हमारे हरि हारिल की लकरी का अर्थ सप्रसंग व्याख्या

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हमारे हरि हारिल की लकरी का अर्थ सप्रसंग व्याख्या हारिल की लकड़ी का लाक्षणिक अर्थ है- एकमात्र सहारा। कृष्ण के प्रति गोपियों की अनन्यता व्यक्त करने के

हमारे हरि हारिल की लकरी का अर्थ सप्रसंग व्याख्या


मारै हरि हारिल की लकरी । 
मन क्रम वचन नंद नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी । 
जागत सोवत, स्वप्न दिवस निसि, कान्ह कान्ह जकरी । 
सुनत जोग लागत हैं ऐसौं ज्यों करुई ककरी । 
सु तौ ब्याधि हमको लै आए, देखी सुनी न करी । 
यह तौ 'सुर' तिनहिं लै सौंपो, जिनके मन चकरी ।।

प्रसंग - गोपियाँ कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ, अनन्य प्रेम करती है। कृष्ण से दूर रहने पर भी उनका मन कृष्ण में ही लगा रहता है।

व्याख्या- गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! श्रीकृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी की उस लकड़ी जैसे हैं, जिसे वह किसी हालत में छोड़ता ही नहीं। कृष्ण हमारे एकमात्र सहारे हैं, उन्हें हम कैसे छोड़ दें ? मन से, वचन से और कर्मों से हमने कृष्ण रूपी इस लकड़ी को पकड़ा हुआ है और अब तो जागते हुए, सोते हुए तथा स्वप्न देखते हुए, हम सदैव ही कृष्ण-कृष्ण की रट लगाये हुए हैं। 

हे उद्धव ! तुम्हारी योग की बातें सुनकर ऐसा लगता है, जैसे मुख में कड़वी ककड़ी चली गयी हो। आप इस योग साधना की ऐसी व्याधि हमारे लिये ले आये हैं, जो आज तक न तो हमने देखी है, न सुनी है और न की है। हे उद्धव यह तो व्याधि है, अतः आप इस योग को उन्हें दीजिए, जिनके मन चकरी की भाँति अस्थिर हों। हमारे मन तो पहले से ही कृष्ण में स्थिर हो चुके हैं, अतः हमें इसकी कोई आवश्यकता नहीं ।
 
विशेष - उपरोक्त पद में निम्नलिखत विशेषताएं हैं -
  1. हारिल की लकड़ी का लाक्षणिक अर्थ है- एकमात्र सहारा। कृष्ण के प्रति गोपियों की अनन्यता व्यक्त करने के लिए इसका प्रयोग यहाँ किया गया है। 
  2. निर्गुणोपासना एवं योगसाधना का खण्डन किया गया है तथा सगुणोपासना एवं भक्ति-भावना का समर्थन है। 
  3. प्रेमी का मन तो अपने प्रिय के ध्यान में एकाग्र हो जाता है, अतः उसे योग की आवश्यकता नहीं है। 
  4. वियोग श्रृंगार की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। 
  5. ब्रजभाषा का प्रयोग है जिसमें लाक्षणिकता विद्यमान है। 
  6. उपमा, उदाहरण, अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग किया गया है।

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