विंशोत्तरी दशा की गणना और प्रभाव दशा के परिणामों को समझने के लिए सर्वप्रथम महादशानाथ जिस राशि में स्थित होता है उसके स्वामी को देखा जाता है, यह स्थूला
दशा विवेचन
वैदिक ज्योतिष में "दशा" की अवधारणा बहुत महत्वपूर्ण है जो कि ग्रहों की विशिष्ट अवधियों को प्रदर्शित करती है। "दशा" जातक के जीवन में घटने वाली विभिन्न घटनाओं के समय का निर्धारण करती हैं। इस प्रकार ग्रहों के शुभ-अशुभ फलों की प्राप्ति होने का समय जानने के लिए कुछ विशेष दशा-पद्धतियों का उपयोग किया जाता है, उनमें से सर्वाधिक प्रचलित पद्धति है, महर्षि पाराशर द्वारा बताई गई विंशोत्तरी दशा पद्धति जो कि चन्द्र नक्षत्र पर आधारित है। इस विधि से की गई भविष्यवाणियाँ लगभग सटीक मानी जाती हैं। समय-समय पर विभिन्न ग्रहों की दशाओं का आना भाग्य का चक्र कहलाता है, जिनके अनुसार ही जातक के भविष्य का निर्धारण होता है। दशाओं का क्रम ही जातक की कुंडली को अच्छा या बुरा बनाता है, क्योंकि कुंडली में लाख अच्छे योग हों, जब तक अच्छी दशा नहीं आएगी, तब तक वे योग फलीभूत नहीं होंगे। उदाहरण के लिए यदि जातक को किशोरावस्था अथवा युवावस्था में पत्रिका के अनुसार अच्छी दशा प्राप्त हो जाए तो वह अपनी पढ़ाई और करियर के क्षेत्र में सफलताओं की प्राप्ति करता है। इसके विपरीत यदि जातक के महत्वपूर्ण वर्षों में उसे अच्छी दशा प्राप्त न हो तो लाख प्रतिभावान होने के बावजूद भी जातक जीवन में पिछड़ जाता है। एक अन्य उदाहरण के अनुसार माना कि किसी जातक की पत्रिका में द्वितीय भाव व द्वितीयेश की स्थिति बहुत अच्छी है। लेकिन इस स्थिति में भी जातक को धनलाभ तभी होगा जब उसकी द्वितीय भाव से संबंधित अच्छी दशा प्राप्त होगी। दशाओं को समझने के लिए हमारे ऋषि मुनियों ने बहुत सारे विशिष्ट सूत्र दिए हैं। जिस ग्रह की महादशा होती है, कुंडली में उस ग्रह की विवेचना करके यह जाना जाता है कि महादशा की अवधि में किस प्रकार के परिणामों की प्राप्ति होगी। इस दशा के अंतर्गत विभिन्न ग्रहों की अंतर्दशाओं में यह जाना जा सकता है कि किसी विशेष समयावधि में कौन से विशेष परिणाम प्राप्त होंगे।
दशा के परिणामों को समझने के लिए सर्वप्रथम महादशानाथ जिस राशि में स्थित होता है उसके स्वामी को देखा जाता है, यह स्थूलाधिपति कहलाता है। इसके पश्चात् महादशानाथ जिस नक्षत्र में होता है उसके स्वामी को देखा जाता है, उसे सूक्ष्माधिपति कहते हैं। इसके बाद पत्रिका में स्थूलाधिपति तथा सूक्ष्माधिपति के बीच का संबंध देखा जाता है। जैसे यदि ये दोनों एक ही राशि में स्थित है तो उस महादशा काल में उस विशेष भाव के परिणाम अत्यधिक मात्रा में प्राप्त होते हैं। यदि उनके बीच में 2-12 का संबंध हो तो धनागम तो होता है परंतु साथ-साथ अत्यधिक खर्च भी होता है। यदि उनके बीच 3-11 का संबंध हो तो जातक को लाभ तभी प्राप्त होता है जब वह अत्यधिक प्रयास करता है। यदि 4-10 का संबंध हो तो संभव है कि इस महादशा काल में जातक के जीवन में कार्यक्षेत्र अथवा निवास स्थान से संबंधित कुछ परिवर्तन हो। यदि उनके बीच