आत्मकारक ग्रह बनाम कर्मों की गठरी

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आत्मकारक ग्रह बनाम कर्मों की गठरी किसी भी कुंडली में जातक की आत्मा को परिभाषित करने वाला ग्रह आत्मकारक ग्रह कहलाता है। पत्रिका में जातक के पूर्व जन्

आत्मकारक ग्रह बनाम कर्मों की गठरी


किसी भी कुंडली में जातक की आत्मा को परिभाषित करने वाला ग्रह आत्मकारक ग्रह कहलाता है। पत्रिका में  जातक के पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर ही विधाता के द्वारा आत्मकारक ग्रह का निर्धारण होता है। र्ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को आत्मा का कारक कहा जाता है, अर्थात् सूर्य सभी जातकों की पत्रिकाओं में नैसर्गिक आत्मकारक ग्रह है। लेकिन जेमिनी ॠषि के अनुसार, इस नैसर्गिक आत्मकारक ग्रह के अलावा, अलग-अलग जातकों की पत्रिकाओं में, उनके वर्तमान जीवन में क्रियाशील अलग-अलग आत्मकारक ग्रह भी होते हैं।
 
न जायते न म्रियते वा कदाचिन्, नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

अर्थात् आत्मा न जन्मती है, न मरती है, यह नित्य और शाश्वत है। यह शरीर के नष्ट होने पर भी नहीं मरती।

पत्रिका में जो ग्रह सर्वाधिक डिग्री का होता है, वही जातक के वर्तमान जीवन के लिए आत्मकारक ग्रह की भूमिका अदा करता है। बहुत सारे ज्योतिष शास्त्री छाया ग्रह राहु-केतु को आत्मकारक ग्रह का पद प्रदान नहीं करते, अर्थात् वे सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि में से ही जिसकी डिग्री सर्वाधिक होती है, उसे आत्मकारक ग्रह की पदवी प्रदान करते हैं। इसे सात चर कारक विधि कहा जाता है। लेकिन अनेक ज्योतिष शास्त्री आठ चर कारक विधि का उपयोग करते हुए सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि और राहु में से जिसकी डिग्री सर्वाधिक होती है, उसे आत्मकारक ग्रह कहते हैं। चूँकि राहु की गति सदैव वक्री होती है, इसलिए आठ चर कारक विधि में, आत्मकारक ग्रह की खोज करते समय, राहु की जितनी भी डिग्री होती है उसे पहले 30° में से घटा लिया जाता है। केतु को किसी भी विधि में नहीं लिया जाता।

"पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारे I”

(पुनः जन्म, पुनः मृत्यु, पुनः माँ के गर्भ में रहना! संसार की इस प्रक्रिया को पार करना वास्तव में कठिन है। हे मुरारी, कृपया अपनी दया से मेरी रक्षा करें।)

यह सत्य सर्वविदित है कि जातक की आत्मा जन्म जन्मांतरों में भिन्न-भिन्न शरीर धारण कर, अंतहीन पथ पर यात्रा करती हुई, अपने कर्मों से ही अपने भाग्य का निर्माण करती है। कोई भी जातक आदर्श नहीं होता। इसलिए किसी भी सामान्य जातक के द्वारा पिछले जन्मों में कोई न कोई कार्य अधूरा छूट जाता है अथवा जातक की आत्मा के द्वारा पिछले जन्म में कोई विशेष कार्य करने में चूक हो जाती है अथवा संभव है कि उसके द्वारा पिछले जन्म में किसी विशेष कार्य को अनदेखा किया गया हो अथवा जातक किसी विशेष कार्य को चाहकर भी पूरा नहीं पाया हो क्योंकि उसे उसके पूर्व ही विधि के विधान के अनुसार देह त्याग करना पड़ा हो, उस अधूरे छोड़े हुए कार्य को पूरा करने हेतु अथवा अपनी अधूरी इच्छा को पूरा करने के लिए जातक पुनः जन्म लेता है तथा जातक की आत्मा को उस अधूरे छोड़े हुए कार्य को वर्तमान जीवन में पूरा करना होता है। आत्मकारक ग्रह जातक की वही अधूरी इच्छा या अधूरे छूटे हुए कार्य को इंगित करती है। तभी तो जातक को आत्मकारक ग्रह से संबंधित अनेक संघर्षों का सामना भी करना पड़ता है क्योंकि आत्मकारक ग्रह जातक को उस अधूरे कार्य को अथवा उस अधूरी सीख को पूरा करवाने के लिए सदैव प्रयास करता है।

