भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार क्या है तथा इसकी पद्धतियों की विवेचना भाषा व्यवस्था और भाषा व्यवहार भाषाविज्ञान के दो मूलभूत और परस्पर संबद्ध पहलू हैं
भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार क्या है तथा इसकी पद्धतियों की विवेचना
भाषा व्यवस्था और भाषा व्यवहार भाषाविज्ञान के दो मूलभूत और परस्पर संबद्ध पहलू हैं, जो भाषा की प्रकृति, संरचना और उपयोग को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भाषा व्यवस्था भाषा की संरचनात्मक और नियमबद्ध प्रकृति को दर्शाती है, जिसमें ध्वनियों, शब्दों, वाक्य रचना और अर्थ की व्यवस्था शामिल होती है। दूसरी ओर, भाषा व्यवहार भाषा के वास्तविक और संदर्भ-निर्भर उपयोग को संदर्भित करता है, जो सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत कारकों से प्रभावित होता है। इन दोनों अवधारणाओं का अध्ययन भाषा की जटिलता और उसके सामाजिक महत्व को समझने के लिए आवश्यक है।
भाषा-व्यवस्था और भाषा व्यवहार भाषा के दो रूप हैं एक ओर तो भाषा-व्यवस्था के रूप में दिखाई पड़ती है, तो दूसरी ओर व्यवहार के रूप में। भाषा के इन दोनों रूपों को सामने लाने व उनका विवेचन करने का श्रेय सस्यूर को जाता है। उन्होंने इन दोनों रूपों के लिए फ्रांसीसी शब्द Langue तथा Parole का प्रयोग किया है और उनके प्रतिशब्द के रूप में हिन्दी में क्रमशः- भाषा और वाक् का प्रयोग किया जाता रहा है, परन्तु अब भाषा व वाक् दोनों ही शब्दों के स्थान पर 'भाषा-व्यवस्था और 'भाषा-व्यवहार' शब्दों का प्रचलन होने लगा है। डॉ० भोलानाथ तिवारी ने भी अपनी पुस्तक 'भाषाविज्ञान' में इन दोनों शब्दों 'भाषा-व्यवस्था' व ' भाषा-व्यवहार' के प्रयोग में लाना अधिक उचित माना है।
भाषा और वाक् दोनों का अर्थ है- मानव वागंगों से उच्चरित वाणी। भाषा की परिभाषा देते हुए अनेक भाषा विज्ञानियों ने कहा है कि “भाषा वाक् प्रतीकों की व्यवस्था है, जिसके माध्यम से एक भाषा समाज के सदस्य परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।"
हैनरी स्वीट ने भाषा की परिभाषा देते हुए कहा है- "Language may be defined as expression of thought by means of speech-sounds." अर्थात् भाषा वाग्ध्वनियों के माध्यम से विचारों की अभिव्यक्ति है।
पाश्चात्य भाषाविज्ञानी सस्यूर ने भाषा-व्यवस्था को एक आदर्श, अमूर्त और सार्वभौम अवधारणा के रूप में प्रस्तुत किया है, जबकि भाषा-व्यवहार को उसके व्यावहारिक, उच्चरित, तात्कालिक व सीमित रूप में प्रस्तुत किया है। भाषा-व्यवस्था शब्दों का कोई ढेर नहीं है और न ही वह शब्दों में गूँथी हुई कोई माला है। भाषा-व्यवस्था तो सार्थक शब्दों की एक व्यवस्थित कड़ी है और यह व्यवस्था भाषा-सापेक्ष होने के कारण कुछ नियमों की अपेक्षा भी रखती है। अतः भाषा-व्यवस्था का सम्बन्ध उसके व्याकरण के साथ होता है। जब कोई व्यक्ति कुछ बोलता है तब हम यह जानने का प्रयास करते हैं बोले गये वाक्य में उस भाषा के नियमों का खण्डन तो नहीं हुआ है अथवा दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि व्याकरण की दृष्टि से वाक्य कहाँ तक शुद्ध है।
