ट्रायल रूम संस्कृति भारतीय संस्कृति ने संसार को राम-सीता जैसे आदर्श युगल दिए। यहाँ विवाह कोई "कॉन्ट्रैक्ट" नहीं बल्कि "संस्कार" होता है। परंतु आधुन
ट्रायल रूम संस्कृति
भारतीय संस्कृति ने संसार को राम-सीता जैसे आदर्श युगल दिए। यहाँ विवाह कोई "कॉन्ट्रैक्ट" नहीं बल्कि "संस्कार" होता है। परंतु आधुनिकता की आंधी में, जब सब कुछ "शॉर्टकट" और "इंस्टेंट" पैकिंग में बिकने लगा "नूडल्स से लेकर ज्ञान तक" तो प्रेम भी कहाँ पीछे रहता?
नतीजा यह निकला कि "विवाह" जैसी लंबी प्रक्रिया को काट-छाँटकर सीधे बाजार में "लिव-इन रिलेशनशिप" नामक रेडीमेड पैकेज में लॉन्च कर दिया गया।
बिना मंत्र, बिना फेरे, बिना रिश्तेदारों का झंझट,बस सीधे शिफ्ट हो जाइए, और फिर देखिए जिंदगी कैसे "रूममेट प्लस" बन जाती है।
आज विज्ञापन का युग है।सबका विज्ञापन किया होता है और विज्ञापनों की भाषा जितनी लच्छेदार और आकर्षक होती है,जिसें उपभोक्ताओं को सुनने और समझने में आनंद आता है। वही सामान अथवा सेवा के ज्यादा बिकने के आसार होते हैं।
अगर कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी अपनी मार्केटिंग के लिए लिव-इन रिलेशनशिप का विज्ञापन बनाएं तो शायद यूँ कहेगी, "अब शादी की टेंशन क्यों? मिलिए हमारे नए प्रोडक्ट से ‘लिव-इन’।
बिना बंधन, बिना फेरे, बिना खर्चा ,सिर्फ प्यार का नेट-पैक रिचार्ज!
रिश्ते की वैधता?
-"चिंता मत कीजिए, सुप्रीम कोर्ट आपके साथ है!"
यह विज्ञापन इसी तरह के होंगे जैसे मानो कोई "डाटा पैक" मिल रहा हो!
-- 30 दिन वैलिडिटी, फिर चाहो तो नया पार्टनर ढूँढ लीजिए।
भारतीय परिवारों का ताना-बाना संयुक्त परिवारों पर टिका है। पहले यहाँ दादी अपनी बहू से पूछती थी,"बेटा, सुबह उठकर तुलसी को जल दिया या नहीं?"
बहू भी अपनी दादी सास को सही-सही जवाब दे दिया करती थी। वह कहती,"दादी मां! मैंने तुलसी को जल चढ़ा दिया।"
लेकिन अब दादी अपने पोते से पूछती है,"बेटा, वो जो लिव-इन वाली बिटिया है, उसका खाना तुमने बनाया या नहीं ?" बेटा कहता है," हां दादी मां,मैंने बना दिया है! और टिफिन पैक भी कर दिया है।"यह सुनकर दादी मां को थोड़ा सा सुकून मिलता है, चलो अब ये दोनों आराम से कुछ दिन तो साथ-साथ रह लेंगे।
अब जब गांव का कोई लड़का किसी लड़की के साथ 'लिव इन रिलेशन' में शहर में रहता है और गांव वालों को इसका पता चल जाता है तो वे लोग आपस में एक दूसरे से इस तरह बातें करते हैं।
रामू - "चौधरी जी! सुना है? कालू का लड़का शादी कर लाया?"
चौधरी जी: "ना जी, वो तो सिटी में लिव-इन में रह रहा है।"
रामू -"अच्छा! ये कौनसी नई डिग्री है जी?"