आत्मकारक ग्रह की डिग्री जितनी कम होती है, जातक पर उस अधूरे छोड़े गए कर्मों का बोझ भी उतना ही कम होता है। आत्मकारक ग्रह की डिग्री जितनी अधिक होती है जातक के अधूरे कर्मों का बोझ उतना ही अधिक होता है।

आत्मकारक ग्रह बनाम कर्मों की गठरी
यदि पत्रिका में सूर्य आत्मकारक ग्रह हो तो संभव है कि पूर्व जन्म में जातक स्वार्थी व अकृतज्ञ रहा हो तथा उसने स्वार्थहीन होकर देने की कला न सीखी हो इसलिए वर्तमान जीवन में जातक को स्वयं को खपाकर/जलाकर, बलिदान देकर अपने परिवारजनों के लिए तथा दूसरों के उन्नयन के लिए प्रयास करना पड़ता है। इस स्थिति में जातक अपने परिवार का केंद्र बिंदु होता है। इसके अतिरिक्त ज्योतिष में सूर्य को राजा की पदवी प्राप्त है। यदि जातक की कुंडली में सूर्य आत्मकारक ग्रह होता है तो हो सकता है कि पिछले जन्मों में जातक का व्यक्तित्व बेहद प्रभावशाली रहा हो और जातक के क्रियाकलाप ओजस्वी रहे हो जिन्हें बीच में ही छोड़कर उसे देह त्याग करना पड़ा हो। ऐसी स्थिति में सूर्य से संबंधित अपने उन अधूरे छोड़े हुए कार्यों को पूरा करने हेतु ही जातक पुनः जन्म लेता है। अतः यदि सूर्य पत्रिका में आत्मकारक ग्रह होता है तो जातक राज सत्ता प्राप्त करने का इच्छुक हो सकता है, साथ ही वह राजसी गुण संपन्न, दैदीप्यमान व सात्विक व्यक्तित्व वाला, नेतृत्व क्षमता युक्त, आत्मविश्वासी, अनुशासित व जुनूनी हो सकता है। अर्थात् जातक में सूर्य जैसे गुणों की अधिकता हो सकती है। बहुत सारे डॉक्टर व ज्योतिषियों की पत्रिकाओं में सूर्य ही आत्मकारक ग्रह होता है।

यदि जातक की पत्रिका में चंद्रमा आत्मकारक ग्रह के रूप में मौजूद हो तो ऐसी स्थिति में हो सकता है कि पूर्व जन्मों में जातक में स्वार्थरहित भावनाओं की कमी रही हो अथवा उसने लोगों के साथ भावनाशून्य आचरण किया हो। संभव है कि उसका कोई भावनात्मक कार्य अधूरा रह गया हो अथवा माता की संबंधित उसके कोई कर्म अधूरे छूट गए हो। इसलिए इस जन्म में जातक भावनात्मक प्रकृति का व सौम्य व्यक्तित्व से युक्त हो सकता है तथा उसका संबंध ऐसे कई व्यक्तियों के साथ हो सकता है जो जातक के साथ भावनाशून्य आचरण करते हों भले ही वे उसके अपने ही क्यों न हों। वर्तमान जीवन में जातक के आसपास बहुत से ऐसे व्यक्ति हो सकते हैं (जातक के अपने सगे-संबंधी, मित्रगण, पति/पत्नी, भाई-बहन, बच्चे आदि), जिनसे वह भावनात्मक रूप से जुड़ाव महसूस करता हो लेकिन वे व्यक्ति उसके साथ भावनाशून्य व्यवहार करते हों। इस स्थिति में जातक अपने जीवन में कई बार भावनात्मक असुरक्षा, अशांति व उतार-चढ़ाव का अनुभव करता है।