लेकिन यहाँ पर भी ध्यान देने योग्य एक तथ्य यह भी है कि व्याकरण लोक-अनुवर्ती होता है इसलिए जो वाक्य लोक-सम्मत है, उसे अशुद्ध नहीं कहा जा सकता। फिर भले ही वे व्याकरण की दृष्टि से असंगत क्यों न हो। उदाहरण के लिए- 'लौहपुरुष' शब्द लोक सम्मत तो है, परन्तु व्याकरण की दृष्टि से असंगत है क्योंकि कोई भी व्यक्ति लोहे का नहीं बना होता । यही कारण है कि साहित्यकार अपनी रचनाओं में ऐसे वाक्यों का प्रयोग करते हैं जैसे कलियाँ मुस्काई और फूल हँसे। इसी प्रकार यदि कोई वाक्य लोक व्यवहार की दृष्टि में अस्वीकृत है, परन्तु व्याकरण की दृष्टि से संगत है तो साहित्यकार अथवा वक्ता उसे अपनी कल्पना के बल पर उसे नये सन्दर्भ में प्रयोग करते हुए उसे स्वीकृत बना सकता है। उदाहरण के लिए- यदि कोई व्यक्ति कहें- "वह अग्नि में स्वयं को जलाकर सुख अनुभव कर रहा था" तब यह वाक्य लोक व्यवहार की दृष्टि से अशुद्ध माना जायेगा, परन्तु यदि कोई व्यक्ति कहे कि - "वह पश्चाताप की अग्नि में स्वयं को जलाकर सुख अनुभव कर रहा था," तब यह वाक्य अशुद्ध नहीं माना जायेगा।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा-व्यवस्था का सम्बन्ध व्याकरण के साथ रहता है। दूसरी ओर भाषा-व्यवहार का सम्बन्ध प्रयोग के साथ रहता है। स्पष्ट है कि सस्यूर ने भाषा-व्यवस्था को व्यापक, अमूर्त, सार्वभौम और सैद्धान्तिक व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया है, जो बोलते ही हवा में लुप्त हो जाता है। भाषा-व्यवस्था अजर-अमर है, जबकि भाषा-व्यवहार क्षणभंगुर है। सस्यूर ने भाषा-व्यवस्था के तीन स्तरों की चर्चा की है-
व्यक्तिगत स्तर
यह स्तर वाग्व्यवहार तक ही सीमित रहता है। इसे ही भाषा-व्यवहार कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति अपने पारिवारिक, शैक्षिक संस्कारों और व्यक्तिगत क्षमता के अनुसार ही अपनी भाषा का प्रयोग करता है। उदाहरण के लिए, एक ही गाँव के तीन व्यक्ति अनपढ़, अल्पशिक्षित व सुशिक्षित यदि किसी अपरिचित व्यक्ति से परिचय पूछेंगे तो तीनों अलग-अलग स्तर की भाषा का प्रयोग करेंगे। यथा- अनपढ़ पूछेगा - तू कौन है? अल्पशिक्षित - पूछेगा - तुम कौन हो ? और सुशिक्षित पूछेगा - आप कौन हैं? इसी प्रकार, अन्य व्यक्तियों के साथ व्यवहार करते समय प्रत्येक व्यक्ति की व्यावहारिक भाषा में उच्चारण, सुर बालाघात आदि में भिन्नता पायी जाती है।
सामाजिक स्तर
यह भाषा-व्यवस्था का दूसरा स्तर है। यह भाषा का पारम्परिक चिरन्तन रूप भी है और सामूहिक व्यवहार में आने के कारण चिर नूतन होने के साथ-साथ यह अद्यतन भी है। इसमें परम्परा और प्रयोग का समन्वय है तथा पुरातनता और नवीनता का सामंजस्य भी है। भारत में हिन्दी, मराठी, बँगला आदि इसी वर्ग में आती है।
सार्वभौम स्तर