चौधरी जी कोई जवाब नहीं देते, चुप हो जाते हैं।
गाँव की मानसिकता में यह शब्द ही इस तरह का है,जिसे देखा तो सबने है, पर समझा किसी ने नहीं।
लिव इन रिलेशनशिप एक तरह से"ट्रायल रूम" संस्कृति है। जिस तरह से पश्चिमी सभ्यता का मूलमंत्र है—पहले ट्रायल, फिर फाइनल।कपड़े खरीदो तो ट्रायल रूम में जाकर देखो।जूते लो, तो पहनकर दौड़ो।
इसी तरह रिश्ता भी ट्रायल पर क्यों न हो?
अभी कुछ दिनों पहले एक कथित सोशल एक्टिविस्ट महिला ने कहा था। जब हम सभी चीजें खरीदने से पहले देख कर, ट्रायल करते हैं ,फिर लेते हैं तो फिर शादी जैसा एक लंबा रिश्ता करने से पहले ट्रायल करने में क्या बुराई है? हो सकता है लड़का या लड़की दोनों में से किसी में भी कोई कमी हो, शारीरिक या मानसिक ।
लिव इन रिलेशनशिप इसी का नाम है इसमें में कोई बुराई नहीं।
"अगर दो महीने में 'कंपैटिबिलिटी' बैठ गई तो शादी करेंगे, वरना अगला 'शोरूम' देख लेंगे।"
पश्चिमी सभ्यता का मूल मंत्र 'पहले ट्रायल फिर फाइनल' भारतीय संस्कृति के लिए उतना ही प्रतिकूल है जितना मठ में मैगी बनाना।
भारतीय संस्कृति में विवाह का मतलब है। व्रत, वचन, संस्कार, सामाजिक स्वीकृति।
... और लिव-इन हमें देता है। स्वच्छंदता, सुविधा, और "कोर्ट का हेल्पलाइन नंबर"।
भारतीय समाज में विवाह को सोलह संस्कारों का मुकुट माना गया है। वहीं लिव-इन रिश्ते का कोई संस्कार नहीं, यह सिर्फ सरकार द्वारा प्रदत्त स्वच्छंदता है।
विवाह में रिश्तेदार होते हैं, उनके समक्ष शादी होती है। उनकी गवाही होती है।जबकि लिव-इन रिलेशनशिप में सिर्फ ये दोनों होते हैं लड़का और लड़की , अन्य कोई नहीं ।ना कोई रिश्तेदार,ना कोई गवाही।
भारतीय संस्कृति में विवाह सिर्फ दो व्यक्तियों का नहीं, बल्कि दो परिवारों, दो वंशों और दो कुलों का मिलन होता है।राम-सीता, शिव-पार्वती, नल-दामयंती,ये सब उदाहरण विवाह की पवित्रता दिखाते हैं।
लिव-इन रिलेशनशिप में मजें ही मजे है। किसी एक से हमेशा के लिए बंधे रहने का कोई झंझट नहीं। जब चाहे वाई-फाई का पासवर्ड बदलो। जब चाहे रिश्ता तोड़ो । मनचाहा पासवर्ड,मनचाहे समय के लिए अपने पास रखो। संतान कब किस पासवर्ड से हो?कोई झंझट नहीं!चाहे जिसको पापा बना दो,सुप्रीम कोर्ट की पूरी इजाजत है।
बच्चा पूछेगा,"मम्मी, मेरे पापा कौन है?... और यह भी आवश्यक नहीं ,कि सभी संतानों के पापा एक ही हो। मम्मी ही बता पाएगी, कौन सी संतान के पापा कौन है?
