शब्दातीत | हिन्दी कहानी

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शब्दातीत हिन्दी कहानी वह सन दो हजार था। जीवनयापन हेतु मैं कोचिंग कक्षायें चलाती थी। इनमें पढ़ाई के अतिरिक्त अनेक कार्यकक्रम होते। बसंतपंचमी के दिन सभी

शब्दातीत

ह सन दो हजार था। जीवनयापन हेतु मैं कोचिंग कक्षायें चलाती थी। इनमें पढ़ाई के अतिरिक्त अनेक कार्यक्रम होते। बसंतपंचमी के दिन सभी छात्र भगवती सरस्वती की पूजाअर्चना करते। स्वतंत्रता दिवस,गणतंत्रदिवस मनाते। साथ ही महापुरुशों की जयंतियाँ भी मनाते। इन कार्यक्रमों मे वादविवाद प्रतियोगिता,तात्कालिक भाशण प्रतियोगिता, कविता प्रतियोगिता आदि प्रमुख आकर्शण होते। छात्र इनमें बहुत उत्साह से भाग लेते। जज के रूप में मैं शहर के गणमान्य नागरिकों के आमंत्रित करती, जो कि प्रायः अवकाशप्राप्त अधिकारी होते। इन अतिथियों में एक थे विश्वकर्मा सर। अवकाशप्राप्त प्राचार्य। नेहरू युग से लेकर सन दो हजार तक का समय उन्होंने देखा था। उन दिनो मैं आये दिन होने वाले स्कैंडल,स्कैमो,बम धमाकों से बहुत विचलित रहती थी। 

विश्वकर्मासर सुंदर, सरल और बेहद स्नेहिल व्यक्तित्व के थे, सो कार्यक्रमों के बाद अक्सर मैं उनसे अपनी बेचैनियाँं कहती। जितना बन सके, वे मेरी जिज्ञासायें शांत करते।  मैं उनके लिये कुछ न कुछ व्यंजन बना कर रखती। थोड़ा सा खाने के बाद वे कहते...इसे पैक कर दो, अपनी पत्नी के लिये ले जाऊंगा। मैं कहती, सर आप पूरा ,खाईये न, मैं मैडम के लिये पैक कर रही हूँ।  सो वे प्रेम से मेरे बनाये व्यंजन खाते जाते और मेरी जिज्ञासायें शांत करने की कोशिश करते।  कहते भी, मैं  जो बता रहा हूँ, वह ”एक सामान्य पढ़े लिखे नागरिक की दृष्टि“ है। मैं कहती, ”सर, मैं खुद ही एक सामान्य नागरिक हूँ और मेरे जैसे सामान्य नागरिक तब क्या देखते, सुनते, समझते रहे हैं, वही जानना चाहती हूँ। सर, मुझे सबसे ज्यादा बेचैनी ”भ्रश्टाचार“ को लेकर है। सन साठ पहुँचते आप ”जिला शिक्षा निरीक्षक“ बन चुके थे, तब ”रिश्वतखोरी“ की क्या हालत थी।“

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बताते..नौकरी, प्रोन्नति आदि के लिये सिफारिशें चलती थीं। अक्सर लोग भेंट लेकर आते थे । ”कभी थैले भर आम लेकर , ”हमारे पेड़ में फले थे सर, तो कभी,छोटी सी हँडिया में घी लेकर...हमारी गाय का घी है सर।“ कभी काम होने के बाद, कभी पहले ही। गरीबी थी, नगद का चलन नहीं था। रिश्वत लेने की शुरूआत हुई ”अभावों के कारण“। फिर लोभ होने लगा। हर आम और खास शिकार। तब तक ”देशसेवा वाली राजनीति गायब“। सत्तालोलुप राजनीति प्रकट। उसके लोमहर्शक खेल। लचर प्रशासन। चरमराती व्यवस्था। और भी ढेरों व्याधियाँ। सत्तर का दशक पहुँचते नौकरियां बिकने लगीं। नीलामी सी होने लगी। महामारी की तरह हर क्षेत्र में घुस गया भ्रश्टाचार। बेसंभाल। पत्रकारों ने जब ”इंदिराजी“ को घेरा तो उन्होंने कह दिया...”.करप्शन इज अ ग्लोबल फिनामिना।“

