्वास की अभिव्यक्ति है।यह चेतना उनकी कविता को मात्र साहित्यिक सौंदर्य नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का हथियार बनाती है।
कवि के काव्य में परम्परा एवं द्वन्द्व दोनों का मिश्रण निहित है। उनके काव्य के मूल में लोकवृत्ति निहित। समाज के उतार-चढ़ाव उसमें स्पष्ट रूप से विद्यमान हैं। इनकी कविता श्रमजीवियों, गरीबों एवं अभावग्रस्तों की कविता है। इनके गीतों में सड़क पर रात व्यतीत करने वाले की व्यथा है, जिसके लिए जीवन जीना ही सबसे बड़ा संघर्ष है। इसका एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
चूल्हीं तावा चढ़ा करइ जउ रोज
तबइ केउ करइ परम तत्त्व कइ खोज ।
अगिला भुइँ थाम्हइ तब पछिला गोड़
सम्हरि बढ़ावइ गति कइ इहइ निचोड़ ।
कवि स्पष्ट कहता है कि जंब व्यक्ति की तीन मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी होंगी तभी वह अन्य सामाजिक कार्यों पर ध्यान देगा। उसे कला क्या है? सोचने का अवसर मिलेगा अन्यथा काव्य की समाज में क्या उपादेयता है उसे क्या मालूम। कवि का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है,
नंगा है अन्जान है, कला नहीं जानता ।
उन्होंने जन-जीवन की अनुभूति को अपने काव्य में यथातथ्य अंकित किया है। गाँव की त्रासदी को गाँव में रहकर ही जाना जा सकता है। कवि स्वयं अवध अंचल में रहने वाले हैं। अतः वहाँ के परिवेश से वे अच्छी तरह परिचित हैं। उन्होंने उसका सजीव चित्रण किया है। गाँव की अशिक्षित जनता शिक्षा के लिए दर-बदर ठोकर खा रही है। कवि को अपनी शिक्षा बीच में ही छोड़नी पड़ी थी। गाँव में स्त्री-शिक्षा की स्थिति भी दयनीय है। उनकी कविता में गरीबी, अंधविश्वास तथा अन्य सामाजिक कुरीतियों का वर्णन किया गया है। उनका काव्य पाठक को मूलभूत आवश्यकताओं से जोड़ता है। कवि ने सर्वहारा वर्ग की कर्मठता और पौरुष की पहचान करायी है।
त्रिलोचन के काव्य में संघर्ष और सौन्दर्य का सुन्दर समन्वय है। वे तपती लू से घबराते नहीं। वे जीवन की उलझनों और समस्याओं के मध्य प्रेम और भावुकता के परिपोषक हैं। कवि की कविता में दार्शनिकता का भी पुट विद्यमान है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
उठे चले बइठे ओलरे हर दाइँ,
तोहरिन सुधि हमरे आपन कुछु नाई ।
भूख उपवास बेरोजगारी पर जैसी अनुभूतिमयी कविता त्रिलोचन जी ने की है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। तुलसी, निराला की तरह कवि ने आत्मकथ्य की शैली अपनायी है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है -
वही त्रिलोचन है, जिसके तन पर गन्दे,
कपड़े हैं, कपड़े भी फटे लदे हैं ।
भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिसको समझे था है यह तो फौलादी..... ।
त्रिलोचन के अनुसार 'दीनता पेट से लिपटी है, मन तो अदीन है।' कवि उस जनपद का कवि है जिसकी जनता भूखी, नंगी है। कवि के जीवन में पुरस्कार है, उल्लास है, सम्मान है, फिर भी यह भावना उसे तड़पाती है कि वह उस जनपद का कवि है, जहाँ बेहाली-तंगहाली छायी हुई है।
त्रिलोचन की कविता सामान्य जन-जीवन से जुड़ी हुई कविता है। जब व्यक्ति सोचता है कि मैं ही सबसे दुखी हूँ तो दुःख और भी बढ़ जाता है, किन्तु जब व्यक्ति यह सोच लेता है कि उससे भी ज्यादा दुःख लोगों को मिल रहा है, तो यह सोच ही अपना दुःख सहज एव सरल कर देती हैं। कवि अपनी रचनाशीलता से स्वयं को व्यापक और सहज बना लेता है। उसकी ऐसी समझ से उसका सारा दुःख गल जाता है। कवि इसे अच्छी तरह जानता है-
अपनइ आपन ताकेँ मन अफनाइ ।
आनउँ कइ देखे ढारस होइ जाइ ।।
कवि की वाणी बरखा, जाड़ा और घाम से अभिषिक्त है। कवि की प्रत्येक कृति के पीछे शताब्दियों का दुःख है। त्रिलोचन का जीवन भी तमाम घातो- आघातों से गुजरा है। कवि स्वयं कहता है-
अगर न पीड़ा होती तो भी क्या मैं गाता ।
यदि गाता तो क्या उसमें ऐसा स्वर आता । ।
जिस प्रकार अज्ञेय जी कहते हैं- दुःख सबको माँजता है। यह बात कवि पर पूरी तरह लागू होती है। कवि को दूसरे का दुःख भी अपना दुःख लगने लगता है। 'ताप के ताये हुए दिन' कविता में कवि ने इसको दर्शाया है-
औरों का दुःख दर्द वह नहीं सह पाता है,
यथाशक्ति जितना बनता है, कर जाता है।
स्टालिन के अनुसार- 'कवि मानव मन का शिल्पी होता है।' कवि उसी समाज से निकलकर आया है, जिसमें जनता रहती है। अतः कवि उस समाज को अच्छी तरह से जानता है जहाँ से वह निकलकर आया है। समाज का यथार्थ व्यक्ति से ही सामने आ सकता है। जनता की सही तस्वीर काव्य के माध्यम से समाज में लाना ही साहित्यकार का सबसे बड़ा योगदान है और इस तरह वह व्यक्ति के संघर्ष, उनकी माँग, उनकी आवश्यकताओं को भी समाज सामने ले आता है। कवि का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
भयवा अब वस सोचे
आपन नुकसान बा
यस करा कि लड़िकै सुतारे रहइँ
अवउ जठ विचार करइँ
तउ कहईं कि अगिले हमरे सबकाँ
खाले से ऊँचे पहुँचाइ दिहेन ।
कवि ऐसे व्यक्तियों की कद्र नहीं करता, जो सिर्फ दिखावे की कलम से अनुभूति की स्याही उड़ेलते हैं। कवि ऐसी वृत्ति को चाटुकारिता की वृत्ति मानते हुए कहता है-
दुख गावइ जे कंठ कँपाइ कँपाइ ।
लोक रिझाई करै एही से खाइ ।।
त्रिलोचन की कविता जन सामान्य की कविता है। अवध अंचल की निम्न मध्य वर्गीय स्थिति को कवि ने अपनी लेखनी से शब्दायित किया है। कवि समाज में फैली कुरीतियों को एक दीवार के समान बताता है, जिन्हें तोड़ना अत्यन्त आवश्यक हो गया है अन्यथा उसके भीतर फँसा हुआ व्यक्ति आक्रोशित होकर समाज को और दलदल की ओर ले जायेगा । अस्तु कह सकते हैं कि त्रिलोचन जन-मन की स्थिति परिस्थिति को ठीक से जलते-समझते हैं। परिणामतः उनकी कविताई जन की पीड़ा को मुखरित करने में समर्थ हो सकी है।


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