कुंडली | हिंदी कहानी

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कुंडली नवंबर की गुनगुनी धूप में बैठकर थके मन का लेखा-जोखा करने लगी। सवेरे 5:00 बजे उठकर 1:00 बजे तक खटने के बाद सिकुड़े तन को धूप सहलाकर आराम दे रही थ

कुंडली


वंबर की गुनगुनी धूप में बैठकर थके मन का लेखा-जोखा करने लगी। सवेरे 5:00 बजे उठकर 1:00 बजे तक खटने के बाद सिकुड़े तन को धूप सहलाकर आराम दे रही थी। लेकिन टूटा मन, बिखरा वर्तमान, अस्त-व्यस्त भविष्य… इसे कैसे संभालूं… कुछ समझ में नहीं आरहा है।
 
ढेर सारे सुंदर सपने लेकर जानू के साथ आई थी। हालांकि जानू ऑफिस में साधारण क्लर्क थे, पर मुझे स्वयं पर विश्वास था कि मैं अपने प्यार से, स्नेह से उन्हें आगे पढ़ाई के लिए मना कर प्रगति का द्वार प्रशस्त करूंगी लेकिन उनके आलसी स्वभाव के कारण सफल न हो सकी। जीवन की जरूरत  बढ़ती चली गईं। आभा और आशू भी अब आ चुके थे। जानू जरूरत के खर्चे पर भी पाबंदी लगाकर आभा, आशू को गली के साधारण स्कूल में पढ़ाना चाहते थे। मुझे यह बिल्कुल मंजूर नहीं था। मैं स्वयं तो अभाव में जी सकती थी, पर बच्चों के भविष्य के साथ कोई भी समझौता करने को तैयार नहीं थी।

कुंडली
अब मैंने अपने जीवन के सारे सुंदर सपने बच्चों के नाजुक कंधों पर टिका दिए थे। मैं अपना सुंदर भविष्य उनमें साकार होते देखना चाहती थी। बस इसी को लेकर मुझ में और जानू में मतभेद रहने लगा। जानू मेरी सोच-समझ पर अंकुश लगाना चाहते थे। लेकिन मुझे आत्मविश्वास विरासत में मिला था। जानू की हर समय की खीज के बाद भी बच्चों की प्रगति में उनका सहयोग करती रही।

बच्चे अपना परीक्षाफल जानू को दिखाते और कहते- ‘ पापा देखिए हमारा परीक्षाफल और हस्ताक्षर कर दीजिए। ’ 
- ‘ हां ठीक है, ठीक है अपनी मां से कर लो।‘
 
जानू कभी उनका उत्साह नहीं बढ़ाते। मैं तो आज तक समझ नहीं सकी… उनका जीवन के प्रति नजरिया क्या है..? ना कभी वर्तमान की बातें, ना भविष्य की। बस जीवन को बोझ समझ कर ढोते  रहो। ऐसे नीरस जीवनसाथी से मैं बहुत उदासीन हो गई थी।

आभा की 12वीं और आशू का दसवीं का रिजल्ट आया। मैं और बच्चे बहुत खुश थे, क्योंकि अंक बहुत अच्छे आए थे। तब खुश होकर बच्चों ने जानू को अपने-अपने अंक बताए तो वह बोले- 
-‘ कोई खास बात नहीं है, हाई स्कूल में, इंटर में अंक लाना… कुछ बनोगे तब देखूंगा।‘
 
1 साल की कोचिंग के बाद आभा डॉक्टरी में आ गई। 2 साल बाद आशू भी इंजीनियरिंग में आ गया। मेरे तो मन की मुराद पूरी हो गई। बच्चों का भविष्य उज्जवल दिखने लगा। 

दोनों की पढ़ाई के खर्च की वजह से घर में बहुत खींचातानी हो रही थी। छोटी-छोटी बात पर जानू झल्ला जाते थे, जबकि दोनों बच्चे बहुत किफायत से, समझदारी से खर्च करते। फिर भी खर्च तो बढ़ ही गया था। मैं जानू के खाने पीने का, सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखने की कोशिश करती थी, फिर भी शायद उनको लगता था कि सब उनके मर्जी के मुताबिक नहीं हो रहा है।

जब आभा की पढ़ाई पूरी हो गई और वह प्रेक्टिस करने लगी, तो उसने अपने सीनियर से शादी करने की इजाजत मुझसे और जानू से मांगी। जानू यह सुनकर बिगड़ गए कि वह अन्य जाति का है पर मुझे कोई खास दोष नजर नहीं आया क्योंकि आभा उसे अच्छी तरह जानती,  समझती थी। दोनों की सोच समझ मिलती थी। हमारी तरह एक पूर्व और पश्चिम नहीं थे। जीवन में बराबर का तालमेल ज़रूरी है। वरना हमारी तरह सब उखड़ा उखड़ा रहता है।। प्यार, आभा के जीवन में दस्तक दे रहा था मैं जिससे जीवन भर वंचित रही थी। 

बहुत कहने सुनने के बाद भी जानू तैयार नहीं हुए, तो आशू ने जाकर कोर्ट में कोर्ट से उनकी शादी करवा दी। मैं जा तो नहीं सकी पर मेरा आशीर्वाद उनके साथ था। जानू का कहना था- सब तुम्हारा किया धरा है। अभी तो जाने क्या-क्या देखना है।

मुझे तो बस बच्चों की खुशी और प्रगति चाहिए थी। मैं अपनी तरह बच्चों को घुट घुट कर जीते नहीं देख सकती थी। इसलिए मैं जानू की सब बातें कड़वी दवाई समझकर चुपचाप पी जाती थी। अब मंजिल मेरे नजदीक थी।

कुछ दिन बाद आशू भी पुणे में सेटल हो गया। सुशील, सुंदर बेटी जैसी बहू आ गई। मेरे तो रोम रोम करके सारे सपने साकार हो गए, परंतु हम दोनों की दूरी, लकीर से खाई बन गई। जानू बच्चों से खुश नहीं थे। उनके खर्च उन्हें फिजूल लगते। नौकर, कामवाली, सफाई वाली सब बर्बादी की बातें लगती। घूमना-फिरना, उनके ऐश्वर्य - आराम देख-देख चिढ़ते रहते। मैं शांत, मूढ़मति सी चुप रहकर आखिर कब तक झेलती… कभी-कभी बोल देती - ‘अपनी कमाई है… करने दो, जो करते हैं।’ बस फिर तो और चिढ़ जाते, लड़ने लगते। घर में अशांति ही या अशांति हो जाती… बस अब तो हमारा बोलना-चालना जरूरत भर का है। चुप रहने में ही भलाई नजर आती है। एक छत के नीचे रहकर भी मीलों की दूरी है। पता नहीं ये मेरे भाग्य की विडम्बना है या व्यवहार की… आज तक समझ नहीं सकी।

घर को मंदिर बनाने की कल्पना लेकर आई थी, परंतु खंडहर ही संजो पाई। अब तो कभी-कभी यह जीवन निरर्थक सा लगता है। वैसे ससुराल वालों को, मायके वालों को, पास-पड़ोस को, बहू या दामाद को मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं रही। सब लोगों का प्यार, स्नेह, आशीर्वाद भरपूर मिला है। यही मेरे नीरस जीवन की जमा पूंजी है। लेकिन जानू से मेरी कुंडली क्यों नहीं मिली… इसका अभाव तो मुझे अंत तक रहेगा।



- बृज गोयल,
मवाना रोड, मेरठ
मोबाइल नंबर -9412708345

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