में 5-9 का संबंध हो तो जातक अपनी मौज-मस्ती, अपने शौक, अपनी पढ़ाई के साथ-साथ धर्म-कर्म तथा पिता से संबंधित कार्यों में रुचि लेता है। यदि उनके बीच 6-8 का संबंध हो तो यह दशा शुभ प्रभाव देने में असमर्थ होती है, इस दशा में जातक को परेशानियों और चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। यदि उनके बीच सम-सप्तक का संबंध बन रहा हो तो इस स्थिति में जातक अक्सर सही-गलत का निर्णय नहीं कर पाता और दुविधा में रहता है। ऐसे में जातक को चाहिए कि उनमें से जो ग्रह अच्छे भाव का स्वामी हो, उसके कार्यकत्वों से संबंधित निर्णय ले। जिस भाव में महादशानाथ स्थित हो यदि उस भाव का स्वामी उस पर दृष्टि डाल दे तो वह दशा अच्छी होती है। इसके अतिरिक्त यदि स्थूलाधिपति और सूक्ष्माधिपति दोनों ही उस भाव पर दृष्टि डाल दें तो उस ग्रह की दशा राजयोगकारी हो जाती है। इसप्रकार महादशानाथ की स्थिति के द्वारा ग्रह की संपूर्ण दशा अवधि में जातक के जीवन की दिशा के बारे में मोटे तौर पर व्याख्या की जा सकती है। यहाँ पर गोचर को देखना भी जरूरी होता है।
"पाकप्रभुर्गोचरतः स्वनीचम् मौढ्यं यदायाति विपक्षभम् वा
कष्टं विदध्यात्स्वगृहं स्वतूङ्ग् वक्रं गतः सौख्यम फलं तदानीम् "
अर्थात् यदि महादशानाथ की पत्रिका में स्थिति के फलस्वरुप शुभ परिणामों की प्राप्ति होने वाली हो लेकिन किसी विशेष समय में गोचर में वही ग्रह (महादशानाथ) अस्त हो अथवा नीच राशि में अथवा शत्रु राशि में अथवा अशुभ ग्रह से दृष्ट अथवा युत हो जाए तो उस विशेष गोचर में महादशानाथ के शुभ परिणामों में कमी हो जाती है। इसके विपरीत यदि महादशानाथ पत्रिका में स्थिति के फलस्वरुप अशुभ परिणाम देने वाला हो और किसी समय गोचर में वही ग्रह (महादशानाथ) अपनी उच्च राशि अथवा स्वराशि अथवा मित्र राशि में, अथवा वक्री हो व शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट हो जाए तो उसके अशुभ परिणामों में कमी हो जाती है
परंतु महादशा की समयावधि काफी बड़ी होती है, इसलिए उसके अंतर्गत आने वाले विभिन्न ग्रहों की अंतर्दशाओं में जातक को मिलने वाले परिणामों में आमूलचूल फेर-बदल होता है। इसे जानने के लिए सर्वप्रथम महादशानाथ व अंतर्दशानाथ के बीच सहधर्मिता व संबंधों की विवेचना करना चाहिए। एक समान कार्य करने में लगे हुए ग्रह सहधर्मी कहलाते हैं। जैसे त्रिकोण (1, 5, 9) के स्वामी आपस में सहधर्मी होते हैं क्योंकि वे जातक के जीवन में उत्थान लाने व सफलताएं दिलवाने के लिए उद्यत होते हैं। उसी प्रकार केंद्र (1, 4, 7, 10) के स्वामी भी आपस में सहधर्मिता का पालन करते हैं कि उनका काम भी जातक को सफलताएँ दिलवाने का होता है। त्रिषडाय (3, 6, 11) के स्वामी भी आपस में सहधर्मिता का पालन करते हैं क्योंकि उनके स्वामी जातक के जीवन को कामनाओं से भरकर उसे प्रयत्नों के द्वारा इच्छा पूर्ति करवाने में लगा देते हैं। इसीप्रकार त्रिक स्थानों (6, 8, 12) के स्वामी भी आपस में सहधर्मिता का पालन करते हैं क्योंकि वे जातक के जीवन में रुकावटें तथा पीड़ा लाने का कार्य करते हैं। 