ज्योतिष की प्रमुख अवधारणा तिथि

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तिथि भारतीय पंचांग का एक प्रमुख अंग है। इसे भारतीय ज्योतिष की एक महत्वपूर्ण अवधारणा माना गया है और शरीर कि संज्ञा दी गयी है। सनातन परम्परा के लगभग सभी

ज्योतिष की प्रमुख अवधारणा तिथि

 

तरेय ब्राह्मण में तिथि शब्द की व्याख्या में कहा गया है कि-

यां पर्यस्तमियादभ्युदियादिति सा तिथिः।(7.11)

(अर्थात् जिस काल विशेष में चन्द्रमा का उदय अस्त होता है उसको तिथि कहते हैं।)

भारतीय वैदिक परम्परा में ज्योतिष विज्ञान का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है। पंचाग को ज्योतिष की आत्मा कहा जा सकता है। पंचांग से तात्पर्य ज्योतिष के पांच अंगो से होता है और ये हैं...

1.तिथि  2.वार  3.नक्षत्र  4.योग  5.करण

 

ज्योतिष की प्रमुख अवधारणा तिथि
तिथि भारतीय पंचांग का एक प्रमुख अंग है। इसे भारतीय ज्योतिष की एक महत्वपूर्ण अवधारणा माना गया है और शरीर कि संज्ञा दी गयी है। सनातन परम्परा के लगभग सभी त्यौहारपर्वव्रतपूजा मुहुर्त इत्यादि चंद्र्मा की स्थिति और गति पर आधारित हैं। वैदिक ज्योतिष में चंद्रमा को जल का अधिपति ग्रह बताया गया है। चंद्रमा मन का कारक ग्रह भी है इस प्रकार जातक के मन पर इसका स्पष्ट प्रभाव पडता है। तिथी के निर्धारण में चंद्रमा की उल्लेखनीय भूमिका होती है। तिथि को जल तत्व बताया गया है और इसके कारक ग्रह शुक्र होते हैं। वैदिक ज्योतिष के अनुसार जल तत्व के अधिपति ग्रह चंद्रमा बताये गये हैं। इस प्रकार जल तत्व होने के कारण तिथि पर शुक्र और चंद्र के प्रभाव से इनकार नही किया जा सकता है। जिस प्रकार सूर्य को हमारा तन बताया गया है, ठीक उसी प्रकार चंद्रमा हमारा मन है। हमारे शरीर में मन ही तो है तो समस्त प्रकार के क्रियाकलापोँ के लिए उत्तरदायी है। सम्भवत: यही कारण है कि पंचांग के पांच अंगोँ में से तिथि तो इतना महत्व दिया गया है। जन्म कुंडली देखने परतिथि का स्वामी जल होता है और यह शुक्र से जुडा है। यह भौतिक सुख सुविधाकाम वासना और इच्छाओं से जुड़ी चीज़ों को भी दर्शाता है। किसी भी जातक की जन्मपत्रिका के अध्य्यन की शुरुआत सदैव ही उसके जन्म समय के पंचांग के अध्य्यन से की जानी चाहिए। जिसमेँ तिथि सबसे प्रमुख घटक होती है। अब इस तिथि के स्वामी की जनम कुंडली में स्थिति का अध्य्यन करेँ। तिथि का स्वामी ग्रह यदि जातक की पत्रिका में बली होकर बैठा है तब सम्बंधरिश्ते सामन्य और सहज होते हैं। और यदि इसके विपरीत तिथि स्वामी निर्बल है तो रिश्तोँ में तनाव देखने को मिलता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि तिथि रिश्तों के प्रति जातक के दृष्टिकोण को दर्शाती है।


तैत्तिरीय ब्राह्मण में हमें उल्लेख मिलता है...

चन्द्रमा वै पञ्चदशः। एष हि पञ्चदश्यामपक्षीयते। पञ्चदश्यामापूर्यते॥(1/5/10)

 इस प्रकार के कथन से पञ्चदशी शब्द के द्वारा प्रतिपदा आदि तिथियों की भी गणना की सम्भावना दिखाई देती है। इसी प्रकार सामविधान ब्राह्मण में भी कृष्णचतुर्दशीकृष्णपञ्चमीशुक्ल चतुर्दशी का भी उल्लेख प्राप्त होता है। वेदों में तिथि के अर्थ में अहन् या दिन शब्द का प्रयोग है।

 

