कबीर और तुलसी की भक्ति के साम्य वैषम्य की समीक्षा कबीरदास और तुलसीदास क्रमशः भिन्न-भिन्न विचारधारा के कवि हैं। शास्त्रों की उपेक्षा तथा अवतारवाद के ख
कबीर और तुलसी की भक्ति के साम्य वैषम्य की समीक्षा
कबीरदास और तुलसीदास क्रमशः भिन्न-भिन्न विचारधारा के कवि हैं। शास्त्रों की उपेक्षा तथा अवतारवाद के खण्डन के कारण कबीर के राम वैष्णव तो नहीं हो सके, किन्तु लोक कल्याण के मामले में वे तुलसी के राम से कहीं पीछे नहीं है। भक्तिकाल के कवियों ने ईश्वर के दो रूपों की उपासना की है। कबीरदास जी ने जहाँ निर्गुण एवं निराकार ब्रह्म को अपना इष्टदेव बनाया वहीं तुलसीदास ने सगुण रूप को अपनी भक्ति का आधार बनाया। 'राम' का नाम कबीर ने भी लिया और तुलसीदास ने भी लिया, किन्तु कबीर के राम और तुलसी के राम में बहुत अधिक अन्तर है। कबीर ने निर्गुण, निराकार, अजन्मा, अरूप, अलख ब्रह्म को ही 'राम' के नाम से सम्बोधित किया है, जबकि तुलसी के राम विष्णु के अवतार हैं। कबीर अवतारवाद में विश्वास नहीं करते। कबीर के राम तो घट-घट वासी, सूक्ष्म तत्त्व हैं। वे कहते हैं-
कस्तूरी कुण्डल बसै मृग ढूढ़े बन माहिं।
ऐसे घट-घट राम हैं दुनिया देखे नाहिं । ।
कबीर 'राम' के नाम के जप पर विशेष बल देते हैं। वे कहते हैं कि 'राम' नाम का 'जप' करने से कभी तो हमारी पुकार उनको सुनाई देगी-
केशव कहि कहि कूकिए न सोइए असरार।
राति दिवस के कूकड़ै कबहुँ लगे पुकार ।।
कबीरदास जी के 'राम' अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र नहीं हैं। वे हमेशा यह कहते हैं -
दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना ।
राम नाम का मरम है आना ।।
कबीर के राम अनादि, अनन्त हैं, त्रिगुणातीत हैं, सत्य स्वरूप हैं। वे न जन्म लेते हैं न मृत्यु को प्राप्त होते हैं। उनका कभी विनाश नहीं होता तथा पूर्ण हैं। योगी उन्हें योग से पाते हैं तो भक्त उन्हें भक्ति-भाव से प्राप्त करते हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कबीर के राम एक ओर तो सगुण राम (दशरथ सुत) से भिन्न हैं, तो दूसरी ओर शंकराचार्य के निर्गुण ब्रह्म से भी अलग हैं, क्योंकि वे ज्ञान के नहीं भक्ति के विषय हैं। जीवात्मा प्रियतम राम के प्रति अनुरक्त होकर ऐसी पागल हो गयी है कि उसे लोक-लाज का भी भय नहीं है-
मैं बौरी मेरे राम भरतार ।
ता कारनि रचि करौं सिंगार ।।
अपने प्रिय से मिलने के लिए कबीर की आत्मा रूपी सुन्दरी श्रृंगार करती है। वह अपने को राम की बहुरिया मानती है-
हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया ।
राम बड़े मैं छुटक लहुरिया ।।
किया स्यंगार मिलन के तांई ।
काहे न मिलौ मेरे राम गुसांई ।
कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर की खोज करने वाला यदि सच्चे विश्वास के अभाव में सिंघल द्वीप तक भी चला जाये तब भी कोई लाभ नहीं होगा। वास्तव में ईश्वर हृदय के भीतर विराजमान है। उसका साक्षात्कार करने के लिए पक्का विश्वास होना चाहिए-
कबीर खोजी राम का, गया जु सिंघल दीप ।