यदि पत्रिका में मंगल आत्मकारक ग्रह के रूप में दिखाई दे तो ऐसी स्थिति में हो सकता है कि जातक ने अपने क्रियाकलापों से लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा की हो अथवा उसमें साहस का अभाव रहा हो इसलिए वर्तमान जीवन में जातक को लोगों की सुरक्षा हेतु साहसिक कार्य करना पड़ सकता है। हो सकता है कि पूर्व जन्मों में जातक की कोई साहसिक लड़ाई या कोई प्रतियोगिता अधूरी रह गई हो अथवा शारीरिक ऊर्जा से संबंधित कोई इच्छा अधूरी रह गई हो, जिसे वह चाहकर भी पूरा न कर पाया हो, इसलिए इस जन्म में जातक ऊर्जावान, साहसी, गुस्सैल, उग्र, जुनूनी, प्रतियोगी व लड़ाकू स्वभाव का हो सकता है। वह साहस, ऊर्जा व शारीरिक बल प्रदर्शित करने के मौकों की तलाश में रहता है।

यदि पत्रिका में आत्मकारक ग्रह बुध हो तो संभव है कि पूर्व जन्म में जातक में संचार कौशल या बातचीत की कला का अभाव रहा हो, इसीलिए वर्तमान जीवन में जातक को अनेक बार मध्यस्थता की भूमिका निभानी पड़ती है अथवा जातक को संचार से संबंधित विश्लेषणात्मक कार्य करना पड़ता है तथा अक्सर लोग ऐसे जातकों की कही हुई बात का गलत अर्थ निकालते हैं और जातक को पुनः-पुनः अपनी बात समझाना पड़ता है। इस स्थिति में जातक को सदैव सोच समझकर बोलना चाहिए। इसके अतिरिक्त जातक अपनी वास्तविक उम्र से सदैव कम दिखाई देता है और वह अपने यौवन को बचाए रखने के लिए सदैव प्रयासरत भी रहता है। जातक के स्वभाव में बाल-सुलभ चंचलता होती है। काल पुरुष की पत्रिका में बुध तीसरे और छटवें भाव का स्वामी होता है, बुध के आत्मकारक ग्रह होने से संभव है कि पूर्व जन्मों में जातक की किसी प्रतियोगिता को जीतने की इच्छा अधूरी रह गई हो अथवा कोर्ट-कचहरी में उसका कोई केस अधूरा रह गया हो या कोई ऑडिट का काम अधूरा रह गया हो या समाज में कोई संशोधन का कार्य अधूरा रह गया हो जिसे वह इस जीवन में पूरा करना चाहता हो।

यदि बृहस्पति किसी पत्रिका में आत्मकारक ग्रह हो तो संभव है कि पिछले जन्म में जातक ने उचित आचरण का पालन नहीं किया हो इस कारण वर्तमान जीवन में कई बार जिस भाव में आत्मकारक गुरु स्थित होता है, उस भाव के संदर्भ में उसके साथ न्याय नहीं होता अथवा उसके साथ बेईमानी हो जाती है। छटवें भाव से स्थित आत्मकारक गुरु अनेक प्रकार के रोगों का कारण भी बन सकता है। इस स्थिति में यदि जातक को किसी योग्य गुरु का मार्गदर्शन मिल जाता है तो उसके जीवन में सुधार आने लगता है। यह भी हो सकता है पूर्व जन्म में उसकी गुरु बनने की इच्छा अधूरी रह गई हो जिसे वह इस जन्म में पूरा करना चाहता हो। ऐसी स्थिति में जातक समाज के लिए कुछ अच्छा कार्य करने के लिए प्रयासरत हो सकता है। इसके अतिरिक्त संभव है कि जातक की धन से संबंधित अथवा संतान से संबंधित इच्छाएँ अधूरी रह गई हो क्योंकि बृहस्पति धन भाव तथा संतान भाव का भी कारक माना जाता है।