शास्त्रोँ में दो प्रकार की तिथियोँ का उल्लेख मिलता है। पहली तो है सौर तिथि एवं दूसरी चन्द्र तिथि

सौर तिथि:- सौर तिथि में सूर्य का राशि भ्रमण का मुख्य कारण माना गया है। सौर तिथि दो प्रकार से मानी जाती है। पहली वह जिस दिन सूर्य की संक्रांति लगती है उसे प्रथमा तिथि माना जाये। द्वितीय प्रकार में संक्रान्ति के दूसरे दिन से प्रथमा तिथि माना जाय। बंगाल एवं पंजाब में इन तिथियों का प्रयोग विशेष रूप से होता है। अन्यत्र भी सौर तिथि के नाम से इनका प्रचलन है। परंतु हमारे देश में प्रचलित व्रतों एवं उत्सव आदि में इन तिथियों का प्रयोग प्रायः कम ही होता हैऔर चंद्र तिथियोँ का प्रयोग किया जाता है।


चान्द्र तिथि- चंद्रमा की गति पर आधारित मान्य तिथि को चन्द्र तिथि कहते हैं। वसिष्ठ संहिताकार ने इस प्रकार कहा है-

सूर्यान्निर्गत्य यत्प्राचीं शशी याति दिने-दिने। लिप्तादिसाम्ये सूर्येन्दुं तिथ्यन्तेऽर्कांशकैस्तिथिः॥

(अर्थात् गत्यन्तर वश सूर्य से पूर्व दिशा की ओर चन्द्रमा जैसे-जैसे बढता है वैसे-वैसे तिथियों की उत्पत्ति होती है तथा अमावस्या तिथि में सूर्य चन्द्रमा का राशिअंशकला और विकलादि साम्य हो जाता है तथा पुनः दोनों के बीच अमावस्या से आगे यह अन्तर हमेशा 12-12 अंश के अन्तर से बढता हुआ चान्द्रमास पर्यन्त तिथि चक्र को पूर्ण करता है।)


इसी प्रकार सूर्यसिद्धान्त ग्रन्थ में भी तिथि को सैद्धान्तिक रूप से इस प्रकार परिभाषित किया है -

अर्काद्विनिसृतः प्राचीं यद्यात्यहरहः शशी। तच्चान्द्रमानमंशैस्तु ज्ञेया द्वादशभिस्तिथिः॥

(अर्थात् अमावस्या को सूर्य तथा चन्द्रमा के राशि-अंश-कला-विकला आदि (भोगांशादि) समान हो जाते हैंफिर चन्द्रमा सूर्य को छोडकर प्रतिदिन पूर्व दिशा में 12 अंश बढता हैउतनी देर में एक तिथि होती है।)


भारतीय तीज त्यौहारोँ और धार्मिक कार्यों में विशेष रूप से चन्द्र तिथियों का प्रयोग किया जाता है। सूर्य और चंद्र के भोगांश के अंतर के आधार पर इसका निर्धारण किया जाता है। इस प्रकार इनके भोगांश का अंतर यदि 0 अंश होता है तब अमावस्या, 0-12 अंश होने पर प्रतिपदा और इस प्रकार आगे बढते हुए 168-180 अंश पर चतुर्दषी और ठीक 180 अंश पर पूर्णिमा तिथि पडती है। चन्द्रमा की एक कला को एक तिथि बताया गया है। अमावस्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियों को शुक्लपक्ष की तिथियाँ और पूर्णिमा से लेकर अमावस्या तक की तिथियों को कृष्ण पक्ष की तिथियाँ कहते हैं। तिथियाँ इस प्रकार होती है :


1. प्रतिपदा, 2. द्वितीया , 3. तृतीया, 4. चतुर्थी, 5. पँचमी, 6. षष्ठी, 7. सप्तमी, 8. अष्टमी, 9. नवमी, 10. दशमी, 11. एकादशी, 12. द्वादशी, 13. त्रयोदशी, 14. चतुर्दशी, 15/30 पूर्णिमा अथवा अमावस्या।


ज्योतिषशास्त्र में समग्र तिथियों की क्रमशः नन्दा आदि पाँच भागों में विभाजित किया गया हैं-

नन्दा च भद्रा जया च रिक्ता पूर्णेति तिथ्यो अशुभमध्यशस्ताः।

सिते असिते शस्तसमाधमाः स्युः सितज्ञभौमार्किगुरौ च सिद्धाः॥(मु०चि०)