2-11 के स्वामी भी आपस में सहधर्मी होते हैं क्योंकि वे जातक को धनलाभ की ओर उन्मुख करते हैं।इसके अतिरिक्त यदि ग्रह आपस में युति, दृष्टि या परिवर्तन योग बना रहे हों तो वे आपस में संबंधी कहलाते हैं। यदि वे एक दूसरे के नक्षत्र में हों तब भी आपस में संबंधी कहलाते हैं। यदि महादशानाथ और अंतर्दशानाथ एक दूसरे के सहधर्मी हो तथा साथ में एक दूसरे के साथ संबंध भी बना रहे हैं तो उनके तीव्र परिणाम प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए यदि महादशानाथ और अंतर्दशानाथ पत्रिका में क्रमशः पाँचवे और नौवे भाव के स्वामी हों तथा साथ में परिवर्तन योग भी बना रहे हो तो ऐसी स्थिति में जातक को उस दशा अवधि में सफलता मिलना तय होता है। लेकिन यदि महादशानाथ और अंतर्दशानाथ सहधर्मी तो हों लेकिन आपस में संबंधी न हो तो ऐसी स्थिति में परिणामों में उतनी अधिक तीव्रता नहीं होती। उदाहरण के लिए यदि महादशा नाथ और अंतर्दशा नाथ 6, 8 भाव के स्वामी हो तो उस दशा अवधि में जातक को पीड़ा की प्राप्ति होगी लेकिन यदि वे आपस में संबंधी न हो तो पीड़ा में कुछ न कुछ कमी अवश्य होगी।
सूर्य और चंद्रमा को छोड़कर प्रत्येक ग्रह दो-दो राशियों का स्वामी होते है। उदाहरण के लिए सिंह लग्न की पत्रिका में बृहस्पतिदेव पंचम तथा अष्टम भाव के स्वामी होंगे तथा शनिदेव षष्ठम और सप्तम भाव के स्वामी होंगे। यदि बृहस्पति में शनि की अंतर्दशा चल रही हो तो ऐसी स्थिति में बृहस्पति तथा शनि षष्ठम और अष्टम भाव के स्वामियों की भूमिका निभाते हुए सहधर्मिता का पालन करते हैं क्योंकि षष्ठम और अष्टम भाव दोनों त्रिक भाव में आते हैं। इसीप्रकार सिंह लग्न की पत्रिका में बृहस्पति पंचम और अष्टम भाव का स्वामी तो हैं ही तथा मंगल चतुर्थ व नवम भाव के स्वामी हैं। अतः यदि बृहस्पति में मंगल की दशा आ जाए तो ऐसी स्थिति में बृहस्पति और मंगल पंचम और नवम भाव के परिणामों को देने लगेंगे क्योंकि वह इस समय वे त्रिकोण की सहधर्मिता का पालन करेंगे।
यदि महादशानाथ और अंतर्दशानाथ आपस में विरुद्ध धर्मी हो तो सर्वप्रथम यह देखा जाता है कि उन दोनों में से कौन अधिक बली है। जो अधिक बली होता है उस दशा अवधि में उसीका प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए मकर लग्न की कुंडली में शनि लग्नेश और सूर्य अष्टमेश होता है। अतः ये दोनों विरुद्ध धर्मी हुए क्योंकि लग्नेश का कार्य जातक का उत्थान करना होता है और अष्टमेश का कार्य पीड़ा पहुँचाना होता है। यदि शनि में सूर्य अथवा सूर्य में शनि की दशा आ जाए तो ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम यह देखा जाता है कि दोनों में से कौन अधिक बली है। यदि इस स्थिति में यदि शनि अधिक बली हो या उसकी दृष्टि सूर्य पर पड़ जाए तो लग्नेश शनि, सूर्य को अपने प्रभाव में ले लेता है और जातक की वह दशा अच्छी हो जाती है। इस स्थिति में यदि शनि और सूर्य आपस में संबंधी भी हों तो शनि का प्रभाव प्रबल हो जाता है। इसके विपरीत यदि शनि (लग्नेश) की अपेक्षा सूर्य (अष्टमेश) अधिक बली हो तो