सड़क की कमी विकास की सबसे बड़ी रुकावट

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सड़क का न होना केवल आर्थिक विकास की बाधा नहीं है, बल्कि महिलाओं की सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ भी सवाल है। रात में अगर किसी औरत या लड़की को अस्पताल ले जान

वो कच्ची सड़क गाँव की


भारत के गाँवों की तस्वीर अक्सर हरे-भरे खेतों, बैलों की गाड़ियों और मिट्टी की खुशबू से सजाई जाती है, लेकिन असली तस्वीर इससे कहीं अलग है। असली संघर्ष उन कच्ची सड़कों से झलकता है, जो गांव वालों की ज़िंदगी को हर दिन कीचड़ और धूल में उलझाए रखती हैं। सड़क किसी भी गाँव की जीवनरेखा होती है, लेकिन कुछ गांवों में यह जीवन रेखा आज भी अधूरी है। ऐसा ही एक गांव नकोदेसर भी है। राजस्थान के बीकानेर जिला स्थित लूंकरणसर ब्लॉक से करीब 33 किमी दूर इस गांव की तस्वीर मैप से नजर आ जाती है , लेकिन यहां सड़क ढूंढने पर भी नजर नहीं आती है।

गांव के 70 साल के परसा राम कहते हैं “हमारे युवावस्था के समय से आज तक इस गांव की सड़क खराब है। बारिश के दिनों में बाज़ार तक पहुँचने में आधा दिन लग जाता है। गाड़ी कीचड़ में धँस जाती है, किसान के अनाज रास्ते में ही खराब हो जाते हैं। सड़क होती तो ये हाल न होता।” वह कहते हैं कि 'मैंने उम्र भर यही सपना देखा कि हमारी संतानें इन मुश्किलों से मुक्त होंगी, लेकिन हकीकत यह है कि वही मुश्किलें अब भी उनके पोते-पोतियों की जिंदगी में भी जारी हैं।'

इस दौरान गांव के बच्चों के लिए स्कूल जाना किसी जंग से कम नहीं है। बारिश होते ही रास्ता दलदल में बदल जाता है। 66 साल की बिरमा देवी कहती हैं कि “बरसात के दिनों में अक्सर उनकी 7 साल की पोती स्कूल नहीं जा पाती है, क्योंकि बारिश से इतना कीचड़ हो जाता है कि बच्चे उसमें फिसल जाते हैं और उनकी स्कूल ड्रेस खराब हो जाती है। इस बार लूणकरणसर में अच्छी बारिश हुई है। ये किसानों के लिए राहत की बात हो सकती है, लेकिन स्कूल जाने वाली मेरी पोती के लिए ये अच्छा नहीं है। वह अगस्त में के पांच दिन ही स्कूल जा सकी है। सिर्फ वही नहीं, अधिकतर छोटे बच्चों का स्कूल बारिश में छूट जाता है, क्योंकि रास्ता इतना खराब हो जाता है कि बड़े लोग तक उसमें फिसल जाते हैं, फिर बच्चों को कैसे उस रास्ते से स्कूल भेजें?' यह कच्चा रास्ता गांव की महिलाओं की ज़िंदगी को भी प्रभावित करता है। बारिश के समय एक तो जलावन के लिए लकड़ी मिलना मुश्किल हो जाता है वहीं दूसरी ओर उसे लाने जाना हो तो कंधे पर बोझ और पैरों के नीचे कीचड़ दोनों से लड़ना पड़ता है।

वो कच्ची सड़क गाँव की
गर्भवती महिलाओं को अस्पताल पहुँचाना तो मानो मौत और ज़िंदगी की बाज़ी खेलने जैसा है। 65 साल की राजों देवी बताती हैं कि “कुछ हफ्ते पहले मेरी बहू को प्रसव पीड़ा हुई, तो हमने एमबुलेन्स को फोन किया। वह आया तो लेकिन बारिश की वजह से रास्ते इतने खराब थे कि गांव में घुसते ही गाड़ी कीचड़ में फंस गई और लाख कोशिश के बावजूद वह निकल नहीं पाई। आखिरकार घर के मर्दों ने मिलकर उसे खाट पर उठाया और सड़क तक ले गए। कीचड़ में फँसते-गिरते तीन घंटे लग गए। तब तक उसका काफी खून बह गया था। बड़ी मुश्किल से माँ और बच्चे की जान बची है। अगर पक्की सड़क होती तो यह कठिनाई नहीं आती।” यहाँ स्त्रियों के लिए सड़क सिर्फ़ सुविधा नहीं, बल्कि जीवन और मौत के बीच की दूरी है।

