ये क्या है ? पिछले तीन सप्ताह से सारा पहाड़ी इलाका मुस्लाधार वर्षा की मार झेल रहा है। धुंध ही धुंध। कई स्थान आपदाग्रस्त हो गए। कहीं आकाशीय बिजली गिरी,
ये क्या है ?
पिछले तीन सप्ताह से सारा पहाड़ी इलाका मुस्लाधार वर्षा की मार झेल रहा है। धुंध ही धुंध। कई स्थान आपदाग्रस्त हो गए। कहीं आकाशीय बिजली गिरी, कहीं पहाड़ खिसक गये। अन्य स्थान पर उफन्ती नदी नाले घर, मकान, खेत, बस्ती, पशु पेड़ बहा ले गये। समान्य जीवन अस्त व्यस्त हो गया। सरकार और सरकारी मेहकमे हरकत में आ गये।
मंत्री जी, हवाई मार्ग से आपदा ग्रस्त इलाके का मुआयना कर आये। सहायता की घोषणा, आपदा के कारणों की संगोष्टि, वैज्ञानिकों, समजविदो, अर्थशास्त्र ज्ञाता, स्वास्थ्य रक्षकों ने भविष्य में आपदा प्रबंधन के उपाय पर सुझाव दिये। सांत्वना, सहानभूति और समय का खेल, प्रकृति की नाराज़गी, मानव की भूल पर लेख का पठन पाठन हो रहा है। कुल मिला कर बरसात में टी वी चैनल, रील, यू ट्यूब आदि के लिए बढ़ा हुआ कार्य, रिपोर्टर की कुशल वाक् चातुर्य का बखान। न्यूज़ ऐंकर का बढ़ता दुःख व गुस्सा, ऊँचे स्वर के साथ प्रदर्शित हो रहा है। दर्शकों को घर बैठे बैठे चर्चा में सम्मलित होना स्वभाविक है। सब का अपना दृष्टिकोण्ड है।
‘कूल ब्रीज़’ होटल में कार्यरत नौजवान अपने अपने गाँव पहाड़ के हालात देख परेशान हैं। दसवीं बारहवीं कर के शहर आ गए। होटल में काम मिल जाता है। कहने को पगार मिलती है। मोबाइल चार्ज हो जाये यही बहुत है। घर वापस जा नहीं सकते, एक ओर नौकरी की मजबूरी दूसरी ओर मौसम और सड़क बेहाल है।
पहले “कूल ब्रीज़” एक छोटा सा घर था। नविनी करण के बाद एक तीन मंजला, एक दशक पुराना होटल है। अब सुविधा युक्त होटल है। गर्म पानी, ए सी, पंखा, स्पा, ज़क्यूज़ी, गेम ज़ोन, जिम, पूल, कैफे, डांस फ्लोर सब उपलब्ध है। मेहमान को पहाड़ का दृश्य, पहाड़ का सुकून और सब सुविधा चाहिए।
पेड़ उखाड़, सामने के ढलान की जमीन को सम्तल कर बड़ा सा आंगन बनाया गया है। आंगन, गाड़ी खड़ी करने को, कभी कभार नाच गाने और ‘बॉन फायर’ के आनंद लेने के लिए बनाया गया है। यहाँ से सूर्यास्त देखना एक विचित्र, अनोखा, अद्भुत अनुभव है।
लम्बा सप्ताहन्त था, स्वतंत्रता दिवस, कृष्णाष्टमी, रविवार, एक लम्बी छुट्टी। खराब मौसम का सामना कर कुछ यात्री घूमने आ गए। काम करते करते होटल कर्मचारी थक गये।सोमवार भी काम समेटने में निकल गया। मेहमानों ने मौज करी, कर्मचारी भागते दौड़ते थक गए।
मंगलवार को कुछ चैन आया।
“शायद इस वर्ष वर्षा रुके ही ना।”
“पड़ोसी दुश्मन देश ने बादल बीज भेज कर इतना पानी गिराया है।”
“फिजूल की बात, वो स्वयं इस त्रासदी से जूझ रहे हैं।”
“अरे, बाहर देखो, पर्दा हटाओ। वाह! क्या धूप निकली है। चिड़िया चह, चहा रही है।”
“चलो, थोड़ी धूप शरीर में लगा लें। ये सिले गीले कपड़े रजाई, कम्बल भी धूप में डाल दो।”
“पहले ये चीकट तौलिये डाल।”
“ज्यादा मत डालना, अभी बारिश शुरू हो जायेगी, उठा कर भागना पड़ेगा।”
कपड़े रेलिंग पर डाल, युवा कर्मचारी वहीं खड़े रह गए।
पुश्ते के नीचे वाली सड़क की रेलिंग पर फैली बड़े बड़े पत्ते की बेल देख उन का मन स्वता: ही हर्षित हो गया। गाँव का बचपन याद आ गया।
“देख कितनी लंबी काकड़ी की बेल।”
“काकड़ी? देख कद्दू है।”
“फूल पर ध्यान दे।”
“फूल? फूल कहाँ दिख रहे?”
“का..क..डी है, पत्ते पर ध्यान दे। ओ, नहीं, कद्दू का कोना नहीं होता, गोल रहता है।”
“तूने कद्दू की बेल नहीं देखी, वो ज़मीन पर रहती है, रेलिंग पर नहीं आती।”
“ये मीठा कद्दू है, लौकी जैसा।”
“ईकुश, इस्कुश है।”
“विदेश में बहुत मेहंगा होता है, सिंगापुर में शेफ का काम करते हैं मामा, उन्होंने ने बताया।”
“मीट के साथ मस्त, स्वाद बनता है।”
“नहीं काकडी है।”
“मिठा करेला है।”
“मिठा करेला? ककोडा, कभी नहीं।”
“तू ने प्रोजेक्ट, हेर्बरियम नहीं बनाया टेंथ में?”
“तू ने सब्ज़ी नी उगाई घर में? ककोडा ककड़ी नज़र आ रही? मक्की तोरी नी दिख रही? लौकी बोल।”
“भाई मज़ाक मत बना गया, नी रही याद, क्या हो गया?”
“चूप, कैसा गाँव वाला है? बेल नहीं पहचान सकता?”
“इसकू है, बबूगोस जैसा। दादी भात के साथ बनाती है।”
“ये बेल ऊपर जा रही, कितने ऊपर जाती है। फैल कर डिनोसौर बन जाती है। लंगूर भी आधा खा कर फेंक देते है।”
“हम फुटबाल खेलते हैं, गिरे इस्कुष से।”
“काश, काकडी बेल होती तो खा लेते।”
मैनेजर खरखुला की नज़र बतियाते कर्मचारियों पर पड़ी
“आओ रूम २०२४ से २०२७ तक साफ करो।”
“कपड़े अंदर करो, वो देखो बारिश घाटी से आ रही।”
टप, टप, धर, धड़, धड़, बेल फिर बारिश सहने लगी।
- मधु मेहरोत्रा


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