हाँ, मैंने ”इंदिराजी का यह वक्तव्य“ पढ़ा था। वैसे जब आप नौकरी में आये तब नौकरियों की क्या हालत थी सर।

दिलचस्प! आजादी मिली ही थी। सद्यः निर्मित स्वदेशी सरकार सदियों की गुलामी से लुटे पिटे देश को विकास की पटरी पर लाने का भरसक प्रयत्न कर रही थी। नये नये विभाग खोल रही थी। पुराने विभागों का विस्तार कर रही थी। शिक्षा का प्रचार हो तो रहा था पर इन विभागों में काम करने लायक कर्मचारी तैयार नहीं हो पाये थे। सो  अधिकारी ही संदेसा भेजते.... ”अमुक अमुक जगह बैंक में बाबू की जगह खाली है। चौकीदार की जगह खाली है, चलो चलो घुस लो भैया...।“ रेल्वे की नौकरी के लिये तो साहब लोग  खुद घर आकर खुशामद करते...”सरकारी नौकरी है। नहीं कोई खतरा नहीं ।  बहाना करने पर मनाते,हम सिखा देंगे, चल न भैया...“

महिलाओं की स्थिति, उनकी शिक्षा?

महिलाओं की शिक्षा पर आजादी के बहुत पहले ही देश के विभिन्न क्षेत्रों में महापुरुशों ने मुहिम चला रखी थी। गाँधीजी ने और गति दी। आजादी मिलने के बाद सरकार ने जगह जगह स्कूल खोले। आरंभ में सहशिक्षा थी। मातापिता लड़कियों को स्कूल भेजने में हिचकते थे। सो कन्यापाठशालायें खोली गईं। बालिकाओं को शिक्षित करने के लिये बड़े ही मनोरंजक कार्यक्रम किये गए। इनमें मेरी भूमिका बहुत सराही गईं। एक बार रूचि जगने के बाद बच्चियाँ  स्कूल जाने के लिये मातापिता से जिद करने लगीं। शुरू में प्राथमिक कन्यापाठशाला थी।। साठ का दशक आते आते माध्यमिक कन्या पाठशाला,फिर उच्चतर माध्यमिक फिर महाविद्यालय। फिर तो क्वांटमजंप। 

सर महिलाओं में आत्मनिर्भरता की चाहत कब से हुई?

पढ़लिखकर बेटियों के व्यक्तित्व में जो चमक आ गई थी, उससे मातापिता अभिभूत तो थे,पर बेटियों से नौकरी नहीं कराना चाहते थे। पढ़ते पढ़ते लड़कियाँ घर गृहस्थी के सारे काम सीख लेतीं....भोजन बनाना, तरह तरह के व्यंजन बनाना। पापड़ बड़ी अचार। सिलाई कढ़ाई। पूजापाठ। यानी सर्व गुण संपन्न। लड़की बोर्ड परीक्षा का आखिरी पर्चा देकर घर आई कि शहनाई की आवाज गूंजने लगती ..”.बाबुल की दुआयें लेती जा... जा तुझको सुखी संसार मिले... “

पर क्या?

पर सबने देखा कि ईसाई परिवारों की लड़कियाँ तो मजे से नौकरियों में आने लगी हैं!

ईसाई परिवारांं की लड़किया ?

असल में ईसाई मिशनरी तो अँग्रजों के साथ ही यहाँ आने लगे थे। वे दूरदराज के गरीबी, अशिक्षा अंधविश्वास के अँधेरों में डूबे लोगों की सेवा करते। शिक्षा का प्रचार करते। अपने स्कूलों में वे प्रभु ईसा के संदेश तो प्रचारित करते, आत्म निर्भर बनने पर विशेश जोर देते। वे जगह जगह स्कूल, अस्पताल खोल ही रहे थे।  देसी सरकार भी खोले जा रही थी, स्कूल,अस्पताल। इन मिशनरी स्कूलों में पढ़कर निकली लड़कियों को सहज ही स्कूलों, अस्पतालों में नौकरी मिल गईं। सो नौकरियों में पहले ईसाई लड़कियाँ ही आइंर्। फिर हिम्मत करके सवर्ण लड़कियाँ, फिर धीरे धीरे अन्य समाज की लड़कियाँ।