नन्दाभद्राजयारिक्ता और पूर्णा संज्ञक।


नन्दा तिथि- प्रतिपदाषष्ठीऔर एकादशी(1,6,11)

भद्रा तिथि- द्वितीयासप्तमी और द्वादशी, (2,7,12)

जया तिथि- तृतीयाअष्टमी और त्रयोदशी, (3,8,13)

रिक्ता तिथि- चतुर्थीनवमी और चतुर्दशी(4,9,14)

पूर्णा तिथि- पञ्चमीदशमीपूर्णिमा और अमावस्या(5,10,15/30)


चन्द्रमा के बल का आकलन उस पर पडने वाले सूर्य के प्रकाश के आधार पर किया जाता है। जब चंद्र्मा पर सूर्य का पूरा पूरा प्रकाश पडता है उस स्थिति को पूर्णिमा कहते हैं और इस दिन चंद्रमा पूर्ण बली होता है। अर्थात जब चंद्र और सूर्य के बीच का कोणीय अंतर 180 अंश का होता है अथवा 6 राशि के बराबर का होता है। शुक्लपक्ष में प्रतिपदा से पंचमी तक चन्द्रमा के क्षीण होने के कारण प्रथम आवृति की नंदा आदि तिथियाँ (1,2,3,4,5) अशुभषष्ठी से दशमी तक चन्द्रमा के मध्यम (न पूर्णन क्षीण) होने से द्वितीय आवृत्ति की नन्दा आदि तिथियाँ (6,7,8,9,10) मध्य और इसी भाँति तृतीय आवृत्ति की नन्दा आदि (11,12,13,14,15/30) तिथियाँ चन्द्रमा के पूर्ण होने के कारण शुभ कही गईं हैं। इसी प्रकार कृष्णपक्ष में प्रथम आवृति की तिथियाँ शुभ द्वितीय आवृति की तिथियाँ मध्यऔर तृतीय आवृति की तिथियाँ चन्द्रमा के क्षीण होने के कारण अशुभ मानी गईं हैं।

 

तिथि संज्ञा

प्रथम आवृत्ति

द्वितीय आवृत्ति

तृतीय आवृत्ति

नन्दा

1

6

11

भद्रा

2

7

12

जया

3

8

13

रिक्ता

4

9

14

पूर्ण

5

10

15,30

शुक्लपक्ष में

अशुभ

मध्य

शुभ

कृष्णपक्ष में

शुभ

मध्य

अशुभ

 

सूर्य एवं चन्द्रमा जिस दिन एक बिन्दु पर आ जाते हैं उस तिथि को अमावस्या कहते हैं। उस दिन सूर्य और चन्द्रमा का गति अन्तर शून्य अक्षांश होता है।


दर्शः सूर्येन्दु संगमः।


(अर्थात सूर्य और चन्द्र के संगम को दर्श (अमावस्या) कहते हैं।) वसिष्ठ संहिता में इसी बात को श्लोकबद्ध किया गया है-


सूर्यान्निर्गत्य यत्प्राचीं शशी याति दिने-दिने। लिप्तादिसाम्ये सूर्येन्दु तिथ्यन्तेऽर्कांशकैस्तिथिः॥


(अर्थात सूर्य से बाहर निकल कर चंद्रमा जैसे जैसे पूर्व दिशा की ओर बढता है वैसे-वैसे तिथि बढती है। अमावस्या तिथि में दोनों के बीच राशिअंश और कला का साम्य होता है।) 

 

आइये अब यह समझने क प्रयास करते हैं कि तिथि के माध्यम से किन किन विषय वस्तु पर प्रकाश डाला जा सकता है। वैदिक ज्योतिष में तिथि के माध्यम से


1.      सामान्य फल कथन

2.      मुहुर्त जैसे व्रत पर्व निर्धारणजनमदिवसविवाहयात्रावैवाहिक वर्षगांठपुण्य तिथिइत्यादि।

3.      वार्षिक भविष्य फल बेहद ही सटीकता के साथ बतलाये जा सकते हैं।

 