सस्यूर के अनुसार यह नितांत अमूर्त और शाश्वत है। यह भाषा का निर्विशेष, सर्वमान्य, अमूर्त सनातन रूप है, जिसमें सभी भाषाएँ सूक्ष्म रूप में समायी हुई हैं। जिस प्रकार 'मानवता' में राम, श्याम, सीता, गीता आदि सभी मानव समाये हुए हैं, परन्तु मानवता कोई विशेष मनुष्य नहीं है, ठीक उसी प्रकार भाषा के सार्वभौम, सर्वोच्च तथा आदर्श सैद्धांतिक रूप में सभी भाषाएँ समाविष्ट हैं, परन्तु वह किसी एक भाषा तक सीमित नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट है कि भाषा का व्यवहार इन्हीं तीन स्तरों पर फैला हुआ है।
भाषा व्यवस्था तथा भाषा व्यवहार की पद्धतियों की विवेचना
भाषा व्यवस्था और भाषा व्यवहार की पद्धतियों की विवेचना करने के लिए हमें उनके अध्ययन के विभिन्न दृष्टिकोणों और विधियों को समझना होगा। भाषा व्यवस्था का अध्ययन मुख्य रूप से संरचनावादी, कार्यात्मक और उत्पत्तिवादी दृष्टिकोणों के माध्यम से किया जाता है। संरचनावादी दृष्टिकोण भाषा को एक व्यवस्थित संरचना के रूप में देखता है, जिसमें ध्वनियों, शब्दों और वाक्यों के बीच संबंधों का विश्लेषण किया जाता है। इस दृष्टिकोण में भाषा को उसके मूल घटकों में तोड़कर उनके नियमों और संरचनाओं का अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के लिए, हिंदी में "क" और "ख" के बीच का ध्वनिगत अंतर या "लड़का" और "लड़की" के बीच का लैंगिक अंतर संरचनावादी विश्लेषण का हिस्सा है। कार्यात्मक दृष्टिकोण भाषा व्यवस्था को संचार के उद्देश्य से जोड़ता है, जिसमें यह देखा जाता है कि भाषा सामाजिक संदर्भों में कैसे कार्य करती है। यह दृष्टिकोण भाषा के संप्रेषणात्मक और सामाजिक पहलुओं पर जोर देता है, जैसे हिंदी में औपचारिक और अनौपचारिक संबोधन (आप बनाम तू) का उपयोग। उत्पत्तिवादी दृष्टिकोण, जिसे नोआम चॉम्स्की ने विकसित किया, भाषा को मानव मस्तिष्क की सहज क्षमता के रूप में देखता है। यह दृष्टिकोण वाक्य निर्माण के नियमों और भाषा की सार्वभौमिक विशेषताओं पर ध्यान देता है, जैसे हिंदी में वाक्य की गहरी संरचना और सतही संरचना का विश्लेषण।
भाषा व्यवहार का अध्ययन समाजभाषाविज्ञान, मनोभाषाविज्ञान और उपयोगवादी भाषाविज्ञान जैसे क्षेत्रों के माध्यम से किया जाता है। समाजभाषाविज्ञान भाषा व्यवहार को सामाजिक संदर्भों, जैसे क्षेत्र, वर्ग, लिंग और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, के आधार पर विश्लेषित करता है। उदाहरण के लिए, भारत में हिंदी का उपयोग उत्तर भारत में मानक रूप में हो सकता है, लेकिन दक्षिण भारत में यह स्थानीय भाषाओं, जैसे तमिल या मराठी, के प्रभाव के साथ मिश्रित रूप में प्रकट हो सकता है। समाजभाषाविज्ञान यह भी अध्ययन करता है कि भाषा सामाजिक पहचान और शक्ति संरचनाओं को कैसे दर्शाती है, जैसे हिंदी में औपचारिक "आप" का उपयोग सामाजिक सम्मान को दर्शाता है। मनोभाषाविज्ञान भाषा व्यवहार को मानसिक प्रक्रियाओं, जैसे भाषा अधिग्रहण, समझ और उत्पादन, के दृष्टिकोण से देखता है। यह अध्ययन करता है कि व्यक्ति भाषा को कैसे सीखता, समझता और उपयोग करता है, जैसे बच्चे हिंदी के कारक चिह्नों को कैसे सीखते हैं। उपयोगवादी भाषाविज्ञान भाषा व्यवहार में संदर्भ, इरादे और संप्रेषण के प्रभाव पर ध्यान देता है। यह इस बात की पड़ताल करता है कि लोग अपने भाषा प्रयोग के माध्यम से क्या संदेश देना चाहते हैं और श्रोता उसे कैसे समझता है। उदाहरण के लिए, "तुमने यह किया?" का प्रयोग प्रश्न, आश्चर्य या आरोप के रूप में हो सकता है, जो संदर्भ और बोलने वाले के इरादे पर निर्भर करता है।
