पानी की कमी से स्कूल जाना बाधित

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मटके की भार से छूटती शिक्षा की डोर वैसे तो जब भी राजस्थान का नाम आता है, सबसे पहले सभी के दिमाग में रेगिस्तान और योद्धाओं की भूमि वाली छवि उभरती है.

मटके की भार से छूटती शिक्षा की डोर


वैसे तो जब भी राजस्थान का नाम आता है, सबसे पहले सभी के दिमाग में रेगिस्तान और योद्धाओं की भूमि वाली छवि उभरती है. जिसे देखने के लिए दुनिया भर से पर्यटक आते रहते हैं. यह सच है कि राजस्थान की पहचान इसी से है. लेकिन इस खूबसूरती के पीछे यहां के स्थानीय विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की चुनौतियां अक्सर पीछे छूट जाती हैं. यहां के कई ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी पीने के पानी के लिए संघर्ष करनी पड़ती है. ज़ाहिर है यह संघर्ष सबसे अधिक महिलाओं और किशोरियों को ही करनी पड़ती है. बीकानेर के लूणकरणसर ब्लॉक स्थित नकोदेसर गांव की महिलाएं और किशोरियां भी बरसों से इसी समस्या से जूझ रही हैं.

मटके की भार से छूटती शिक्षा की डोर
यहां पानी की कमी सिर्फ एक शब्द नहीं है बल्कि यह उन लड़कियों और महिलाओं की जिंदगी की चोट है जो हर सुबह, हर अवसर, हर सपना खोने की कीमत चुका रही हैं। मटका, ऊँची तख्ती, गगरी, बाल्टी, ये उनके दैनिक साथी हैं। मीठे पानी के लिए मटका सिर पर उठाकर कड़ी से कड़ी धुप में भी रेतों पर चलना उनके जीवन का हिस्सा बन चुका है। जिसकी वजह से उनका सर्वांगीण विकास प्रभावित हो रहा है. लेकिन इसकी चिंता न तो समाज को है और न ही विकास की रूपरेखा तैयार करने वाली संस्थाओं को है.

गांव की एक किशोरी, रेखा (नाम परिवर्तित), कहती है “घर में पीने के पानी की व्यवस्था के लिए हमें सुबह छह बजे से सक्रिय होना पड़ता है। मटका भरने दूर कुएँ तक जाना पड़ता है, फिर वापस स्कूल की ओर, इसकी वजह से अक्सर मैं समय पर स्कूल नहीं पहुँच पाती हूं। होमवर्क भी अधूरा रह जाता है. शिक्षक पूछते हैं, जवाब नहीं आता।” कुछ दिन ऐसे भी होते हैं जब दिन भर पानी नहीं मिल पाता, इसलिए स्कूल में बोतल खाली रहती है, प्यास लगती है, ध्यान भटकता है, कमजोरी होती है।

वहीं नाम नहीं बताने की शर्त पर एक अन्य किशोरी कहती है कि माहवारी के दिनों में अक्सर स्कूल नहीं जाती हूँ क्योंकि स्कूल में भी पानी की समस्या रहती है. जबकि पांचवीं में पढ़ने वाली ममता कहती है कि जिस दिन घर में पानी आने में देर हो जाती है तो बिना पानी के दिन भर रहना पड़ता है या फिर हमें स्कूल के नल में आने वाला खारा पानी पीकर काम चलाना पड़ता है. ममता कहती है कि मेरा भाई गांव के ही एक प्राइवेट स्कूल में पढता है, जहां उसे पीने के पानी की कोई समस्या नहीं होती है. ममता का यह जवाब एक ओर जहां सरकारी और निजी विद्यालयों में सुविधाओं की कमी को दर्शाता है, वहीं लड़का और लड़की के बीच भेदभाव और इस सिलसिले में समाज की संकुचित सोच को भी दर्शाता है.

