भाषा उत्पत्ति के सिद्धांत भाषा की उत्पत्ति मानव सभ्यता के सबसे जटिल और रोचक प्रश्नों में से एक है, जो भाषाविज्ञान, मानवशास्त्र, मनोविज्ञान और दर्शन ज
भाषा उत्पत्ति के सिद्धांत
भाषा की उत्पत्ति मानव सभ्यता के सबसे जटिल और रोचक प्रश्नों में से एक है, जो भाषाविज्ञान, मानवशास्त्र, मनोविज्ञान और दर्शन जैसे क्षेत्रों को एक साथ जोड़ता है। यह एक ऐसा विषय है जिसके बारे में पूर्ण निश्चितता के साथ कुछ कहना मुश्किल है, क्योंकि भाषा का उद्भव लाखों वर्षों पहले की उन घटनाओं से जुड़ा है, जिनके प्रत्यक्ष प्रमाण आज उपलब्ध नहीं हैं। फिर भी, विभिन्न सिद्धांतों, पुरातात्विक खोजों, और आधुनिक अनुसंधानों के आधार पर हम इसकी संभावित कहानी को समझने की कोशिश कर सकते हैं।
भाषा का विकास मानव मस्तिष्क, सामाजिक संरचनाओं, और पर्यावरणीय परिस्थितियों के बीच एक गहरे तालमेल का परिणाम माना जाता है। मानव प्रजाति, होमो सेपियन्स, के विकास के साथ-साथ भाषा की शुरुआत को जोड़ा जाता है, हालांकि कुछ विद्वान मानते हैं कि होमो इरेक्टस या निएंडरथल जैसे अन्य मानव प्रजातियों में भी प्रारंभिक संचार के रूप मौजूद हो सकते थे। भाषा का मूल उद्देश्य संचार था, जो सामाजिक सहयोग, शिकार, और समूह की सुरक्षा जैसे कार्यों को आसान बनाता था।लेकिन यह सिर्फ़ संचार का साधन नहीं थी; यह विचारों, भावनाओं और संस्कृति को व्यक्त करने का माध्यम भी बनी।
भाषा की उत्पत्ति से सम्बन्धित अनेक सिद्धान्त प्रचलित हैं। उन सिद्धान्तों का विवेचन निम्नलिखित है-
दैवी उत्पत्ति
भाषा की उत्पत्ति से सम्बन्धित जितने भी मत प्रचलित हैं, उनमें सर्वाधिक पुराना सिद्धान्त दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त है। इस मत के अनुसार ईश्वर ने जिस प्रकार मनुष्यों का निर्माण किया उसी प्रकार उनके भाव-विनिमय के लिए भाषा का भी निर्माण किया। सृष्टि के प्रत्येक उपादान की निर्मिति ईश्वर द्वारा होती है और उसमें ईश्वर का निवास होता है। इसलिए भाषा भी ईश्वर द्वारा बनायी गयी। इस सिद्धान्त के मानने वाले लोगों का मत है कि उनका अपना धर्म, अपना धर्मग्रंथ और अपनी भाषा ही सबसे प्राचीन है। यही कारण है कि हिन्दू, वेदों को आदिग्रंथ और वेदों की भाषा संस्कृत को आदिभाषा मानते हैं, ईसाई बाइबिल को आदिग्रंथ और उसकी भाषा हिब्रू को आदिभाषा तथा जैनों-बौद्धों ने इसी प्रकार अर्द्धमागधी और पालि को क्रमशः आदिभाषा स्वीकार किया है। इस सिद्धान्त को पुष्ट करने वाली कुछ बातें भी प्राप्त होती हैं, यथा- आदिभाषा संस्कृत के उद्गम-सूत्र (माहेश्वर सूत्र) की उत्पत्ति शिव के डमरू से हुई -
नृत्यावसाने नटराजराजो ननादढक्कां, नवपंचवारम् ।
उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धा नेतद्धविमर्शे शिवसूत्रजालम् ।।