सामान्य फल कथन के अंतर्गत हम जातक का व्यवहारउसकी भावनायेँ और उसके सोच विचार को भली प्रकार से समझ सकते हैं। तिथि पंचांग का भावनात्मक अंग है। तिथि दर्शाती है कि आप भावनात्मक स्तर पर चीजों को कैसे समझेंगे। उदाहरण के लिएपूर्णिमा तिथि पर सूर्य और चंद्रमा परस्पर दृष्टि में होते हैंइसलिए चंद्रमा को सूर्य का पूरा प्रकाश मिल रहा होता है और इसलिए पूर्णिमा तिथि को जन्मे जातक में भाव्नात्मक लगाव पाया जाता है जिससे वे सामने वाले की भावनाओं को अच्छी तरह समझ पाते हैं और उसके अनुसार कार्य कर पाते हैं। लेकिन अमावस्या तिथि वाले जातकोँ में इसका अभाव पाया जाता हैजहाँ चंद्रमा को बहुत कम या बिल्कुल भी प्रकाश नहीं मिलता। अब जहाँ तक जातक के व्यवहार का प्रश्न है तो इसे हम जातक के जन्मतिथि से आसानी से समझ सकते हैं। हम जानते हैं कि प्रत्येक तिथि के एक स्वामी होते हैं। उदाहरण स्वरूप माना किसी जातक का जन्म तृतीया का है। हमें ज्ञात है कि तृतीया तिथि का स्वामी ग्रह मंगल है। तब हम कह सकते हैं कि ऐस जातक भावुक होने के साथ साथ पराक्रमी होगा। उसके पराक्रम और शौर्य का सभी लोहा मानेंगेँ। ऐसे जातक ऊर्जा से भरपूर रहते हैं और सदैव ही कार्य करने के प्रति आतुर रहते हैं। तृतीया तिथि चुंकि जया के अंतर्गत आती है अत: ऐसा जातक सदैव जय प्राप्त करता है। अब यहाँ एक तथ्य पर और प्रकाश डालना चाहुंगा और वह है शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष का भेद। अब यदि जातक का जन्म शुक्ल पक्ष तृतीया का है तब निश्चित रूप से इस स्थिति में सूर्य का बहुत ही कम प्रकाश चंद्र पर पडेगा क्युंकि यह अमावस्या के बाद की तिथि होगी। हम जानते हैं कि चंद्र मन का कारक है तो यह कहा जा सकता है कि ऐसा जातक अपनी बातेँ स्पष्ट रूप में नही कह पायेगा। वहीँ दूसरी ओर यदि जन्म कृष्ण पक्ष का है तब ऐसे जातक पर पूर्णिमा के बाद घटते चंद्र का प्रभाव पडेगा और वह काफी हद तक अपनी बातेँ और निर्णय सभी के समक्ष रखने में सक्षम होता है।

 

तिथि का दूसरा महत्वपूर्ण उपयोग विभिन्न प्रकार के मुहुर्त की गणनाओँ में होता है। भारतीय समाज में जातक के जन्म से लेकर मृत्यु तक अर्थात गर्भाघान से लेकर अंत्येष्टि संस्कार तक के समस्त संस्कारोँ को षोडष संस्कार के रूप में जाना जाता है। इन षोडश संस्कारोँ के अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार के मुहुर्त दैनिक जीवन में उपयोग में लाये जाते हैं जैसे यात्राउद्घाटनमकान क्रय करनागृह प्रवेशनया कार्य प्ररम्भ करना इत्यादि। इन सभी प्रकार के मुहुर्त के निर्धारण में तिथि का बेहद ही महत्वपूर्ण स्थान है।  वराहमिहिर प्रत्येक तिथि को एक देवता से जोड़ते हैं। देवता के अर्थ को समझने से प्रत्येक तिथि का गहरा अर्थ भी समझ में आएगाताकि मुहूर्त में उसका बेहतर उपयोग किया जा सके।


तिथीशा वह्निकौ गौरी गणेशोऽहिर्गुहो रविः।

शिवो दुर्गान्तको विश्वे हरिः कामः शिवः शशी॥ (मुहू०चिन्ता०१/३)                                

(इस श्लोक के अनुसार प्रत्येक तिथियों के अलग-अलग स्वामी कहे गये हैं। जैसे - प्रतिपदा - अग्निद्वितीया- ब्रह्मातृतीया - गौरीचतुर्थी - गणेशपंचमी - सर्पषष्ठी - कार्तिकेयसप्तमी - सूर्यअष्टमी - शिवनवमी - दुर्गादशमी - यमएकादशी - विश्वेदेवद्वादशी - विष्णुत्रयोदशी - कामदेवचतुर्दशी - शिवपूर्णिमा - चन्द्रमा और अमावस्या के स्वामी पितर कहे गये हैं।)