सड़क का न होना केवल आर्थिक विकास की बाधा नहीं है, बल्कि महिलाओं की सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ भी सवाल है। रात में अगर किसी औरत या लड़की को अस्पताल ले जाना हो, तो अंधेरे में कच्चे रास्ते से होकर जाना बेहद डरावना होता है। कई बार लोग मजबूरी में घर पर ही दवा देकर काम चलाते हैं। गाँव वाले बताते हैं कि कई बार सड़क के लिए नाप-जोख भी हुई, वादे भी किए गए, लेकिन नतीजा आज तक शून्य है। बुज़ुर्ग कहते हैं हम जानते हैं कि सड़क केवल पत्थर और डामर की बनी हुई लकीर नहीं है, यह बच्चों के स्कूल तक पहुँचने की सीढ़ी है, यह औरतों की सुरक्षा की गारंटी है, यह बीमार के अस्पताल तक पहुँचने का भरोसा है और यह किसानों की मेहनत का पूरा दाम है।

भारत के ग्रामीण इलाक़ों की सड़कों की हक़ीक़त यह है कि हमारे सड़क नेटवर्क का करीब 71 प्रतिशत हिस्सा होने के बावजूद इसकी गुणवत्ता अन्य सड़क नेटवर्क से बेहतर नहीं है। केन्द्रीय सड़क, परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की “वार्षिक रिपोर्ट 2024-25” बताती है कि ग्रामीण सड़कों की हिस्सेदारी बहुत बड़ी है, पर सतह की गुणवत्ता (पक्कीकरण) में सुधार की जरूरत है। गांव को जोड़ने में प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना निर्णायक रही है। लेकिन मार्च 2024 तक सिर्फ़ PMGSY-I ने 1,56,617 बस्तियों को जोड़ते हुए 6,24,187 किमी सड़कें बनवाईं हैं। 

हालांकि मंत्रालय के आधिकारिक ब्योरे यह भी दर्ज करते हैं कि 10 मार्च 2022 तक योजना के सभी घटकों में “क़रीब 7 लाख किमी” सड़कों का निर्माण पूरा हो चुका था। यानी पैमाने पर काम हुआ, और इसका असर सीधे रोजगार, शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच पर दिखा। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार PMGSY-I के 99% और PMGSY-II के 97% लक्ष्यों की पूर्ति हो चुकी है; इसके बाद सरकार ने शेष बस्तियों तक पक्की, सर्व-मौसमी सड़कें पहुँचाने के लिए 11 सितंबर 2024 को PMGSY-IV को मंज़ूरी दी जिसके जरिए लगभग 25,000 शेष बस्तियों को जोड़ने के लिए 62,500 किमी नई सड़कों का प्रावधान किया गया। अगस्त 2025 में समय-सीमा को 31 मार्च 2026 तक बढ़ा दिया गया है। 

अब राजस्थान पर नज़र डालें, जहाँ फैलते रेगिस्तान और लम्बी दूरियों के बीच सड़क ही जीवन-रेखा है। नवीनतम आंकड़े बताते हैं कि 2024 तक राजस्थान का कुल सड़क नेटवर्क लगभग 3,17,121 किमी आँका गया जिससे राज्य के 39,408 गांव सड़कों से जुड़े बताए गए हैं। यानी भौगोलिक विकटताओं के बावजूद बुनियादी संपर्क स्थापित हो चुका है, पर गुणवत्ता/उन्नयन की ज़रूरत जस की तस है। बात अगर बीकानेर जिला और ख़ासकर लूंकरणसर ब्लॉक की करें तो यहां की रेतीली भूमि, बिखरी आबादी और धाणियों तक पहुँच की चुनौती से बनती है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार लूंकरणसर तहसील/ब्लॉक में करीब 140 से अधिक गांव दर्ज हैं, यानी सड़क नेटवर्क को बहुत फैले हुए बस्तियों तक पहुँचना होता है। हाल के वर्षों में बीकानेर ज़िले में PMGSY-III के अंतर्गत लूंकरणसर क्षेत्र में लूंकरणसर-मालकीसर मार्ग जैसे कॉरिडोर पर चौड़ीकरण होना, यह संकेत है कि उन्नयन सतत चल रहा है और यातायात-भार व सुरक्षा के हिसाब से सुधार किए जा रहे हैं।

कुल मिलाकर तस्वीर यह बनती है कि ग्रामीण सड़कें मात्र इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं, बल्कि यह महिलाओं और किशोरियों के हक़ की कुंजी हैं। नकोदेसर गांव के लोग हर दिन कच्ची सड़क के कारण होने वाली कठिनाइयों से जूझते हैं, लेकिन अब वे बदलाव की उम्मीद कर रहे हैं। उन्हें विश्वास है कि अगर सड़क बन जाए तो गाँव की आधी से ज्यादा समस्याएं खत्म हो जाएँगी। यह सिर्फ नकोदेसर गांव की कहानी नहीं है, बल्कि भारत के उन हज़ारों गाँवों की आवाज़ है जहाँ सड़क की कमी विकास की सबसे बड़ी रुकावट बनी हुई है। जब तक सड़क नहीं बनेगी, तब तक न तो बच्चों का भविष्य बनेगा, न ही महिलाओं और किशोरियों की ज़िंदगी सुधरेगी और न ही वह गांव विकास की मुकम्मल गाथा सुना सकता है।

(यह लेखिका के निजी विचार हैं)


- नवदीप कौर,
लूणकरणसर, राजस्थान

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