सर जब आप शिक्षक थे तो आपके साथ महिला शिक्षक थीं कि नहीं?ं 

मैं सन तिरपन में ”उच्च श्रेणी का शिक्षक“  था। मेरे साथ तो नही,ंपर प्राथमिक कक्षाओं में कुछेक युवतियाँ शिक्षिका होकर आई थीं। मिशनरी स्कूलों में ही पढी़ थीं। मेरे पास अक्सर नये बने शिक्षक अपनी उलझने समझने आते थे। ये शिक्षिकायें भी आने लगीं। किसको, कैसे आवेदन लिखें, से लेकर रजिस्टर कैसे भरें, छोटी मोटी हर बात पूछतीं। इनमें एक ”मिस लारेंस“ तो बहुत ही सीधी थी। कई बार उसके लिखापढ़ी के काम मैं ही कर देता, कहता, तुम तो बस इसमें दस्तखत कर दो।

फिर वह कुछ सीखी कि नहीं?

सीखी तो, पर उसकी आदत मुझपर निर्भर रहने की ही हो गई। हर बात में। ”माँ को बड़े डॉक्टर के पास ले जाना हो, भतीजे को फुटबाल टीम में भरती कराना हो, तबादला रुकवाना हो, सब मेरे भरोसे।“क्या बताउं मैडम, मैंने ही दौड़धूप कर उन्हें जमीन दिलवाई। मजदूर, मिस्त्रियों से निपटते उनका मकान बनवाया।  कड़ी घूप में महीनो खड़े खड़े मकान बनवाते मुझे लू लग गई। बुरी तरह बीमार पड़ गया। मरते मरते बचा।

सर इस तरह जान पर खेलकर आपने क्यों मकान बनवाया?

मुझे प्रेम हो गया था मैडम।

मैं उनका मुँह देखने लगी। उनका अस्सीपार चेहरा लाल हो गया। अरे क्या बोल गये।

मैं ही बोली...सर आपने उनसे कहा कि आप उनसे प्रेम करते हैं।

अरे नहीं, कभी नहीं।

सर आप उनसे अभी भी मिलते हैं?

हाँ, अभी भी उनके घर आता जाता हूँ जैसे पहले आता जाता था।

 सर उनके घर के लोगों का आपके साथ व्यवहार कैसा रहा?

ऐसा है, उन दिनों के युवा पं.नेहरू के फैन थे। मैं भी। इस बात से तो मैं उनका मुरीद ही हो गया था कि मैडम ऐडविना ने तो उनके प्रति खुलकर अपने जजबात उजागर किये, पर हमारे हीरो बड़ी सहजता से उनके पूरे परिवार के ही मित्र बन गये।

सो आप भी लारेंस मैडम के पारिवारिक मित्र हो गए।

वे मुस्करा दिये।

सर आप जीवन के अंतिम प्रहर में हैं। लारेंस मैडम भी। दुनिया से जाने के पहले उन्हें पता होना चाहिये कि आप उनसे प्रेम करते थे। उन्हें बहुत बहुत अच्छा लगेगा।

वे विचलित दिखे।

सर क्या मैं जाकर उन्हें बता दूं कि आप उनसे प्रेम करते थे।

चौंके,अरे नहीं... एकदम नहीं।

क्यों सर! 

चुप रहे। बोले.....कहने से बात छोटी हो जाती है मैडम।

सर चले गए। मैडम भी। अपने दौर के अनेक सत्यों को तो सर उद्घाटित कर ही गये, इस शाश्वत सत्य को भी पुनः उद्घाटित कर गये कि ”कुछ बातें, कुछ अहसास“  शब्दों के दायरे में नहीं आ सकते। कहने से छोटे पड़ जाते हैं।


- शुभदा मिश्र
14, पटेलवार्ड, डोंगरगढ़(छ.ग.)
मो.नं. 9182695,94598

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