संकेत सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के प्रवर्त्तक जर्मनी के प्रसिद्ध विचारक रूसो हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार जिस प्रकार पशु-पक्षी संकेतों द्वारा परस्पर आदान-प्रदान करता है। इसी प्रकार सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्य भी संकेतों के माध्यम से वैचारिक आदान-प्रदान करता था। अनन्तर उसने एक सभा का आयोजन किया और मिल-बैठकर सभी वस्तुओं के ध्वनि-संकेत निश्चित करके सबका नाम निर्धारित कर लिया। यह एक प्रकार का 'सामाजिक समझौता' था। इसे 'निर्णय सिद्धान्त' और 'स्वीकारवाद' जैसे नामों से भी जाना जाता है। समग्रतः इस सिद्धान्त का अभिप्राय यह है कि विभिन्न पदार्थों के लिए ध्वनि-संकेतों का निर्माण किया गया।
अनुकरण सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के कई अन्य नाम भी हैं। 'भो-भो सिद्धान्त'. 'बाऊ-बाऊ सिद्धान्त', 'अनुकरणमूलकतावाद', 'आनोमेटोपोइक थ्योरी' आदि। इस सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में मानव ने अपने चतुर्दिक अन्यान्य प्राकृतिक उपादानों, पशु-पक्षियों आदि की ध्वनियों का अनुकरण करके बोलना सीखा, जिससे भाषा की उत्पत्ति हुई। पशु-पक्षियों द्वारा जिस प्रकार की ध्वनि उच्चरित की गयी, उसी से मिलता-जुलता उनका नाम रखा गया। इसी प्रकार का क्रमिक विकास होता गया। उदाहरणत: 'का-का!' या फिर 'काँव-काँव' से 'काक''कौआ', 'क-कू' से कोयल', 'झर-झर' से 'निर्झर', 'दर-दर' से "दादुर', आदि ध्वनियों का विकास हुआ।
धातु सिद्धान्त
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन पाश्चात्य विचारक प्लेटो ने किया। बाद में हेस और जर्मन विद्वान् मैक्समूलर ने इसे आगे बढ़ाया। इस सिद्धान्त के लिए 'धातु सिद्धान्त' के अतिरिक्त अन्य नाम भी प्रचलित हैं, जैसे- 'अपनुरणन-मूलकतावाद', 'अनुरणन सिद्धान्त' एवं 'डिंग डांग सिद्धान्त' आदि। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी वस्तु पर चोट करने से एक विशेष प्रकार की ध्वनि निकलती है। सृष्टि के आरम्भ में मानव ने प्रकृति के नाना रूपात्मक, उपादानों को देखा होगा और उससे सम्पर्क करके भिन्न-भिन्न प्रकार की ध्वनियों का अनुमान प्राप्त किया होगा। वर्तमान समय में भी लोहा, टिन और कांच जैसे पदार्थों पर चोट मारने के बाद एक विशेष प्रकार का नाद प्रतिध्वनित होता है। इसी नाद को अनुरणन कहते हैं और सर्वप्रथम धातुओं के द्वारा इस अनुरणन का ज्ञान होने से इस मत के समर्थक भाषा की उत्पत्ति के इस सिद्धान्त को धातु सिद्धान्त कहने लगे, यथा- 'नद-नद' ध्वनि के आधार पर ही नदी नाम पड़ा।
आवेग सिद्धान्त
आवेग सिद्धान्त के अन्य नाम भी प्रचलित हैं। यथा- पूह-पूहवाद', 'मनोरागव्यंजक-मूलकतावाद', 'मनोभावाभिव्यञ्जकतावाद', 'भावाभिव्यक्ति सिद्धान्त' आदि। इस मत के समर्थकों का मानना है कि सृष्टि के आरम्भ में मानव ने अपने मनोगत आवेगों को अभिव्यक्त करने के लिए सहजत: किसी-न-किसी ध्वनि का प्रयोग किया होगा। आगे चलकर यही ध्वनियाँ भाषा के विकास में मूल हेतु बर्नी होंगी यथा- हर्ष, विषाद, दैन्य, आश्चर्य, भय, विस्मय आदि मनोवेगों की अभिव्यक्ति के लिए अहा, ओह, धत्, धिक् आदि शब्दों का प्रयोग और अंग्रेजी में पूह (Pooh), पिश् (Pish), ओह (Oh) आदि ध्वनियों का प्रयोग हुआ होगा और इन्हीं ध्वनियों के आधार पर भाषा का विकास हुआ।
इंगित सिद्धान्त
