संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएन) की स्थापना 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व शांति, सुरक्षा और सहयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई थी। यह एक
संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रासंगिकता और सुधारों की आवश्यकता
संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएन) की स्थापना 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व शांति, सुरक्षा और सहयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई थी। यह एक ऐसा मंच प्रदान करता है, जहां विभिन्न देश एक साथ आकर वैश्विक चुनौतियों जैसे युद्ध, गरीबी, जलवायु परिवर्तन, मानवाधिकार उल्लंघन और स्वास्थ्य संकटों का समाधान खोज सकते हैं। हालांकि, 21वीं सदी में बदलते वैश्विक परिदृश्य में संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता और इसके प्रभावी कार्यकरण पर सवाल उठ रहे हैं। इसके ढांचे में सुधारों की आवश्यकता एक महत्वपूर्ण चर्चा का विषय बन चुकी है, क्योंकि यह संगठन आज भी कई क्षेत्रों में प्रभावी है, लेकिन इसकी संरचना और कार्यप्रणाली में कई कमियां भी उजागर हुई हैं।
संयुक्त राष्ट्र का महत्व और योगदान
संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता को समझने के लिए इसके योगदान को देखना आवश्यक है। यह संगठन विश्व शांति और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसकी शांति स्थापना मिशन, जैसे कि कांगो और माली में चल रहे अभियान, संघर्षग्रस्त क्षेत्रों में स्थिरता लाने में सहायक रहे हैं। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न संगठन, जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ), यूनिसेफ और विश्व खाद्य कार्यक्रम, स्वास्थ्य, शिक्षा, भुखमरी और आपदा राहत जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान डब्ल्यूएचओ और कोवैक्स पहल ने टीकों के वितरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक मुद्दों पर पेरिस समझौते जैसे प्रयासों को बढ़ावा देने में संयुक्त राष्ट्र ने नेतृत्व प्रदान किया है। मानवाधिकारों की रक्षा और अंतरराष्ट्रीय कानून को लागू करने में भी इसका योगदान सराहनीय रहा है।
प्रासंगिकता पर सवाल
हालांकि, संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता पर सवाल इसलिए उठते हैं, क्योंकि इसकी संरचना और कार्यप्रणाली आज के जटिल वैश्विक परिदृश्य के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही है। सबसे बड़ी критика संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की संरचना को लेकर है, जिसमें पांच स्थायी सदस्यों—अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस—को वीटो शक्ति प्राप्त है। यह वीटो शक्ति अक्सर महत्वपूर्ण निर्णयों को अवरुद्ध करती है, खासकर तब जब इन देशों के हित टकराते हैं। उदाहरण के लिए, सीरिया और यूक्रेन जैसे संघर्षों में सुरक्षा परिषद प्रभावी कार्रवाई करने में असफल रही, क्योंकि स्थायी सदस्यों के बीच मतभेद थे। यह स्थिति संगठन की विश्वसनीयता को कम करती है और इसे बड़े देशों के हितों का उपकरण होने का आरोप लगता है।
संरचनात्मक कमियां
इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र की संरचना 1945 के युद्धोत्तर विश्व को दर्शाती है, जो आज के बहुध्रुवीय विश्व से काफी अलग है। उस समय की महाशक्तियों को प्राथमिकता दी गई थी, लेकिन आज भारत, ब्राजील, जर्मनी और जापान जैसे देश वैश्विक मंच पर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, फिर भी उन्हें सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता नहीं मिली है। यह असंतुलन संगठन को कम प्रतिनिधित्व वाला बनाता है। इसके साथ ही, संयुक्त राष्ट्र की नौकरशाही और धीमी निर्णय प्रक्रिया भी इसकी प्रभावशीलता को कम करती है। कई बार इसके मिशन और कार्यक्रमों को धन की कमी और समन्वय की कमी के कारण अपेक्षित परिणाम नहीं मिलते।
सुधारों की आवश्यकता
सुधारों की आवश्यकता को देखते हुए कई सुझाव सामने आए हैं। सबसे महत्वपूर्ण सुझाव सुरक्षा परिषद के विस्तार और वीटो शक्ति में सुधार का है। कई देश, विशेष रूप से जी4 (भारत, ब्राजील, जर्मनी, जापान), स्थायी सदस्यता की मांग कर रहे हैं, ताकि परिषद अधिक समावेशी और प्रतिनिधित्वकारी बन सके। इसके अलावा, वीटो शक्ति को सीमित करने या इसे कुछ विशेष परिस्थितियों में लागू करने के प्रस्ताव भी दिए गए हैं, जैसे कि नरसंहार या मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में। संयुक्त राष्ट्र की वित्तीय प्रणाली में भी सुधार की आवश्यकता है, क्योंकि संगठन मुख्य रूप से कुछ बड़े देशों के योगदान पर निर्भर है, जो अक्सर अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं। इसके लिए एक अधिक पारदर्शी और समान वित्तीय योगदान प्रणाली की आवश्यकता है।
इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र को नई वैश्विक चुनौतियों, जैसे साइबर युद्ध, आतंकवाद और कृत्रिम बुद्धिमत्ता से उत्पन्न जोखिमों, से निपटने के लिए अपनी प्रणाली को आधुनिक बनाने की आवश्यकता है। इन क्षेत्रों में स्पष्ट नीतियां और कार्रवाई की कमी संगठन की प्रासंगिकता को और कम कर सकती है। साथ ही, क्षेत्रीय संगठनों जैसे अफ्रीकी संघ या आसियान के साथ बेहतर समन्वय स्थापित करने से संयुक्त राष्ट्र की प्रभावशीलता बढ़ सकती है।
प्रासंगिकता बनाए रखने की चुनौती
संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि यह बदलते समय के साथ खुद को ढाल ले। यह संगठन आज भी विश्व के लिए एक महत्वपूर्ण मंच है, जहां छोटे और बड़े देश अपनी बात रख सकते हैं। लेकिन अगर यह अपनी कमियों को दूर नहीं करता और सुधारों को लागू नहीं करता, तो इसकी विश्वसनीयता और प्रभावशीलता कम हो सकती है। सुधारों का रास्ता जटिल है, क्योंकि इसके लिए सभी सदस्य देशों के बीच सहमति आवश्यक है, और स्थायी सदस्य अपनी शक्ति को कम करने के लिए आसानी से तैयार नहीं होंगे। फिर भी, वैश्विक शांति, सुरक्षा और सहयोग के लिए संयुक्त राष्ट्र की भूमिका अपरिहार्य है। इसे और अधिक समावेशी, पारदर्शी और प्रभावी बनाने के लिए सुधार न केवल आवश्यक हैं, बल्कि समय की मांग भी हैं। केवल तभी यह संगठन 21वीं सदी की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होगा और विश्व के लिए प्रासंगिक बना रहेगा।
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