राम तौ घट भीतर रमि रह्या जौ आवै परतीति ।।
कबीर के राम के अनन्त नाम हैं। वे अल्लाह, करीम, खुदा, रहीम, गोविन्द, हरि, माधव किसी भी नाम से पुकारे जा सकते हैं।
कबीर भले ही निगुणोपासक सन्त कवि कहे जाते हैं, किन्तु उनमें भक्ति-तत्त्व की प्रधानता है। वह भक्ति जो सगुण-साकार रूप से सम्बद्ध होती है, उसे निर्गुण निराकार ब्रह्म के प्रति उतनी ही तीव्रता से व्यंजित कर कबीर ने निर्गुण भक्ति का एक आदर्श प्रस्तुत किया है, वे तो यह भी स्वीकार करते हैं कि-
जब लगि भाव भगति नहिं करिहौं ।
तब लगि भवसागर क्यू तरिहौं ।।
तुलसीदास सगुणोपासक राम-भक्ति शाखा के कवि हैं। तुलसी के 'राम' सगुण साकार हैं। वे विष्णु के अवतार हैं तथा उन्होंने दशरथ एवं कौशल्या के पुत्र के रूप में अवतार ग्रहण किया है। तुलसी के राम मूल रूप में निर्गुण ब्रह्म हैं, जो सगुण रूप में व्यक्त हुए हैं। वे एक ओर तो अज, अनघ, अद्वैत, अव्यक्त, अनिकेत, अविरल, अनामय एवं अमल हैं, तो दूसरी ओर दीन-बन्धु, दयालु, भक्त वत्सल, शरणागत वत्सल हैं। तुलसी के राम-शक्ति, शील एवं सौन्दर्य से युक्त हैं। तुलसी द्वारा की गयी राम की स्तुतियों में यह स्पष्ट हो जाता है कि वे विष्णु के अवतार हैं, जो धर्म की स्थापना के लिए इस संसार में अवतार लेते हैं-
जब-जब होई धरम कै हानी।
बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ।।
तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा ।
हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा।।
जो ब्रह्म सभी जगह व्याप्त है, माया रहित, अजन्मा अगोचर और भेदरहित है, जिसे वेद भी नहीं जानते वह देह धारण करके मनुष्य कैसे हो सकता है। इस प्रकार की शंका 'सती' के मन में उत्पन्न हुई थी जब वनमार्ग में शंकर जी ने राम को प्रणाम किया-
ब्रह्म जो व्यापक विरज अज अकल अनीह अभेद ।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद ।।
शंकर जी ने उनके सन्देह को जान लिया और उन्हें समझाते हुए कहा-
मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत विमल मन जेहिं ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं।।
सोइ राम व्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी ।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतन्त्र नित रघुकुल मनी ।।
अर्थात् ज्ञानी, मुनि, योगी, सिद्ध जिनका ध्यान निर्मल चित्त से करते हैं तथा वेद-पुराण जिनकी कीर्ति गाते हैं, वही सर्वव्यापक मायापति, ब्रह्माण्ड के स्वामी ब्रह्म स्वरूप राम अपने भक्तों के हित के लिए अपनी इच्छा से रघुकुल में अवतरित हुए हैं। स्पष्ट है कि तुलसी के 'राम'' परम ब्रह्म' है, जिन्होंने भक्तों के हित के लिए अवतार धारण किया है। तुलसी के राम शील के भण्डार हैं। विनय-पत्रिका में उनके शील की प्रशंसा तुलसी ने इन शब्दों में की है-
सुनि सीतापति सील सुभाउ ।मोद न मन तन पुलक नयन जल सो नर खेहरि खाउ ।।
वे परम उदार हैं, भक्त वत्सल हैं, दीनबन्धु है एवं करुणा के सागर हैं। उनकी प्रशंसा करते हुए भक्त प्रवर तुलसी कहते हैं-