यह सिद्धान्त भी विदेशी विचारकों ने प्रस्तुत किया। इसके अनुसार भाषा का विकास चार क्रमिक सोपानों से गुजरता हुआ आगे बढ़ा है। प्रथम सोपान में हर्ष, शोक, भय और क्रोध आदि मनोव्यंजक ध्वनियों का जन्म हुआ। दूसरे सोपान में पशु-पक्षियों की ध्वनियों के अनुकरण पर शब्द-रचना हुई। तीसरे सोपान में जीभ, आँख और ओंठ आदि के आंगिक संकेतों द्वारा भाव-प्रकाशन हुआ। चौथे और अन्तिम सोपान में सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति के लिए शब्दों का निर्माण हुआ। इस प्रकार इन चारों सोपानों के द्वारा भाषा का क्रमिक विकास सम्पन्न हुआ।
श्रम ध्वनि सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य जब अधिक श्रम कर देता है तो श्रमजन्य थकान को दूर करने के निमित्त कुछ-न-कुछ ध्वनियाँ उसके मुँह से सहजत: निकल पड़ती हैं। यही ध्वनियाँ आगे चल करके भाषा की उत्पत्ति के लिए आधारभूमि तैयार करती हैं। उदाहरणत: कपड़ा धोते समय धोबी, 'हियो' या 'छियो' की ध्वनि करता है, भारी बोझ उठाते समय मजदूर द्वारा 'हो-हो' या 'हूँ-हूँ' की ध्वनि की जाती है, नाव चलाते समय मल्लाह 'हैया-हैया' की ध्वनि करता है। इसी प्रकार पदयात्रा करते समय स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाला गीत, खेतों में हल चलाते एवं फसल काटते समय पुरुषों और स्त्रियों द्वारा प्रस्तुत सामूहिक गीत आदि इस सिद्धान्त के लिए पूर्वपीठिका का कार्य करते हैं। इस सिद्धान्त को 'श्रम-निवारण सिद्धान्त', 'श्रमाषहारमूलकतावाद' तथा 'यो-हे हो वाद' आदि नामों से भी जाना जाता है।
सम्पर्क सिद्धान्त
सम्पर्क सिद्धान्त के सम्बन्ध में डॉ० रामदरश राय ने लिखा है कि, "इस सिद्धान्त के प्रवर्त्तक सिद्ध मनोवैज्ञानिक जी० रेवेज रहे हैं। इस मत की व्याख्या में मिलता है कि सामाजिक जीवन होने के कारण मनुष्य में पारस्परिक सम्पर्क की प्रवृत्ति विकसित हुई। चिल्लाकर, हल्लाकर, रोकर, पुकारकर और गुनगुनाकर मनुष्य ने मनुष्य से सम्पर्क बनाया। सम्पर्क की जैसे-जैसे आवश्यकता बढ़ी, वैसे-वैसे ध्वनियों की रचना हुई। ध्वनियाँ स्थान, समय एवं पदार्थसूचक होती गयीं तथा धीरे-धीरे उनमें अर्थ का समावेश होता गया।"
समन्वय सिद्धान्त
समन्वय सिद्धान्त के प्रतिपादक प्रख्यात भाषावैज्ञानिक हेनरी स्वीट हैं। उनका मानना है कि भाषोत्पत्ति से सम्बन्धित किसी भी सिद्धान्त में पूर्ण सत्य नहीं दिखायी पड़ता, किन्तु उनमें न्यूनाधिक मात्रा में सत्य की उपस्थिति अवश्य है। ऐसी स्थिति में सभी सिद्धान्तों की तर्कपूर्ण एवं न्यायसंगत बातों को ग्रहण करके उनको एक में मिला दिया जाय तो भाषोत्पत्ति जैसे जटिल प्रश्न का सहज समाधान निकल आयेगा। इस सिद्धान्त को मिश्रित सिद्धान्त भी कहते हैं।
भाषा की उत्पत्ति से सम्बन्धित समन्वय सिद्धान्त अब तक के प्रतिपादित समस्त सिद्धान्तों से तर्कसंगत लगता है, क्योंकि इसमें समस्त सिद्धान्तों के सार तत्त्व का समन्वय हुआ है।अत: जब कोई अकेला तर्कपूर्ण एवं वैज्ञानिक सिद्धान्त प्रकाश में आता तब तक यही सिद्धान्त स्वीकार किया जाना चाहिए।


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