मोहनदास कहानी का सारांश उदय प्रकाश उदय प्रकाश की लंबी कहानी मोहनदास आधुनिक भारतीय साहित्य की एक ऐसी रचना है, जो सामाजिक-आर्थिक असमानता, नौकरशाही की
मोहनदास कहानी का सारांश उदय प्रकाश
उदय प्रकाश की लंबी कहानी मोहनदास आधुनिक भारतीय साहित्य की एक ऐसी रचना है, जो सामाजिक-आर्थिक असमानता, नौकरशाही की क्रूरता, और दलित-पिछड़े वर्गों के जीवन की त्रासदी को गहरे संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत करती है। यह कहानी न केवल एक व्यक्ति की जिंदगी की त्रासदी को बयां करती है, बल्कि उस व्यवस्था को भी नंगा करती है, जो सतही तौर पर लोकतांत्रिक दिखती है, लेकिन वास्तव में गरीबों और हाशिए पर रहने वालों के लिए एक क्रूर भूलभुलैया है। मोहनदास, कहानी का नायक, एक ऐसा चरित्र है जो अपनी सादगी, मेहनत और प्रतिभा के बावजूद सामाजिक ताने-बाने में उलझकर अपनी पहचान और अस्तित्व की लड़ाई लड़ता है। यह कहानी एक व्यक्तिगत त्रासदी से शुरू होकर सामाजिक और व्यवस्थागत विफलताओं की गहरी पड़ताल करती है।
कहानी की शुरुआत मध्यप्रदेश के एक छोटे से गांव से होती है, जहां मोहनदास का जन्म और पालन-पोषण हुआ। वह एक गरीब, निम्न जाति का युवक है, जिसने अपनी लगन और मेहनत से ग्रेजुएट की डिग्री हासिल की है। यह डिग्री उसके लिए केवल एक कागज का टुकड़ा नहीं, बल्कि उसकी मेहनत, सपनों और परिवार की उम्मीदों का प्रतीक है। मोहनदास का परिवार अत्यंत विपन्न परिस्थितियों में जी रहा है। उसकी पत्नी कस्तूरी घर की जिम्मेदारियों को संभालती है, लेकिन गरीबी के कारण उसे छोटे-मोटे काम करने पड़ते हैं। मोहनदास के पिता टीबी के गंभीर मरीज हैं, जिनके इलाज के लिए न तो पैसा है और न ही पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं। उसकी मां की आंखें जवानी में ही चली गई थीं, और वह अब घर के एक कोने में चुपचाप बैठी रहती है, जैसे उसका अस्तित्व केवल एक छाया बनकर रह गया हो। परिवार में छोटे-छोटे बच्चे भी हैं, जो भविष्य की चिंताओं से अनजान हैं, लेकिन माता-पिता के तनाव को अपने नन्हे दिलों में महसूस करते हैं। इस परिवार की तस्वीर उदय प्रकाश ने इतने मार्मिक ढंग से खींची है कि पाठक शुरुआत से ही मोहनदास के दर्द से जुड़ जाता है।
कहानी का केंद्रीय संघर्ष तब शुरू होता है, जब मोहनदास एक सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करता है। यह नौकरी उसके लिए केवल रोजगार का साधन नहीं, बल्कि अपने परिवार को गरीबी के दलदल से निकालने का एकमात्र रास्ता है। लेकिन यह रास्ता इतना आसान नहीं है। नौकरी के लिए उसे अपनी पहचान सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ती है, और यहीं से उसका नाम 'मोहनदास' एक अभिशाप बन जाता है। क्योंकि महात्मा गांधी का पूरा नाम भी मोहनदास करमचंद गांधी था, प्रशासनिक अधिकारी उसके नाम पर संदेह करने लगते हैं। वे यह मानने को तैयार ही नहीं कि एक साधारण, गरीब और देहाती दिखने वाला व्यक्ति इतने प्रतिष्ठित नाम का धारक हो सकता है। इस संदेह के चलते मोहनदास से तरह-तरह के दस्तावेज मांगे जाते हैं—जन्म प्रमाण पत्र, स्कूल के रिकॉर्ड, जाति प्रमाण पत्र, और अन्य कई कागजात। लेकिन ग्रामीण भारत की सच्चाई यही है कि गरीब परिवारों के पास ऐसे दस्तावेज अक्सर उपलब्ध ही नहीं होते। मोहनदास का जन्म एक ऐसे गांव में हुआ था, जहां स्कूल के रिकॉर्ड अधूरे हैं, और जन्म प्रमाण पत्र जैसी चीजें तो सपने की तरह हैं।