भाषा व्यवस्था और भाषा व्यवहार का आपसी संबंध गहरा और गतिशील है। भाषा व्यवस्था वह आधार प्रदान करती है, जिसके बिना भाषा व्यवहार संभव नहीं है। उदाहरण के लिए, हिंदी की व्याकरणिक संरचना, जैसे कारक (ने, को, से) और क्रिया रूप, भाषा व्यवहार को संरचित करती है। लेकिन भाषा व्यवहार के माध्यम से ही भाषा व्यवस्था जीवित रहती है और परिवर्तनशील बनी रहती है। भाषा व्यवहार में नए शब्दों का निर्माण, जैसे "सेल्फी" या "ऐप" का हिंदी में प्रचलन, और पुराने शब्दों के अर्थ में परिवर्तन, जैसे "मोबाइल" का अर्थ अब केवल गतिशील न होकर टेलीफोन से संबंधित होना, भाषा व्यवस्था को गतिशील बनाता है। यह परस्पर क्रिया भाषा को जीवंत और प्रासंगिक बनाए रखती है। उदाहरण के लिए, डिजिटल युग में सोशल मीडिया के प्रभाव से हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का मिश्रण, जैसे "कूल" या "ट्रेंडिंग," भाषा व्यवहार के माध्यम से भाषा व्यवस्था में शामिल हो रहा है।
इन पद्धतियों के अध्ययन में विभिन्न विधियाँ अपनाई जाती हैं। भाषा व्यवस्था का अध्ययन अक्सर औपचारिक और सैद्धांतिक होता है, जिसमें भाषाई डेटा का संकलन और विश्लेषण किया जाता है। उदाहरण के लिए, हिंदी के ध्वनियों, शब्दों और वाक्यों का विश्लेषण करके उनके नियमों और संरचनाओं की खोज की जाती है। इसके लिए भाषाई मॉडल और औपचारिक व्याकरण का उपयोग किया जाता है। दूसरी ओर, भाषा व्यवहार का अध्ययन अधिक अनुभवजन्य होता है, जिसमें क्षेत्रीय अध्ययन, साक्षात्कार, और भाषा उपयोग के अवलोकन शामिल हैं। उदाहरण के लिए, किसी विशेष समुदाय में हिंदी के उपयोग का अध्ययन करने के लिए बोलचाल, मुहावरों और स्थानीय शब्दों को रिकॉर्ड किया जा सकता है। आधुनिक तकनीकों, जैसे कम्प्यूटेशनल भाषाविज्ञान, ने भी इन पद्धतियों को समृद्ध किया है, जिसमें बड़े पैमाने पर भाषाई डेटा का विश्लेषण करके भाषा व्यवस्था और व्यवहार के पैटर्न खोजे जाते हैं।
अंत में, भाषा व्यवस्था और भाषा व्यवहार का अध्ययन हमें भाषा की जटिलता और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक आयामों को समझने में मदद करता है। भाषा व्यवस्था एक संरचनात्मक और नियमबद्ध आधार प्रदान करती है, जो भाषा को सुसंगत बनाती है, जबकि भाषा व्यवहार उसका जीवंत और रचनात्मक उपयोग दर्शाता है। इन दोनों के बीच का संतुलन भाषा को एक जीवित और विकासशील प्रणाली बनाता है। इनकी पद्धतियाँ, चाहे वे संरचनावादी, कार्यात्मक, उत्पत्तिवादी, समाजभाषावैज्ञानिक, मनोभाषावैज्ञानिक या उपयोगवादी हों, भाषा के विभिन्न पहलुओं को समझने में सहायक हैं। इस प्रकार, भाषा व्यवस्था और व्यवहार का अध्ययन न केवल भाषा की संरचना और उपयोग को समझने में, बल्कि मानव समाज, संस्कृति और विचार प्रक्रियाओं को समझने में भी महत्वपूर्ण योगदान देता है।
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