बारिश की बूंद बारिश की बूंद, धीरे धीरे कमरे के कोने में टपक रही है। बिजली बत्ती नहीं है, न नल में पानी। होगी कोई समस्या, कहीँ पेड़, पहाड़ गिर गया होग
बारिश की बूंद
बारिश की बूंद, धीरे धीरे कमरे के कोने में टपक रही है। बिजली बत्ती नहीं है, न नल में पानी। होगी कोई समस्या, कहीँ पेड़, पहाड़ गिर गया होगा। सड़क परबाहर लगातार नाला बह रहा होगा। बारह घंटे से अधिक समय से बारिश हो रही है, कोहरा गहरा है, सामने कुछ नहीं दिख रहा। चिड़िया चेह चाहा रही है। वो समय से आ जाती है, धूप हो, बारिश हो बर्फ हो, सूरज ने रोशनी करी, चिड़िया, विभिन्न प्रकार की चिड़िया इधर उधर फुदक्ति, उड़ती आ जाती हैं। आप की श्रद्धा, दाना डालो, न डालो उन का मधुर स्वर शांत नहीं होता, वो प्रफुल्लित मन से गाती रहती हैं।
पेड़ तेज बारिश से सराबोर हैं। काई और फर्न से लद चुके है। आडू के फल, जल संचय कर रहे हैं, देखो कब तक बंदर के हाथ व दांत से बचते हैं। बच गए तो भोग लग जायेगा, ना तो जंगली जीव का आभार की हम उन के वन में भवन बना कर रह रहे।
ये भवन बहुत पुराना है। चुने, पत्थर से बना है। चौडी दीवार, आज कल की चार ईंट जितनी, लकड़ी के दो पल्ली दरवाजे, सात दरवाजे, दिन भर खुले, रात को ध्यान से बंद करो। शहर वाले समझ नहीं पाते कि इतने दरवाजे खिड़की क्यों है? पुराने समय में रोशनी हवा के लिए, चारों ओर से अतिथि के स्वागत के लिए। जी, अतिथि, जब चाहो आ जाओ, घर में कोई ना कोई मिल जायेगा, ताला नहीं मिलेगा। रहो, जब तक जी चाहे रहो, अपना घर है। दिक्कत क्या होनी, तीस की चालीस रोटी, आठ मुट्ठी का दस मुट्ठी चावल दाल पका लो। साग खेत से निकाल बना लो। लकड़ी कोयला ईंधन भरा है जला लो। कोई दिक़्क़त नहीं।
इसी भवन में रहते थे, मन्नू दा, पूरा नाम मन्वेंद्र चंद्र पंडा। तीन भाई, ताई, ताऊ, बुआ, माँ इजा और पिता बाबू जी। बुआ को दादाजी, घर ले आये, जब दमाद ही न रहा, तो बेटी ससुराल में चाकरी नहीं करेगी। दादा जी अंग्रेज़ों के कर्मचारी थे, अच्छी तंख्वा और आमदनी थी। ताऊ की दो बेटियाँ भी भाई के साथ पढ़ती रहती।
दोनों बेटे भी ठाट की नौकरी करते, सूट, बूट पहनते। बच्चों ने सरकारी विदेश सेवा, रुद्रर्पुर विश्विविद्यालय और जर्मनी की कार कंपनी में कार्य कर लिया। बाबू ने घर छोड़ दिया। आडु के पेड़, शाहतुत के आस पास फलते फूलते पिता जी के साथ करनेवालों ने भवन अपना लिया।
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“बहनजी, मुख्य प्रवेश पर बड़ी गाड़ी आई है।” लोहे का गेट खुला, एक दुबली पतली महिला और अधेड़ उमर के पुरुष ने एक छोटे से छाते से बौछार से बचते हुए सीढ़ी पर उतरने का उपक्रम करा।
“बैठक वाला दरवाजा खोल बैठा ले, अक्कु। मैं चप्पल बदल कर आ रही।”
“बैठिये, जूते मत उतरिये। लाइट नहीं है।” मोम बत्ती जलाते हुए आगंतुक से कहा। ss
“जी नमस्ते, मैं शोभा, मेरी नानी शायद इस घर में पली हैं। राधिका पंडा, मन्वेंद्र, मंझले नानु की चचेरी थी। याश, मेरे साथी, वेगास से।”
“ओ, नमस्ते"
"रुद्रर्पुर विश्विविद्यालय के वी सी।”
“सही, उन का, आप की नानी का विवाह, ललित मोहन पन्ता से हुआ था।”i
“जी, मेरे नाना। मैं उन का घर ढूँढ रही थी। उस पर दो ऊँचे ऊँचे, गिरजे जैसे नोकदार मीनार थे। क्या आप को पता है? आप कब से यहाँ रहती हैं?”
“हाँ, यहीं पहाड़ी पर नीचे था। पिछले वर्ष बिक गया। अब चार मंज़िल इमारत बन रही। शायद प्रमिला मिस, आप की मौसी, मेरी शिक्षिका थी।”
“औ, हमने आने में देर कर दी। मेरा बहुत मन था माँ का, नानी वाला घर देखने का, न जाने उस घर में कितनी मौज करी, जब मौका मिलता आ जाती थी।”
“देख लिजये, अभी केले का झुंड, नाशपाती और अखरोट का पेड़ वहीं है।”
“तीन दिन से खोज रहे, कोई नहीं बता पाया। बाजार में किसी ने कहा आप यहाँ सब से पुराने हो, आप को पता होगा।”
“हाँ, बात सही है।”
“ये नानी के बचपन का घर, क्या आप ने इसे बदला है?”
“नहीं, बस रंगाई पुताई। हमने बागीचे के पत्थर भी नहीं पलटे। कई पेड़ मेरे जन्म से पहले के है, शायद सतर अस्सी वर्ष के, जब लाइट पानी, घर घर नहीं थे, जैसी आज।”
“उस समय खपरेल की छत रही होगी?”
“थी, टिन की छत, पर पानी खूब टपकता था।”
“अब भी टपकता है। हम एक कोने में टपकने देते है। कोई बूंद लौट आती है, आप की तरह, किसी पुरानी याद जैसी। बूंद, भाप, बादल, नदी सागर के साथ दुनिया घूम कर भी अपने घर स्त्रोत लौट आती है। बूंद है ही ऐसी। आईये, भोजन करिये। बारिश रुक जाये तो बप्पी, आप के पर नाना के लगाये पेड का आडू खिलाये।"
उसी समय बिजली पानी भी आ गये, वर्षा धीमी हो गयी।
- मधु मेहरोत्रा
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