शनि में सूर्य या सूर्य में शनि की दशा में जातक को पीड़ा का अनुभव होगा तथा यदि शनि व सूर्य आपस में संबंधी भी हों तो जातक को अधिक पीड़ा होगी। लेकिन यदि दोनों विरुद्ध धर्मी ग्रहों में कोई संबंध नहीं बन रहा हो तो यह देखना चाहिए कि दोनों ग्रहों की किसी विशेष भाव पर एकसाथ दृष्टि तो नहीं है। यदि ऐसा हो तो उस भाव से संबंधित बुरे परिणामों की प्राप्ति होती है। यदि विधर्मी ग्रहों के बल भी लगभग बराबर हों और वे एकसाथ किसी भाव को दृष्ट कर रहे हों तो अधिक बुरे परिणामों की प्राप्ति होती है।
इसके उपरांत महादशानाथ व अंतर्दशानाथ के नक्षत्रों को देखा जाता है। फिर महादशानाथ के नक्षत्र से अंतर्दशानाथ के नक्षत्र तक की दूरी को गिना जाता है। यदि यह अंक 9 से कम है तो उसे उतना ही रखा जाता है लेकिन यदि 9 से अधिक हो तो उसे 9 से भाग देकर शेषफल को देखा जाता है जिसे तारा कहते हैं। यदि यह अंक एक आए तो जन्म तारा, यदि दो आए तो संपत, तीन आए तो विपत, चार आए तो क्षेम, पाँच आए तो प्रत्यरि, छः आए तो साधक, सात आए तो वध, आठ आए तो मित्र और नौ आए तो आति मित्र कहलाता है। इनमें से तीन, पांच और सातवें तारे (विपत, प्रत्यरि और वध) को छोड़कर बाकी सभी अपने नाम के अनुरूप अच्छे फल देते हैं। जन्म तारा न तो बहुत अच्छे और न ही बहुत बुरे फल देता है। लेकिन केवल इतना ही देखना पर्याप्त नहीं होता, यह भी देखा जाता है कि महादशानाथ और अंतर्दशानाथ आपस में कितनी दूरी पर हैं। जैसे यदि ये दोनों एकदूसरे के साथ षडाष्टक अथवा दो-बारह का संबंध बना रहे हों तो अच्छे फलों में कमी आएगी। तत्पश्चात् सारी विवेचनाओं के अनुसार हमें उस विशेष दशा के बारे में निर्धारण करना चाहिए।
कई ज्योतिषशास्त्री मानते हैं कि जिस ग्रह की दशा हो, पत्रिका में उस ग्रह के नक्षत्र स्वामी की स्थिति को देखना चाहिए। पूरी दशा अवधि में अधिकांशतः उसी भाव के परिणाम प्राप्त होते हैं, जिस भाव में महादशानाथ का नक्षत्र स्वामी स्थित होता है तथा उन परिणामों का माध्यम वह भाव बनता है जिसमें महादशानाथ स्थित हो। उदाहरण के लिए यदि किसी जातक की पत्रिका में महादशानाथ बारहवें भाव में स्थित हो तथा वह जिस नक्षत्र में हो उसका स्वामी अष्टम भाव में स्थित हो जाए तो ऐसी स्थिति में बारहवें भाव के माध्यम से अष्टम भाव के परिणामों की प्राप्ति होती है। इस स्थिति में संभव है खर्चों के कारण जातक को पीड़ा या दुःख की प्राप्ति हो। अर्थात् इस स्थिति में बारहवें भाव के कार्यकत्वों के माध्यम से अष्टम भाव के कार्यकत्वों की प्राप्ति होगी। इसके उपरांत अंतर्दशानाथ को देखा जाता है तथा अंतर्दशानाथ जिस भाव में स्थित होता है उसके अनुसार परिणामों की प्राप्ति में फर्क पड़ता है। उपरोक्त उदाहरण में यदि अंतर्दशनाथ सप्तम भाव में स्थित हो जाए तो पीड़ा में कमी आ जाएगी क्योंकि सप्तम भाव अष्टम का बारहवाँ है। यदि अंतर्दशानाथ भी अष्टम भाव में ही स्थित हो जाए तो पीड़ा में बढ़ोतरी हो जाएगी। इसप्रकार अंतर्दशानाथ की स्थिति परिणामों को प्रभावित करती है।
