मालकिन | हिन्दी कहानी

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मालकिन गट्टानीजी इलाके के प्रसिद्ध व्ययसायी हैं। सम्माननीय है । सुबह सैर को निकलते हैं। सफेद कुर्ते पाजामे के आरामदायी लिबास में छड़ी लिये हवाखाते दूर

मालकिन


ट्टानीजी इलाके के प्रसिद्ध व्ययसायी हैं। सम्माननीय है । सुबह सैर को निकलते हैं। सफेद कुर्ते पाजामे के आरामदायी लिबास में छड़ी लिये हवाखाते दूर तक निकल जाते हैं। रास्ते में लोगों से कुशलक्षेम बतियाते,छोटों पर स्नेहसुधा लुटाते, प्रसन्नमन घर लौटते हैं। आज लौटते हुये  देखा, वर्माजी के घर के दरवाजे पर खड़ी एक सुंदर महिला अखबार वाले से कुछ बात कर रही हेै। श्रीमती वर्मा ही होंगी। बहुत दिनो से वर्माजी से मुलाकात भी नहीं हुई थी। सो वे छड़ी ठकठकाते हुये पहुँच गये वर्माजी के घर।

उन्हें देखते ही महिला ने उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उन्होंने प्रत्यिुत्तर दिया। बोले.....वर्माजी हेैंं?
बोली...वे भी टहलने ही गये हेैंं। आते ही होंगे। 
बता दीजियेगा...मैं आया था।
अरे आप बैठिये न। वह आ ही रहे होंगे। 
 मैं फिर आ जाऊंगा।
नहीं सर,उन्हें पता चलेगा कि आप दरवाजे से लौट गये, तो बहुत नाराज होंगे। प्लीज, बैठिये न।
सामने बरामदे में बेंत की आरामदायक कुर्सियाँ रखी थीं। गट्टानीजी एक कुर्सी पर बैठ गये। बोले...आप क्यों खड़ी हैं आप भी बैठिये न।
महिला बोली... पहले आपके लिये चाय बनाकर लाती हूँ। 
अरे बैठिये। चाय मैं पीता ही नहीं । काढ़ा पीता हूँ। 
 महिला बैठी...सबेरे सबेरे काढ़ा। किस चीज का ?
यह तो मैं नहीं बता सकता। पत्नी देती हैं, मैं पी लेता हूँ। अभी भी बना कर रखी होगी।
अरे आप मेरे हाथ की चाय पीकर तो देखिये। काढ़ा वाढ़ा सब भूल जायेंगे। वर्माजी तो मेरी चाय के दीवाने हैं।
तब तो मुझे बिल्कुल नहीं पीना है.....गट्टानीजी हँसकर बोले।
महिला भी हँसने लगी.... ”आपको कौन दीवाना बना सकता हैं सर। हाँ, मैं सबसे शान दिखा सकती हूँ कि मैंने गट्टानीसर को चाय पिलाई।“ महिला विस्तार से बताने लगी कि उसकी चाय में क्या क्या मसाले होते है, जो आदमी को दिनभर तरोताजा रखते हैं।
आखिर गट्टानीजी बोले...जरूर आऊंगा भाई आपकी चाय पीने। अभी तो आप एक गिलास पानी पिला दीजिये।
महिला उठने लगी। गट्टानीजी ने देखा...घर के भीतर जानेवाले दरवाजे की ओट से एक स्त्री उन्हें देखे जा रही हेै। उसे बोले....बाई, एक गिलास पानी लाना। पानी जरा गुनगुना कर लेना।
महिला उठने लगी। गट्टानीजी बोले...अरे आप कहाँ जा रही हैं। बाई ला देगी पानी।
महिला असमंजस में दिखी। गट्टानीजी बोले.....अरे भाई, बाई किस दिन के लिये है। वह ले आयेगी।
महिला के अब बोल फूटे...बाई तो मैं ही हूँ जी।
गट्टानीजी आसमान से गिरे.....तुम बाई हो तो मालकिन कौन है?
महिला ने ओट से झाँकती स्त्री की ओर ईशारा किया...”वो हैं जी।“
गट्टानीजी उठ खड़े हुये.. तो मैं इतनी देर से घर की नौेकरानी से बात कर रहा था। उन्होंने तर्जनी से ईशारा किया....इधर आईये श्रीमती वर्मां।
सहमी हुई श्रीमती वर्मा सामने आईं।

मालकिन
गट्टानीजी की बमबारी शुरू...ऐसी होती हैं,घर की मालकिन। घर आये मेहमान से नौकरानी चबड़ चबड़ बतियाये जा रही है। घर मालकिन दूर खड़ी ओट से ताक रही है। यही है आपकी मेहमाननवाजी।

श्रीमती वर्मा किसी तरह बोलीं.....असल में उसे कुछ ज्यादा ही बोलने की आदत है सर।
उसकी आदत जैसी भी हो। घर की मालकिन कौन है?
श्रीमती वर्मा को रोना आने लगा।