ऐसो को उदार जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं । ।
गोस्वामी तुलसीदास के आराध्य प्रभु श्रीराम अत्यन्त सौन्दर्यशाली है। अपनी सुन्दरता से वे करोड़ों कामदेवों को लज्जित कर देते हैं। उनके बाल सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कवि 'गीतावली' में लिखता है-
रघुबर बाल-छवि कहौ बरनि ।
सकल सुख की सींव, कोटि मनोज-सोभा हरनि ।।
बसी मानह चरन-कमलनि, अरुनता तजि तरनि ।
तुलसी के राम इतने भक्त-वत्सल हैं कि भक्तों की पुकार पर दौड़े चले आते हैं। वे मर्यादा पुरुषोत्तम राम लीला पुरुषोत्तम भी हैं, जो इस संसार में रहते हुए नाना प्रकार की मानवीय लीलाएँ कर रहे हैं। वे लक्ष्मण को शक्ति लग जाने पर विलाप करते हैं, बिरही की भाँति सीता को वन-वन में खोजते हुए आँसू बहा रहे हैं, किन्तु तुलसी ऐसे अवसरों पर यह बताना नहीं भूलते कि राम लीला कर रहे हैं। उनका मानवीय आचरण भी एक प्रकार की लीला है ।
तुलसी ने राम के माध्यम से एक आदर्श एवं पूर्ण महामानव की परिकल्पना की है, जो अपने चरित्र एवं व्यवहार से समाज के सम्मुख अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वे एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श पति एवं आदर्श राजा हैं।
कबीर और तुलसी दोनों के राम भक्तों की आर्त पुकार सुनकर भक्त का हित करने के लिए सब कुछ करने की सामर्थ्य रखते हैं। कबीर ने 'राम' को जहाँ निर्गुण ब्रह्म माना है वहीं तुलसी ने निर्गुण ब्रह्म को ही 'राम' के रूप में दशरथ-कौसल्या के पुत्र के रूप में अवतार लेते हुए दिखाया है। राम नाम की महत्ता का प्रतिपादन कबीर एवं तुलसी दोनों ने किया है। कबीर एवं तुलसी दोनों के राम ज्ञान के नहीं भक्ति के विषय हैं। तुलसी ने समन्वयवादी प्रवृत्ति का परिचय देते हुए निर्गुण एवं सगुण के समन्वय पर बल दिया और यह प्रतिपादित किया कि-
अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा।गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा ।
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुनहिं होई ।।
कबीर के राम निर्गुण हैं, जबकि तुलसी के राम सगुण साकार हैं। वे जन्म-मृत्यु के बन्धन में बँधे हुए हैं। कबीर के राम कर्त्ता होते हुए भी कर्म-बन्धन से मुक्त हैं, किन्तु तुलसी के राम कर्त्ता हैं और कर्म बन्धन में बँधकर जन्म-मृत्यु में बँधे हुए हैं। कबीर के राम गुणातीत हैं जबकि तुलसी के राम में शक्ति, शील एवं सौन्दर्य जैसे गुणों का समन्वय है। वे शक्ति के अपार सागर हैं, कोटि मनोज लजावनि हारे सौन्दर्य से मण्डित हैं और शील की अक्षय निधि हैं ।
संक्षेपतः कहा जा सकता है कि कबीर और तुलसी दोनों के राम-भक्तों के पालनहार हैं, उनके रक्षक एवं पोषक हैं। वे भक्तों पर दया करते हैं, करुणा-वत्सल एवं भक्त-वत्सल हैं तथा उन्हें भवसागर से मुक्ति दिलाते हैं। भले ही हमें वाह्य दृष्टि से देखने पर कबीर एवं तुलसी के राम में व्यापक वैषम्य दिखाई पड़े, किन्तु उनमें आन्तरिक साम्य है।
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