किसी पत्रिका में शुक्र आत्मकारक ग्रह हो सकता है। इस स्थिति में संभव है कि जातक में पूर्व जन्म में समर्पण व निष्ठा की कमी रही हो, इसीलिए वर्तमान जन्म में जातक के जीवन में ऐसे व्यक्तियों की कमी रहती है जो उसके प्रति समर्पित व निष्ठावान हों, जबकि वह स्वयं अपने साथी के प्रति पूर्ण समर्पित व निष्ठावान होता है। इस स्थिति में जातक वैवाहिक जीवन में परेशानियों का अनुभव कर सकता है। कई बार ऐसे जातकों के विवाह होने में भी दिक्कत आ सकती है। इसके अतिरिक्त काल पुरुष की पत्रिका में शुक्र दूसरे और सातवें भाव का स्वामी है अतः शुक्र धन, सुंदरता, रिश्ते, रचनात्मकता इत्यादि का कारक होता है, इसलिए यदि शुक्र आत्मकारक ग्रह हो तो संभव है कि पिछले जन्मों में जातक की धन से संबंधित अथवा सुंदरता से संबंधित या ललित कलाओं से संबंधित कोई इच्छा अधूरी रह गई हो जिसे वह इस जन्म में पूरा करने की इच्छा रखता है।

यदि शनि किसी पत्रिका में आत्मकारक ग्रह हो तो हो सकता है कि पूर्व जन्म में जातक ने अपने जीवन में कोई मेहनत न की हो, संभव है कि पूर्व जन्मों में जातक का सेवा से संबंधित कोई कर्म अधूरा रह गया हो, अथवा वह सेवा के द्वारा समाज में कोई बदलाव लाना चाहता था जो बीच में ही छूट गया, अथवा संभव है कि जातक की करियर अथवा लाभ से संबंधित कोई इच्छा अधूरी रह गई हो, जिसे उसे वर्तमान जीवन में पूरा करना पड़ता है। शनि के आत्मकारक ग्रह होने की स्थिति में जातक को जीवन भर कठिन मेहनत करके संघर्षों का सामना करना पड़ सकता है, विशेषकर शनि की महादशा में अत्यधिक संघर्षों का सामना करना पड़ सकता है। जातक को बगैर कठिन परिश्रम के कुछ भी हासिल नहीं होता। उसे जीवन भर सेवा कार्य में संलग्न रहना पड़ सकता है। बहुत सारे ज्योतिषियों की पत्रिकाओं शनि ही आत्मकारक ग्रह के रूप में मौजूद रहता है।

आठ चर कारक विधि में राहु को भी आत्मकारक ग्रह का दर्जा प्राप्त हो सकता है। यदि पत्रिका में राहु आत्मकारक ग्रह हो तो संभव है कि पूर्व जन्म में जातक ने लोगों को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल किया हो अथवा चालाकी से अपना काम निकलवाया हो, इसीलिए वर्तमान जीवन में जातक को लोग भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल कर सकते हैं अथवा उसे लोगों की चालाकी भरे व्यवहार का सामना करना पड़ सकता है।

इसके अलावा यह भी माना जाता है कि आत्मकारक ग्रह जिस भाव में उपस्थित हो, उस भाव से संबंधित कार्य पूर्व जन्मों में अधूरे रह हैं, जिसे वह इस जन्म में पूरा करना चाहता है। उदाहरण के लिए यदि आत्मकारक ग्रह प्रथम भाव में स्थित है तो जातक की स्वयं के उन्नयन में अत्यधिक प्रयासरत होगा क्योंकि यही वह कार्य है जो वह पिछले जन्म में अधूरा छोड़ आया है। यदि द्वितीय भाव में आत्मकारक ग्रह हो तो जातक अपने कुटुंब तथा धन के प्रति अत्यधिक सचेत हो सकता है तथा उनकी उन्नति के लिए प्रयास कर सकता है। यदि आत्मकारक ग्रह तीसरे भाव में उपस्थित हो तो जातक छोटी-छोटी यात्राएँ करने तथा स्वयं का कोई कार्य शुरू करने में प्रयासरत हो सकता है। अगर चौथे घर में उपस्थित है तो संभव है कि जातक की अपनी माता, अपना मकान या वाहन से संबंधित कोई इच्छा पूर्व जन्म में अधूरी रह गई होती है जिसे वह इस जन्म में पूरा करना चाहता हो। 