 

तिथियों का शासन सप्ताह के दिनों पर आधारित होता हैरविवार (सूर्य) प्रथमा तिथि का स्वामी हैसोमवार (चंद्रमा) द्वितीया तिथि का स्वामी हैमंगलवार (मंगल) तृतीया तिथि का स्वामी हैबुधवार (बुध) चतुर्थी तिथि का स्वामी हैआदि।

 

ग्रह

सूर्य

चंद्र

मंगल

बुध

गुरु

शुक्र

शनि

राहु

तिथि

19

2, 10

3, 11

4, 12

5, 13

6, 14

7, 15

8, 30

 

एकादशी का व्रत करने से क्रोध पर काबू पाया जा सकता हैक्योंकि मंगल ग्रह क्रोध देने वाला ग्रह होने के साथ साथ एकादशी का स्वामी भी है। इस प्रकार एकादशी में जन्मा जातक गुस्सैल प्रवृत्ति का होता हैजिसका समाधान एकादशी उपवास बताया गया है। अष्टमी तिथि पर राहू का शासन होने से जातक के अंदर राहू के गुण जैसे धोखा देनाछल, कपट इत्यादि आते हैं। अष्टमी का व्रत करने से आप कभी किसी को धोखा नहीं देंगेइसलिए आपको धोखा नहीं मिलेगा। इसे इस प्रकार से समझा जा सकता है कि छलकपटधोखा इत्यादि राहु के कारकत्व बताये गये हैं। और यदि जातक अष्टमी में जन्मा है तब उसमेँ इन गुणोँ का समावेश सम्भव है। पूर्णिमा का व्रत करने से आपको सत्य की प्राप्ति होगी क्योंकि यह शनि के नकारात्मक प्रभावों को दूर करता है। तृतीया तिथि मंगल द्वारा शासित हैलेकिन चूँकि यह जया (आकाश/बृहस्पति द्वारा शासित) हैइसलिए यह दो लोगों को एक साथ लाएगीक्योंकि आकाश एक बंधनकारी शक्ति है (जो जीव को शरीर में रखती है)। एकादशी तिथि (ग्यारहवीं) मंगल द्वारा शासित है और यह नंदा (अग्नि-मंगल द्वारा शासित) हैइसलिए लड़ाई बहुत प्रबल होती है। मंगल भावुकऊर्जावान और संघर्ष उत्पन्न करने वाला होता हैयह विवाह के लिए अच्छा नहीं हैहालाँकि यह युद्ध और नेतृत्व के लिए अच्छा है।

 

वर्ष कुंडली का निर्माण और उससे फल कथन भी तिथि का एक महत्वपूर्ण अनुप्रयोग है। हम जानते हैं कि एक वर्ष का फल कथन के लिए हम वर्ष फल कुंडली का निर्माण करते हैं। एक निश्चित मास के जिस पक्ष और तिथि में जातक का जन्म होता है ठीक 12 मास बाद उसी पक्ष और तिथि के आने पर एक वर्ष पूर्ण माना जाता है। अंग्रेजी तारीख और हिंदी तिथि में कुछ दिनोँ का अंतर पाया जाना स्वाभाविक सी बात है। सुविधा और याद्दाश्त के दृष्टिकोण से जरूर हम अंग्रेजी तिथि से अपना जन्मदिन मनाते हैं पर वास्तविक रूप में जन्मदिन का आधार तिथि ही है। इस प्रकार निर्मित वर्ष कुंडली के आधार पर किया जाने वाला कथन सटीकता के काफी नजदीक होता है। जातक के आचारव्यवहारसम्बंधोँ और रिश्तोँ को निभानामानसिक स्थितिमनसुख-सुविधाभोग-विलासमाताबहिनकामवासना इत्यादि के विषय में फल कथन बताये जा सकते हैं।

 

उपरोक्त विवेचना के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि भारतीय ज्योतिष में तिथि का एक विशिष्ट स्थान है। ज्योतिष सम्बंधित किसी भी प्रकार की भविष्यवाणी करने में तिथि एक आवश्यक अवयव है।

 


 

इंजी. संजय श्रीवास्तव

बालाघाट( मध्य प्रदेश), 9425822488

 

(संदर्भ:- विभिन्न आर्ष ग्रंथोँ से प्राप्त जानकारी के आधार पर)

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