अब बताओ कितना मजा आएगा जब साथ-साथ रहने वाले भाई बहनों के पापा अलग-अलग होंगे और मम्मी एक ही होगी।इसमें कोई किसी का रिश्तेदार नहीं। ना कोई साला ,ना कोई साली।ना कोई सास, ना कोई ननद। कोई सामाजिक रिश्ता नहीं। रिश्ता है तो सिर्फ दोस्ती का। साथ रहने का। साथ सोने का। साथ खाने का।इसी को कहते हैं सामाजिक सद्भाव।
विवाह संस्कार में फेरे होते हैं। पंडित जी अलग-अलग वचन भरवाते हैं। एक दूसरे को एक दूसरे के प्रति जिम्मेदारी का एहसास कराते हैं।यहां कोई फेरे नहीं।कोई वचन नहीं। कोई जिम्मेदारी नहीं। यहां है तो सिर्फ स्वच्छंदता सिर्फ स्वछंदता।
वह समय दूर नहीं जब लिव इन रिलेशन में रहने वाले जोड़े सरकार से यह मांग करने लगे कि हम लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़ों की सुविधा के लिए प्रधानमंत्री लिव इन योजना( PLIY) शुरू की जाए और इसके तहत हमें मुफ्त किराए का फ्लैट दिया जाए। जिसमें हम जब चाहे तब तक, (जब तक एक दूसरे के साथ लिव इन रिलेशन में रहे ) इसमें रहें। फ्लैट मालिक 'लिव इन' जोड़ों को अपनी पुरानी, दकियानूसी मान्यता के कारण फ्लैट किराए पर देने में आनाकानी करते हैं।
जब तक हम जिस जोडें के साथ लिव इन में रहे ,तब तक हमें लिव-इन रसोई गैस कनेक्शन दिया जावे। विभिन्न प्रकार के डॉक्यूमेंट में से पति-पत्नी शब्द हटाकर "पार्टनर 1" और "पार्टनर 2" लिखा जाए। लिव इन में रहने वाले जोड़ों के बच्चों के माता और पिता अलग-अलग भी हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में विद्यालयों में बच्चों का नाम लिखवाते समय "फादर नेम" और "मदर नेम" की जगह "गार्डियन A" और "गार्डियन B"। लिखवाना शुरू करवाया जाए।
सुप्रीम कोर्ट कह ही चुका है कि लिव-इन रिलेशनशिप कोई अपराध नहीं। इसलिए जिसका जैसा मन करे, वह वैसे ही रहें।वैसे भी हमारे यहां तो "बिना हेलमेट बाइक चलाना" अपराध होने के बावजूद अधिकांशतः लोग बिना हेलमेट बाइक चलाते हैं। फिर लिव इन ने तो कानूनी जामा पहन रखा है।सैंया भाई कोतवाल अब डर काहे का....
उच्छृखलता, स्वच्छंदता को कानून ने मान्यता दी रखी है तो फिर समाज के लोग किस हैसियत से सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की खिल्ली उड़ाने का प्रयास करते हैं और हम पर अनैतिक दबाव डालते हैं ।ऐसे अनैतिक दबाव डालने वालों को जेल में डाला जाए ।उन्हें ऐसा करने से रोका जाए ।हमारे जैसे यूथ को वे बार-बार भारतीय संस्कृति ,भारतीय परंपरा इत्यादि का पाठ पढ़ाकर "लिव इन रिलेशनशिप" में रहने वाले जोड़ों की संख्या को कम करने का प्रयास कर रहे हैं। जो ठीक नहीं है।
यह एक तरह से हम लोगों की संख्या को कम करने का प्रयास है ।हमें अल्पसंख्यक बनाए रखने का षड्यंत्र है। यह पुरानी पीढ़ी, हमें अपने जैसा बनाए रखना चाहती है। इन्हें किसी भी प्रकार से रोका जाना चाहिए।देश की अदालतों को हमारी पुरानी, घिसी पिटी संस्कृति की पैरवी करने वालों लोगों को रोका जाना चाहिए ।