बैठिये श्रीमती वर्मा...गट्टानीजी नम्र हुये। खुद भी बैठे। कहने लगे...श्रीमती वर्मा मैं एक व्ययसायी हूँ। फैला हुआ है मेरा कारोबार। सैकड़ों कर्मचारी हैं मेरे संस्थानों में। बोझा ढोनेवाले से लेकर ऑफिस की कुर्सी पर बैठनेवाले। हुक्म माननेवाले से लेकर हुक्म चलानेवाले। सब खुलकर बातें करते हैं। ग्राहक हो, चाहे अतिथि,चाहे एजेंट। चाहे दूसरे व्ययसायी। लेकिन मर्यादा में रहकर। कामगार अपने ऊपर के अधिकारी की अवहेलना नहीं कर सकतां। अधिकारी अपने से ऊपर की अवहेलना नहीं कर सकता। और मेरी तो कोई अवहेलना कर ही नहीं सकता। मेरे कुछ सहपाठी भी काम करते हैं, मेरे संस्थानों में। मगर संस्थानों में वे कर्मचारी की तरह पेश आते हैं। मालिक की एक ”गरिमा“ होती है। गरिमा ऐसे ही नहीं होती। मुझे पूरी खबर होती है, कहाँ किस चीज की कमी है, कहाँ बेशी। कौन माल कहाँ से मँगवाना है, कहाँ भिजवाना है। कौन कर्मचारी चुस्त है, कौन सुस्त। किसको ईनाम देना है, किसको ताड़ना। यानी प्रबंधन से लेकर, अनुशासन,सब पर मेरी नजर। जब दोनो दुरुस्त हो, तब होता है, शासन। ऐसा शासन करने वाला होता है मालिक। ”घर“ भी एक संस्था हेै श्रीमती वर्मां। 

घर की मालकिन को घर के हर कोने, हर हलचल पर नजर रखनी होती है। साफ सफाई तो देखनी ही होती हेै, देखना होता है कहाँ किस चीज की कमी है। कहाँ बेशी। किचन में आटा दाल से लेकर पापड़,बड़ी। जीरा,घनिया। कम हों, तो लाना है। खराब हो रहे हों तो धूप दिखानी है। बैठक में सोफेकवर,पर्दे बदलवाने हैं। सजावट की चीजों की धूल झाड़नी है। शयनकक्ष में चादरें तकिये के गिलाफ धुलवाने हैं। बाथरूम में टब,मग, बाल्टियाँ,साबुन, तौलिया, पानी ठीकठाक हैं कि नहीं।नहीं हैं तो करो। कराओ। ठंड आ गई तो गरम कपड़े निकालो, चली गई है,तो सहेजकर रखो। पेड़ पौधे हों तो उनकी देखभाल। पढ़ने वाले बच्चे हैं, तो पढ़ने में कैसे हैं। खेलकूद में, सामान्य व्यवहार में कैसे हैं। कहाँ सुधारने की जरूरत है, कहाँ ताड़ने की। घर का बजट। पतिदेव का मूड। निभाना तो है। निभाना रिश्तेदारों से भी। मित्रों, पड़ोसियों, परिचितों से भी। 

किसका कितना मानदान करना है। अवांछनीय तत्वों से कैसे बचाना घर को। सबसे बड़ी बात। घर परिवार का मुख्य ऊर्जा स्रोत, ”घर का पूजास्थल।“ इसकी सेवा तो खुद ही करनी है। पूरी लगन से। देवता ऐसे ही प्रसन्न नहीं होते। फिर घर परिवार सबकी सेवा के बाद अपनी भी सेवा। सो स्वास्थ्य, सौंदर्य, सुरुचि,श्रंृगाार,  खुद का भी। हजार मोर्चो पर जूझती हेै महिला। तब बनती है मालकिन। सफल मालकिन हो तो कहलाती है गृहणी। गृहणी में अगर श्रेष्ठतर मानवीय संवेदनाओ के हीरे मोती भी हों तो घर स्वर्ग सा चमकता है और गृहणी कहलाती है गृहलक्ष्मी। समझ रही हैं.....
जी...

जी क्या?.गृहलक्ष्मियाँ तो समझो स्वर्णिम अतीत की बातें। अभी तो आप घर की मालकिन बनकर ही दिखाईये। अगली बार आउंगा तो देखूंगा आपका हाल।

गट्टानीजी  छड़ी ठकठकाते चले गये।

श्रीमती वर्मा सिर पकड़कर बैठ गई। माँबाप की दुलारी। हर परेशानी से बचाया बेटी को। छोटे मोटे अफसर वर्माजी ने बढ़िया डिग्री देखी। शादी कर ली कि पत्नी भी छोटी मोटी अफसर हो ही जायेगी। पति पत्नी दोनो अफसर। रहेगा समाज में रौब। धमक। इसी धमक के लिये न माँबाप ने दुनियाभर की कोचिंग दिलवाई। पति ने दौड़ धूप की।। सो पत्नी भी दिनभर पढ़ती, तैयारी करती रहती हेै। यहाँ घर में पत्ता साफ। बाईयों का राज। बाईयाँ कर रही हैं वर्माजी के साथ खूब खी...खी....ठी....ठी...। कचौड़ी बनाकर खिला रही हेैंं, खा रही हेैंं। कृपाकर उनके कमरे में लाकर दे रही हैं।  श्रीमती वर्मा न डाँट सकतीं, न रोक सकतीं, न लड सकतीं।  यह गट्टानीजी से चबड़ चबड़ बतियाने वाली तो है ही आधी मालकिन सी। कपड़े धोनेवाली और चौका बर्तनवाली तो जब सजधजकर,झमाझम करती आती हेैं, तो श्रीमती वर्मा डरकर शयनकक्ष में घुस मुँह ढाँपकर सो जाती हैं। जबसे ये सरकार की सिरचढ़ी लाड़लियें बनी हैं, सब सहमते हैैं। अभी वर्माजी की विशेष प्रिय, इसी आधी मालकिन सी, को निकालने की सोचने लगीं हैं तो उनके हाथपाँव ठंडे होने लगे हैं। कहीं इज्जत न उतार ले....।

सही मे नौकरी भले मिल जाये“घर की मालकिन“ होना मजाक नहीं है।


- शुभदा मिश्र
14,पटेलवार्ड, डोंगरगढ़

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