ग्रहों की दशा को समझने के लिए कई विद्वान् दशा लग्न तकनीक का उपयोग करते हैं जो कि काफी हद तक सटीक बैठती है और अपेक्षाकृत सरल भी है। उत्तर कालामृत में कहा गया है कि जातक की पत्रिका में महादशानाथ से अंतर्दशानाथ तक गिनने पर यदि 6, 8 या 12 आता है तो उस महादशा-अंतर्दशा का समय जातक के लिए शुभ फलदायक नहीं होता। दशा लग्न की तकनीक भी इसी सिद्धांत का वृहत् स्वरूप है। इसके अंतर्गत पहले यह देखा जाता है कि जातक की किस ग्रह की महादशा चल रही है, फिर जातक की पत्रिका में उस ग्रह पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। वह ग्रह जिस भाव में स्थित होता है, उस भाव को लग्न बनाकर कुंडली को तदनुसार घुमा दिया जाता है जिसे दशा लग्न कुंडली कहा जाता है। इस दशा लग्न कुंडली की सहायता से उस विशेष महादशा की अवधि में जातक के जीवन में आने वाले परिवर्तनों का अध्ययन करने के लिए विभिन्न भाव तथा भावेशों की विवेचना की जा सकती है। उदाहरण के लिए यदि हमें किसी विशेष दशा में जातक के धन के बारे में जानना हो तो दशा लग्न कुंडली बनाकर उसके द्वितीय भाव व द्वितीयेश का अध्ययन किया जाता है। दशा लग्न कुंडली का द्वितीय भाव उस महादशाकाल में जातक के धन के बारे में बताएगा तथा द्वितीयेश उस धन के रख-रखाव की सूचना देगा। यदि दशा लग्न कुंडली के द्वितीय भाव में चतुर्थ भाव का स्वामी स्थित हो तो यह कहा जा सकता है कि इस दशा में जातक को चतुर्थ भाव के कारण धन की प्राप्ति होगी। यदि दशा लग्न कुंडली में द्वितीय भाव में दशमेश बैठा हो तो यह कहा जा सकता है कि जातक के अपने प्रोफेशन के द्वारा ही उसे धन की प्राप्ति होगी। यदि द्वितीय भाव में कोई ग्रह न हो तब उस भाव में दृष्टि डालने वाले ग्रहों को देखा जाता है। उदाहरण के लिए यदि दशा लग्न कुंडली में यदि द्वितीय भाव में कोई ग्रह स्थित न हो लेकिन उसपर यदि अष्टम भाव से कोई ग्रह दृष्टि डाल रहा हो तो जातक को उस महादशाकाल में अष्टम भाव के कार्यकत्वों के माध्यम से धन की प्राप्ति हो सकती है। कई जातक एक विशेष समय में विदेश में बसने या घर से दूर कहीं बसने की योजना बनाते हैं। ऐसी स्थिति में दशा लग्न पत्रिका का चतुर्थ भाव देखना चाहिए। यदि चतुर्थ भाव पीड़ित हो तो जातक की योजना सफल हो सकती है। यदि दशा लग्न कुंडली में दशम भाव में सप्तमेश बैठ जाए तो जातक के लिए यह दशा अवधि किसी व्यवसाय को करने का अच्छा समय हो सकता है। यदि इस कुंडली में षष्ठम भाव शुभ प्रभाव में हो तो यह समय यह जातक के लिए किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होने का अच्छा समय होगा। इसप्रकार दशा लग्न कुंडली की सहायता से किसी विशेष महादशा में जातक के जीवन की घटनाओं के बारे में जाना जा सकता है। इसी प्रकार यदि दशा लग्न कुंडली का सप्तमेश छठवें, आठवें या बारहवें भाव में जाकर बैठ जाए अथवा क्रूर ग्रहों के प्रभाव में हो तो तो इस अवधि में जातक को विवाह अथवा साथी से पीड़ा की प्राप्ति हो सकती है। इस प्रकार दशा लग्न कुंडली से हम यह जान सकते हैं कि किसी विशेष महादशा अवधि में जातक के जीवन में किस प्रकार के परिवर्तन संभव है। दशा लग्न पत्रिका में राजयोग व धनयोग इत्यादि की विवेचना भी की जा सकती है। प्रत्येक दशा में दशा लग्न कुंडली बदल जाती है, इसलिए प्रत्येक दशा में जातक को मिलने वाले परिणाम भी बदल जाते हैं। कभी-कभी किसी दशा अवधि में कोई भाव बहुत अच्छे परिणाम देता है तथा दशा बदलने पर वह वही भाव अशुभ परिणाम देने लगता है, इसका कारण भी दशा लग्न कुंडली का बदला जाना ही है।