इस प्रकार यदि आत्मकारक ग्रह पंचम भाव में स्थित हो तो जातक अपनी संतान, अपनी पढ़ाई अपने शौक अथवा अपनी रचनात्मकता को लेकर अत्यधिक सचेत हो सकता है क्योंकि जातक की इन्हीं में से कोई एक इच्छा पूर्व जन्म में अधूरी रह गई थी। यदि आत्मकारक ग्रह छटवें भाव में हो तो जातक सेवा कार्य अथवा अपनी जॉब को लेकर संवेदनशील होता है। उसी प्रकार यदि सातवें घर में आत्मकारक ग्रह स्थित हो तो संभव है कि जातक की व्यवसाय अथवा रिश्ते (पति/पत्नी के) को लेकर कोई इच्छा अपूर्ण रह गई हो जिसे वह इस जीवन में पूर्ण करना चाहता हो। यदि आठवें भाव में आत्मकारक ग्रह हो तो जातक का  झुकाव गुप्त विद्याओं की ओर हो सकता है। यदि नवम  भाव में आत्मकारक ग्रह हो तो संभव है कि जातक का अपने पिता अथवा धर्म से संबंधित कोई कार्य अधूरा रह गया होता है जो उसे वर्तमान जीवन में पूरा करना होता है। उसी प्रकार यदि दसवें भाव में आत्मकारक ग्रह स्थित हो तो जातक अपनी हैसियत या प्रतिष्ठा को लेकर अत्यधिक सचेत होता है। यदि ग्यारहवें भाव में आत्मकारक ग्रह स्थित हो तो जातक अपने लाभ को लेकर अत्यधिक संवेदनशील होता है। उसी प्रकार यदि बारहवें भाव में आत्मकारक ग्रह हो तो जातक या तो अत्यधिक भोगी होता है अथवा योगी होता है तथा मोक्ष की ओर प्रयासरत होता है, क्योंकि पूर्व जन्म में उसका यही कार्य अधूरा छूट गया था।

आत्मकारक ग्रह जातक की आयु को भी इंगित करता है। यदि आत्मकारक ग्रह की डिग्री कम होती है तो जातक पर कर्मों का बोझ भी कम होता है। ऐसी स्थिति में जातक वर्तमान जीवन में अपने छूटे हुए कर्मों को जल्द समाप्त करके इस संसार को अल्पायु में ही विदा कर जाता है। इसके विपरीत यदि आत्मकारक ग्रह की डिग्री अधिक होती है तो उसपर कर्मों का बोझ अधिक होता है, तब उसे उसके छूटे हुए कर्मों को पूरा करने में अधिक समय लगता है, जिस कारण उसकी आयु अधिक होती है। यदि पत्रिका में आत्मकारक ग्रह अशुभ प्रभाव में हो तब भी जातक को अपने पूर्व जन्म के छूटे हुए कार्यों को करने में अधिक समय लगता है और उसकी आयु अधिक होती है।

आत्मकारक ग्रह की महादशा में विशेष रूप से जातक को पूर्व जन्म के अधूरे छूटे हुए कार्यों को पूरा करने के लिए मेहनत करना पड़ता है, अर्थात् इस अवधि में जातक को पूर्व जन्म के कर्मों के बोझ को भुगतना पड़ सकता है। इसप्रकार पूर्व जन्म के छूटे हुए कर्मों के हिसाब-किताब से ही वर्तमान जीवन में पत्रिका के आत्मकारक ग्रह का निर्धारण होता है।


- डॉ. सुकृति घोष,
प्राध्यापक, भौतिक शास्त्र,
शा. के. आर. जी. कॉलेज,ग्वालियर, मध्यप्रदेश

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