विवाह करना हमारी संस्कृति नहीं है , अपितु लिव इन में रहना अब हमारी संस्कृति है। विवाह एक रूढ़िवादी, दकियानूसी विचार है और 'लिव इन' प्रोग्रेसिव और आधुनिक सोच है।जो लोग कहते हैं, हमारे संस्कार हमारी संस्कृति घर-घर में बसती है, किताबों और आस्थाओं में लिखी होती है। उनकी सोच को कानूनन बदला जाना चाहिए। देश की तरक्की के लिए,आने वाली संतति के भविष्य के लिए यह बहुत आवश्यक है।
लिव इन में स्त्री "होम पार्टनर" होती है। पति परमेश्वर ,गृह लक्ष्मी इत्यादि वाली सोच हमारी अतार्किक और दकियानूसी सोच को दर्शाती है।लिव-इन में विवाह जैसी कोई औपचारिकता नहीं होती। परिवार चलाना दोनों की सामूहिक जिम्मेदारी होती है। सामाजिक रिश्ते कम होते हैं। इसलिए इन्हें निभाने का उत्तरदायित्व भी नहीं होता।
...और सबसे बड़ा फायदा यह होता है, बच्चों की कथित संस्कार नाम की बीमारी से दूरी बनी रहती है ।जो कुछ सीखना होता है वह अपने गार्जियन को देखकर सीख लेते है।
कहने को तो लिव इन रिलेशनशिप में वे युवा युवती रहते हैं, जो आपस में प्रेम करते हैं। लेकिन वास्तव में वे प्रेम नहीं करते। बल्कि ट्रायल करते हैं। सौदा करते हैं। एक दूसरे की पूर्ति करते हैं।यदि हम आज के युवाओं से पूछें।
"शादी कब करोगे?"तो जवाब मिलता है,"अरे अंकल! अभी तो बस लिव-इन ट्रायल चल रहा है। अगर रिजल्ट अच्छा आया तो शादी करेंगे, वरना अगला पार्टनर ढूँढ लेंगे।"मतलब साफ है अब प्रेम भी अब रिजल्ट पर आधारित हो गया।कथित भारतीय संस्कृति में प्रेम त्याग पर टिका है, त्याग करना कहां तक उचित है?
विश्व के सभी विकसित देशों में जाकर देख लीजिए। वहां त्याग को कोई जगह नहीं है। स्पष्ट संकेत है, यदि आपको विकसित होना है, अपना विकास करना है, अपना भला चाहते हो, तो हमें त्याग जैसी पुरानी सोच को अपने जेहन से निकालना होगा।अब प्रेम ड्राफ्ट सेव और डिलीट पर टिका है।
लिव-इन रिलेशनशिप पश्चिमी समाज का "कॉन्ट्रैक्ट बेस्ड" विचार है। लिव इन के विरोधियों का मानना है, भारतीय संस्कृति में यह विचार उतना ही प्रतिकूल है, जितना मठ में मीट पकाना।ये विरोधी कहते हैं,विवाह सिर्फ दो व्यक्तियों का मेल नहीं, बल्कि परिवार, समाज और संस्कृति का आधार है।लिव-इन रिश्ते सुविधा भले देते हों, पर संस्कार नहीं देते।इसलिए यह भारतीय संस्कृति के लिए विष-बेल की तरह है , यह धीरे-धीरे समाज की जड़ों को खोखला कर रहा है।
भारत में लिव-इन रिश्ते ऐसे ही हैं जैसे बिना पूजा किए प्रसाद बाँटना।शुरुआत में यह मीठा जरूर लगता है, पर अंततः स्वाद बेस्वाद हो जाता है।लेकिन के विरोधी कह रहे हैं संस्कृति को बचाना है तो विवाह की गरिमा को पुनः स्थापित करना होगा।वरना आने वाली पीढ़ी कहेगी, "दादी, दादा-दादी का भी कोई लिव-इन चलता था क्या?"
इसलिए सरकार को लिव इन रिलेशनशिप में रहने वालो के लिए विशेष पैकेज देना चाहिए। विशेष सुरक्षा देनी चाहिए।
- हनुमान मुक्त ,"मुक्तायन" ,93, कान्ति नगर,
मुख्य डाकघर के पीछे,गंगापुर सिटी-322201
जिला: गंगापुर सिटी (राजस्थान) भारत मोबाइल : 9413503841
WhatsApp: 9413503841 ईमेल: hanumanmukt@gmail.com


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