इसके अलावा किसी महादशा में विभिन्न ग्रहों की अंतर्दशाओं के फल भी इस दशा लग्न कुंडली की सहायता से भली प्रकार जाना जा सकता है। इसके लिए सर्वप्रथम हमें यह देखना चाहिए की दशा लग्न कुंडली के अंतर्गत अंतर्दशानाथ किस भाव में बैठा है। महादशानाथ से अंतर्दशानाथ जिस भाव में होगा उस अवधि में सर्वप्रथम वही भाव जाग्रत हो जाएगा। यदि महादशानाथ और अंतर्दशानाथ दोनों ही प्रथम भाव में ही स्थित हो जाए तो ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि इस अवधि में जातक के स्वास्थ्य तथा व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ेगा। लग्न तथा लग्नेश की पूरी स्थिति जानकार ही शुभ-अशुभ प्रभाव की विवेचना की जा सकती है। यदि महादशनाथ से अंतर्दशानाथ दूसरे भाव में स्थित हो तो ऐसी स्थिति में इस अवधि में जातक के धन या कुटुंब से संबंधित कोई विशेष कार्य अवश्य हो सकता है। इसी प्रकार यदि महादशा में अंतर्दशानाथ तृतीय भाव में स्थित हो तो जातक के जीवन में भाई बहनों से संबंधित अथवा छोटी यात्राओं से संबंधित या संचार से संबंधित कोई कार्य या प्रयत्न होगा। यदि महादशानाथ से अंतर्दशानाथ की दूरी चतुर्थ हो तो इस अवधि में जातक के घर अथवा वाहन से संबंधित कोई शुभ-अशुभ कार्य या परिवर्तन हो सकता है। यदि महादशानाथ से अंतर्दशानाथ की दूरी पंचम हो इस अवधि में जातक के जीवन में संतान या शिक्षा से संबंधित कोई विशेष कार्य हो सकता है। इसके अतिरिक्त चूँकि पंचम भाव षष्ठम का बारहवाँ है इसलिए इस दशाकाल में जातक की जॉब छूट सकती है या परिवर्तित हो सकती है। यदि मदशानाथ से अंतर्दशनाथ की दूरी षष्ठम भाव में हो तो ऐसी स्थिति में हो सकता है कि जातक इस समय कोई ऋण इत्यादि ले। वह किसी प्रतियोगी परीक्षा में सफल हो सकता है अथवा जॉब से संबंधित कोई विशेष कार्य कर सकता है। यदि महादशानाथ से अंतर्दशानाथ की दूरी सप्तम भाव में हो तो इस दशाकाल में जातक का विवाह हो सकता है अथवा वह कोई नया व्यापार शुरू कर सकता है। यदि किसी जातक की दशा लग्न पत्रिका में महादशानाथ से अंतर्दशानाथ की दूरी अष्टम भाव में हो तो सामान्यतः इस अवधि में जातक के जीवन में पीड़ा अथवा अचानक परिवर्तनों की आशंका हो सकती है। इस स्थिति में हमें वर्ग कुंडलियों को देखना चाहिए। षोडश वर्ग कुंडलियों में से जिन वर्ग कुंडलियों में महादशानाथ से अंतर्दशानाथ की दूरी अष्टम भाव में हो विशेषकर जीवन के उन्हीं क्षेत्रों में इस अवधि में पीड़ा का अनुभव हो सकता है। उदाहरण के लिए यदि D-10 चार्ट में भी महादशानाथ से अंतर्दशानाथ की दूरी अष्टम भाव में हो तो ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि इस दशा अवधि में विशेषत: प्रोफेशन या जॉब को लेकर परेशानी अथवा परिवर्तन हो सकता है। इसके अलावा यदि D-12 चार्ट में भी महादशानाथ से अंतर्दशानाथ की दूरी अष्टम भाव में हो तो यह कहा जा सकता है कि जातक को इस अवधि में माता-पिता से संबंधित पीड़ा का भी अनुभव हो सकता है। अर्थात् दशा लग्न कुंडली के साथ वर्ग कुंडलियों का भी अध्ययन करके हम यह जान सकते हैं कि उस दशा अवधि में जातक को किस विशेष क्षेत्र में सफलता अथवा असफलता का अनुभव हो सकता है। यदि महादशनाथ से अंतर्दशानाथ की दूरी नवम भाव में हो तो ऐसी स्थिति में पिता अथवा गुरु अथवा लंबी यात्राओं से संबंधित कोई कार्य हो सकता है। यदि दशा लग्न कुंडली में अंतर्दशनाथ दसवें भाव में स्थित हो तो ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि इस अंतर्दशा अवधि में जातक के करियर तथा स्टेटस में कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य पड़ेगा। शुभ अथवा अशुभ प्रभाव की विवेचना दशा लग्न कुंडली की पूरी विवेचना करके ही जाना जा सकता है। यदि दशा लग्न कुंडली में महादशानाथ से अंतर्दशानाथ की दूरी ग्यारहवें भाव में हो तो इस अवधि में जातक को धन लाभ हो सकता है या उसकी इच्छापूर्ति हो सकती है। इसी प्रकार यदि महादशानाथ से अंतर्दशानाथ की दूरी बारह हो तो इस अवधि में जातक विदेश से संबंधित कोई कार्य कर सकता है लेकिन उसके खर्चे भी बढ़ सकते हैं। यदि अंतर्दशानाथ कोई शुभ ग्रह हो और वह महादशानाथ से त्रिक भाव में हो, साथ ही अंतर्दशानाथ नैसर्गिक अशुभ ग्रहों के प्रभाव में भी हो तो ऐसी स्थिति में यह दशा अशुभ परिणाम दे सकती है। इसके विपरीत यदि इस स्थिति में अंतर्दशानाथ शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो तो अशुभ प्रभाव कम हो जाते हैं। त्रिक भाव का स्वामी दशा लग्न कुंडली में जिस भाव का स्वामी हो, उसे भाव से संबंधित परिणामों की प्राप्ति होती है। यह बिंदु भी ध्यान देने योग्य है कि दशा लग्न पत्रिका में 3, 6, 10 और 11 भावों में नैसर्गिक अशुभ ग्रह (मंगल, शनि, राहु, केतु) अच्छा परिणाम देते हैं। अतः यदि अंतर्दशानाथ कोई नैसर्गिक अशुभ ग्रह हो और महादशानाथ से त्रिक भाव में हो लेकिन नैसर्गिक शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो तो यह दशा अशुभ परिणाम नहीं देगी।
दशा की विवेचना करते समय हमें ग्रहों के नैसर्गिक कार्यकत्वों और उनकी नैसर्गिक शुभता या अशुभता तथा उनकी युति पर भी अवश्य ध्यान देना चाहिए। इसके अलावा दशा लग्न कुंडली में गोचर भी लगाया जा सकता है तथा दशा लग्न कुंडली में अष्टकवर्ग के नियम भी लगाए जा सकते हैं क्योंकि दशा लग्न कुंडली उस विशेष समयावधि में बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। अच्छी तरह से विवेचना करके ही शुभ अशुभ परिणामों के बारे में बताया जा सकता है।
- डॉ. सुकृति घोष
प्राध्यापक, भौतिक शास्त्र
शा. के. आर. जी. कॉलेज,ग्वालियर, मध्यप्रदेश


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