मोहनदास बार-बार सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाता है। वह भोपाल के उन गलियारों में भटकता है, जहां नौकरशाही का ठंडा और क्रूर चेहरा उसे हर कदम पर अपमानित करता है। अधिकारी उससे ऐसे सवाल पूछते हैं, जैसे वह कोई अपराधी हो। उसका सादा लिबास, उसका देहाती लहजा, और उसकी गरीबी सब कुछ उसके खिलाफ जाता है। उदय प्रकाश ने इन दृश्यों को इतनी बारीकी से लिखा है कि पाठक मोहनदास के साथ-साथ उस अपमान और लाचारी को महसूस करता है। हर बार जब वह दफ्तर से खाली हाथ लौटता है, उसका आत्मविश्वास और हिम्मत टूटती जाती है। घर पर उसका परिवार भुखमरी के कगार पर पहुंच जाता है। पिता की बीमारी दिन-ब-दिन बिगड़ती जाती है, और कस्तूरी की मेहनत भी परिवार का पेट भरने के लिए काफी नहीं पड़ती। मां की चुप्पी और बच्चों की मासूम नजरें मोहनदास के लिए एक अनकहा बोझ बन जाती हैं।
कहानी में उदय प्रकाश ने नौकरशाही के साथ-साथ सामाजिक भेदभाव को भी बहुत सूक्ष्मता से उजागर किया है। मोहनदास का नाम केवल इसलिए संदिग्ध माना जाता है, क्योंकि वह गरीब और निम्न जाति से है। अगर वह किसी प्रभावशाली परिवार से होता, तो शायद उसका नाम ही उसकी ताकत बन जाता। लेकिन यहां उसका नाम उसकी कमजोरी बन जाता है। यह विडंबना कहानी का सबसे मार्मिक पहलू है। मोहनदास का चरित्र एक ऐसे व्यक्ति का प्रतीक है, जो अपनी योग्यता और मेहनत के बावजूद समाज की बनाई हुई दीवारों से टकराकर हार जाता है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, मोहनदास की मानसिक स्थिति बदतर होती जाती है। वह डरने लगता है, झूठ बोलने को मजबूर होता है, और एक समय ऐसा आता है जब वह अपनी असली पहचान छिपाने की कोशिश करता है। लेकिन व्यवस्था इतनी क्रूर है कि वह उसे अपनी पहचान साबित करने का मौका ही नहीं देती।
कहानी का सबसे दुखद हिस्सा तब आता है, जब मोहनदास के पिता की बीमारी के कारण मृत्यु हो जाती है। यह घटना मोहनदास के लिए एक बड़ा झटका है, क्योंकि वह अपने पिता के लिए कुछ नहीं कर पाया। कस्तूरी और बच्चों की स्थिति और बदतर हो जाती है, और मोहनदास खुद एक भटके हुए प्रेत की तरह शहर की सड़कों पर घूमने लगता है। वह अब न तो अपने गांव में अपनी जगह पाता है, और न ही शहर में। उसकी डिग्री, उसकी प्रतिभा, और उसकी मेहनत सब बेकार हो जाती है। कहानी का चरमोत्कर्ष तब आता है, जब मोहनदास को यह एहसास होता है कि इस समाज में 'सच' वह नहीं जो वास्तविक है, बल्कि वह जो दिखाई देता है। उसके सादे कपड़े, उसके फटे-पुराने जूते, और उसका साधारण चेहरा उसे 'मोहनदास' होने का हक नहीं देता।
उदय प्रकाश ने इस कहानी के माध्यम से कई गहरे सवाल उठाए हैं। क्या आजादी के बाद भी भारत में कुछ बदला है? क्या दलित और गरीब वर्ग के लिए व्यवस्था वाकई निष्पक्ष है? क्या एक साधारण व्यक्ति का नाम भी उसकी पहचान का बोझ बन सकता है? मोहनदास की कहानी केवल एक व्यक्ति की कहानी नहीं है, बल्कि उन लाखों लोगों की कहानी है, जो हर दिन अपनी पहचान साबित करने के लिए जूझ रहे हैं। यह कहानी नौकरशाही, भ्रष्टाचार, और सामाजिक भेदभाव की त्रयी को उजागर करती है। अंत में, मोहनदास की हार पाठक को एक गहरी उदासी और बेचैनी के साथ छोड़ देती है। यह कृति न केवल साहित्यिक दृष्टि से उत्कृष्ट है, बल्कि सामाजिक चेतना को जगाने का एक शक्तिशाली माध्यम भी है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हमारा समाज वाकई उन लोगों को स्वीकार करता है, जो इसके हाशिए पर हैं।


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