भारतीय किसान की बदहाल स्थिति पर निबंध भारत कृषिप्रधान देश है। यहाँ की 70% से अधिक जनसंख्या की आजीविका का साधन कृषि है। यह जनसंख्या भोजन के अलावा अपनी
भारतीय किसान की बदहाल स्थिति पर निबंध
भारत कृषिप्रधान देश है। यहाँ की 70% से अधिक जनसंख्या की आजीविका का साधन कृषि है। यह जनसंख्या भोजन के अलावा अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी खेती पर आश्रित रहती है। कृषि करने वाले ये किसान शहरी तथा अकृषियोग्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को भोजन उपलब्ध कराकर अन्नदाता की भूमिका निभाते हैं। देश की अर्थव्यवस्था में किसानों का महत्वपूर्ण योगदान है। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री किसानों का महत्व बखूबी समझते थे, तभी उन्होंने 'जय जवान जय किसान' का नारा देकर किसानों को गौरवान्वित कराने का प्रयास किया। स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी किसानों के बारे में कहते थे-'भारत का हृदय गाँवों में बसता है। वहीं सेवा और श्रम के अवतार किसान बसते हैं। ये किसान नगरवासियों के अन्नदाता और सृष्टिपालक हैं।' देश को आज़ादी दिलाने में भी हमारे देश के किसानों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।
भारतीय किसान की बदहाल स्थिति के प्रभाव
देश के अन्नदाता अर्थात् भारतीय किसान का स्मरण करते ही एक दीन-दुर्बल किंतु घोर परिश्रमी और सरल स्वभाव वाले व्यक्ति की मूर्ति हमारी आँखों के सामने घूम जाती है। भारतीय किसान की परिश्रमशीलता और सर्दी, गर्मी, बरसात की परवाह किए बिना काम करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को देखकर किसानों की उपेक्षा करने वालों को संबोधित करते हुए राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा है -
यदि तुम होते दीन कृषक तो आँख तुम्हारी खुल जाती,
जेठ माह के तप्त धूप में, अस्थि तुम्हारी घुल जाती।
दाने बिना तरसते रहते, हरदम दुखड़े गाते तुम,
मुँह से बात न आती कोई कैसे बढ़-बढ़ बात बनाते तुम।।
सचमुच खेती करना अत्यंत ही श्रमसाध्य कार्य है, जिसमें खून-पसीना एक करना पड़ता है। कृषि कार्य में आराम करने का तो कोई निश्चित समय है ही नहीं। एक भारतीय किसान ऋषियों-मुनियों की तरह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर अपने बैलों तथा अन्य जानवरों को चारा-पानी देकर खेत की ओर चला जाता है। सर्दी, गर्मी, बरसात की परवाह किए बिना वह खेत में निराई-गुड़ाई, जुताई-बुताई, कटाई आदि काम में जुटा रहता है। धान की रोपाई के समय न झुलसाने वाली गर्मी की परवाह रहती है और न माघ महीने की हड्डियाँ कँपा देने वाली सर्दी में खेतों की सिंचाई करने की। उसे निराई-गुड़ाई-कटाई जैसे श्रमसाध्य कार्य सर्दी-गर्मी की परवाह किए बिना करना पड़ता है। उसका कलेवा खेत की मेड़ पर होता है और कभी भोजन भी दोपहरी में खेत के पास स्थित किसी पेड़ के नीचे हो जाता है। उसे अपनी फसलों की रखवाली करते हुए खुले आसमान के नीचे या किसी पेड़ के नीचे जागकर रात बितानी होती है। इस प्रकार उसकी दिनचर्या अत्यंत श्रमसाध्य और कठोर जीवन का साक्षात् नमूना होती है।