इस भेदभाव का सामना केवल किशोरियों को ही नहीं, बल्कि महिलाएं भी रोज़ करती हैं। तारा देवी कहती हैं कि “हम सुबह मटका भरना नहीं भूलती, शाम को फिर से निकलना होता है. अगर पानी की व्यवस्था नहीं करेंगे तो खाना कैसे पकेगा? मेहमान और बच्चों को क्या पिलायेंगे? ऐसे में पेट में दर्द, पीठ में झुंझलाहट, पैरों में कमजोरी ये सब आम है क्योंकि झुककर मटका भरना और सिर पर ढोना आसान काम नहीं। बच्चे और घर संभालना, और लौटकर चूल्हे का इंतज़ाम भी करना होता है. इन सबके बीच पानी की कमी और उसकी व्यवस्था के लिए दिन रात दौड़ धूप उनके स्वास्थ्य को लगातार गिराती है।

राजस्थान में हुए एक अध्ययन के अनुसार ग्रामीण घरों में पानी इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी लगभग 71 प्रतिशत महिलाओं और लड़कियों की होती है। यह काम साल भर चलता है. कुल मिलाकर यह काम प्रति वर्ष सौ-दो सौ घंटों का समय ले लेता है, जो पढ़ाई-आराम में लग सकता है। नकोदेसर गांव में भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। वहां की किशोरियों का कहना है कि मटका पाँच-छह किलो का होता है, कभी-कभी उससे ज़्यादा, और दोनों हाथों से पकड़कर सिर से नीचे या कंधे पर बाँध कर उठाना पड़ता है। इससे सिर्फ शरीर ही नहीं, बल्कि मन की थकावट भी कम नहीं होती है। अगर पानी पास होता, नल चलता, हैंडपंप नियमित काम करता, तो लड़कियों को स्कूल से लौटकर बाल्टी न भरनी पड़ती, होमवर्क रात को करना आसान होता, नींद पूरी होती। 

स्वास्थ्य बेहतर होता, आत्म-सम्मान बढ़ता, पढ़ाई-लिखाई में मन लगता, जीने की उम्मीदें उजली होतीं। नकोदेसर की इस कहानी को सिर्फ शिकायत न समझा जाए, बल्कि एक ऐसे परिवर्तन की पुकार माना जाए जहाँ पानी केवल मटका तक सीमित न हो बल्कि एक सुविधा के रूप में हो, जहाँ लड़कियों को बोझ न ढोना पड़े, बल्कि वो कलम उठायें, जहां शारीरिक थकावट के बजाय कविता और गणित के प्रश्न हल करने पर ध्यान केंद्रित हो. लड़कियों की मुस्कान तभी वापस आयेगी, जब केवल पानी की कमी से उनका स्कूल जाना बाधित न हो।

देश के अन्य राज्यों की तरह राजस्थान में भी जल जीवन मिशन के तहत शत प्रतिशत घरों तक पीने का पानी पहुंचाने का लक्ष्य है. इसके लिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों मिलकर काम कर रहे हैं. केंद्र सरकार की इसी वर्ष मार्च में जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार 2019 में जल जीवन मिशन परियोजना शुरू होने से पहले बीकानेर जिला अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में मात्र 18 प्रतिशत परिवारों के पास पीने का नल उपलब्ध था, जो इस योजना के बाद मार्च 2025 तक बढ़कर 56 प्रतिशत से अधिक हो चुका है. यह सरकार का सराहनीय प्रयास है. लेकिन इतने परियोजनाओं व जल जीवन मिशन जैसे महत्वाकांक्षी योजनाओं के बाद भी नकोदेसर जैसे गांव में पानी का संकट पूरी तरह से दूर होता नजर नहीं आ रहा है. जिसका सबसे अधिक प्रभाव किशोरियों की शिक्षा पर पड़ रहा है. जिनके मटके संभाले हाथों से शिक्षा की डोर छूटती जा रही है.(यह लेखिका के निजी विचार हैं)


- हेमलता
लूणकरणसर, राजस्थान

COMMENTS

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  1. बहुत ही बढ़िया -सामाजिक सरोकार को बड़े ही उम्दा ढंग से प्रस्तुत किया गया है

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