भारतीय किसान अत्यंत दीन-हीन दशा में जीवन बिताता है। अब भी दूरदराज के स्थानों और दुर्गम जगहों पर भारतीय कृषि मानसून का जुआ बनी हुई है। वहाँ सिंचाई के लिए वर्षा पर निर्भर रहना होता है। यदि समय पर वर्षा न हुई तो फसल बोने से लेकर उसके पकने तक संदेह बना रहता है। इसके अलावा उसकी फसलें प्राकृतिक आपदा, असमयवर्षा और ओलावृष्टि के अलावा टिड्डियों के आक्रमण का शिकार हो जाती हैं। देश का अन्नदाता दूसरों का पेट तो भरता है, पर उसे रूखा-सूखा खाकर जीवन बिताना पड़ता है। वह गरीबी में पैदा होता है, गरीबी में पलता बढ़ता है और उसी तंगहाली में जीता-मरता है। पेट तो वह जैसे-तैसे भर भी लेता है, पर उसके शरीर पर शायद ही कभी पूरे कपड़े रहते हों। उसका आवास छप्परों में रहता है। वह सूदखोरों से कर्ज़ लेकर अपनी खून-पसीने की कमाई ब्याज में देता रहता है। वह कुरीतियों और रुढ़ियों का शिकार होकर आजीवन घोर विपन्नता में दिन बिताता है। प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों विशेषकर 'पूस की रात' में 'होरी', ' 'कफ़न' में घीसू माधव के चरित्र के माध्यम से इसे स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।
भारतीय किसान का स्वभाव अत्यंत सीधा और सरल होता है। साहूकार, नेता-मंत्री उसका शोषण करते हैं तथा दिवास्वप्न दिखाते हैं। हर बार चुनाव के समय उसकी दशा सुधारने का वायदा किया जाता है, पर अगले चुनाव में ही नेताओं को उसकी याद आती है। उसकी आवश्यकताएँ अत्यंत सीमित होती हैं। वह रूखा-सूखा खाकर भी संतुष्टि की अनुभूति करता है। रूखा-सूखा मिला खा लिया, मोटा-महीन जैसा भी वस्त्र मिला पहन लिया और धरती माँ की गोद में विश्राम कर लिया। प्रकृति की निकटता पाकर वह स्वस्थ रहता है। उसमें मुनियों-सा त्याग, संतोष तथा गरीबी में भी खुश रहने की प्रवृत्ति होती है तो उसकी हड्डियों में दधीचि की हड्डियों जैसी मज़बूती होती है। वह छल-कपट, ईर्ष्या से दूर रहता है, पर दूसरों के छल-कपट का शिकार हो जाता है।
भारतीय किसान की बदहाल स्थिति के कारण
किसानों की इस दयनीय स्थिति के एक नहीं अनेक कारण हैं। सर्वप्रथम उसके पास ज़मीन की मात्रा सीमित होना है, जिसमें वह अपने खाने भर के लिए अनाज पैदा कर पाता है, जिससे वह अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ ही पूरी कर पाता है। दूसरे भारतीय किसानों का अशिक्षित होना। अशिक्षा के कारण भारतीय किसान अपने अधिकारों के बारे में अनभिज्ञ रहते हैं। वे सरकारी योजनाओं से अनभिज्ञ रहकर उनका लाभ नहीं उठा पाते हैं। उनकी अशिक्षा का सर्वाधिक फायदा साहूकार उठाते हैं जो थोड़े से रुपये उधार देकर उनसे मनचाही राशि पर अँगूठा लगवा लेते हैं। इसके अलावा अशिक्षा के कारण वे बैंकों तक जाने में भयभीत रहते हैं और उनसे कम ब्याज दर पर भी ऋण लेते हुए डरते हैं। उनकी दयनीय दशा का तीसरा कारण सरकार द्वारा की गई उपेक्षा है। सरकार उनके कल्याण के लिए घोषणाएँ तो करती है, पर ये योजनाएँ कागजों तक ही सीमित रह जाती हैं।
समाधान के उपाय
भारतीय किसान को उसकी दयनीय दशा से उभारने के लिए सरकारी प्रयास अत्यंत आवश्यक है। सर्वप्रथम किसानों को सरकारी और गैर-सरकारी ऋण से मुक्ति दिलाई जाए तथा उन्हें खाद, बीज और उन्नत यंत्रों के लिए सस्ती दरों पर ऋण दिया जाना चाहिए। उनकी उपज का समर्थन मूल्य बढ़ाया जाना चाहिए तथा उनकी फसल का बीमा करवाना चाहिए ताकि वे प्राकृतिक आपदाओं की मार से बच सकें। इसके अलावा किसानों को मुर्गीपालन, मधुमक्खी पालन, दुधारू पशुओं का पालन कर दुग्ध उत्पादन करने जैसे कृषि से जुड़े लघु उद्योगों का प्रशिक्षण देना चाहिए।
देश के अन्नदाता की उन्नति के बिना राष्ट्र की तरक्की की कल्पना करना बेईमानी है। अतः उनकी उन्नति के लिए सरकारी संस्थाओं के अलावा निजी संस्थाओं को भी आगे आना चाहिए। हमें किसानों को सम्मान देना चाहिए, क्योंकि शहरी लोगों को भोजन मिलना, उनके परिश्रम का ही परिणाम है। डॉ० रामकुमार वर्मा ने ठीक ही कहा था-
हे ग्राम देवता !
नमस्कार सोने-चाँदी से नहीं किंतु मिट्टी से तुमने किया प्यार,
हे ग्राम देवता नमस्कार।


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