दयानंद दर्शन की वर्तमान में उपादेयता 21वीं सदी के शुरू के दो दशक भारी बदलाव के दशक हैं। वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई उन्नति ने हमारे
दयानंद दर्शन की वर्तमान में उपादेयता
21वीं सदी के शुरू के दो दशक भारी बदलाव के दशक हैं। वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई उन्नति ने हमारे समाज को बदल कर रख दिया है। यातायात और संचार के क्षेत्र में हुई क्रांति ने विश्व को एक छोटा सा गांव बना दिया है। इससे विभिन्न संस्कृतियां एक - दूसरे के नजदीक आई और एक - दूसरे में घुल मिल गई। एक नए समाज का जन्म हुआ। इस नए समाज में दयानंद दर्शन की उपादेयता बढ़ गई है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी के विचार आज हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। उनका व्यक्तित्व हमें आज उत्तर दिशा में आकाश में चमक रहे ध्रुव तारे की तरह प्रकाश देता दिखाई दे रहा है।
विषय वस्तु
स्वामी दयानंद सरस्वती जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग हिंदू धर्म के उत्थान में किया। उनके विचारों ने समाज में क्रांति ला दी। शिक्षित और प्रबुद्ध वर्ग उनके पीछे लामबंद हो गया। उन्होंने लोगों का नेतृत्व किया और एक आदर्श समाज बनाने की दिशा में कार्य किया। एक आदर्श समाज के लिए जरूरी है कि लोग आपस में मिल जुल कर रहें। उन्होंने मानव व्यवहार को ही सफलता का मूल मंत्र बताया। उन्होंने अपनी पुस्तकों में एक आदर्श समाज की परिकल्पना की और इस उद्देश्य की प्राप्ति का मार्ग भी बताया।
प्रासंगिकता
स्वामी दयानंद सरस्वती जी के समय भारत में अंग्रेजों का राज था। अंग्रेज आर्थिक रूप से तो देश का शोषण कर रहे थे परंतु शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने एक क्रांति को जन्म दिया। शिक्षित व्यक्ति अंधभक्त नहीं होता।वह तर्क को आधार मानकर प्रत्येक वस्तु को देखता है। शिक्षा के क्षेत्र में उन्नति करते हुए आज हम कम्प्यूटर युग को भी लांघते हुए कृत्रिम होशियारी (आर्टिफिशल इंटेलिजेंस) के युग में पहुंच गए हैं। परंतु 21वीं सदी के तीसरे दशक में भी मानवीय भावनाएं वहीं हैं जहां आज से दो सदी पहले थी। विभिन्न युगों में विभिन्न महापुरुषों ने हमारे समाज का मार्गदर्शन किया। इन महापुरुषों में स्वामी दयानंद सरस्वती जी का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। अपने समय में स्वामी दयानंद जी ने तर्क को आधार बनाकर धार्मिक क्रियाओं को देखने का आग्रह किया। आज दो सौ वर्ष बाद भी देश की धार्मिक और सामाजिक स्थिति वैसे ही बनी हुई है। वर्तमान समय में स्वामी दयानंद सरस्वती जी के विचार हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। स्वामी जी के समाज दर्शन और व्यवहार संदेश की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
महत्व
अमावस्या की काली घनेरी रात में जब चांद भी नहीं होता, तब उत्तर दिशा में ध्रुव तारा अपने प्रकाश से अपने महत्व का डंका बजा रहा होता है। उसका प्रकाश ही उसकी महानता को सिद्ध कर देता है। स्वामी जी की समाजसेवा व उच्च चरित्र वाले व्यक्तित्व ने उन्हें समाज में पहचान दिलाई। उन्होंने मानवता की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया। आज 21वीं सदी में भी स्वामी जी के समाज दर्शन व व्यवहार संदेश का महत्व बना हुआ है।
मुख्य शब्द
उपादेयता, मार्गदर्शन, आदर्श समाज, नेतृत्व, मानव व्यवहार, सामाजिक, प्रासंगिकता, राष्ट्रभाषा, वैदिक, वर्ण, मूर्तिपूजा, पाखंड, कुरीति, प्रमाण , तर्क, जन्मना, शूद्र, यज्ञोपवीत।
दयानंद दर्शन की वर्तमान में उपादेयता
स्वामी दयानंद का जन्म 1824 में काठियावाड़ के मोरवी नामक नगर में एक पुरातनवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ। [1] वह रियासत के कर्मचारी थे और शिव भक्त थे। पिता ने उनका नाम मूलशंकर रखा था। चौदह वर्ष की अवस्था में आपने शिवरात्रि के दिन शिवजी की मूर्ति पर एक चूहे को चढ़ते देखा तथा तब आपके मन में मूर्ति के संबंध में शंका उत्पन्न हो गई मूर्ति पूजा पर शंका ही पिता को अप्रसन्न करने के लिए पर्याप्त थी। [2] विवाह से बचने और सत्य की खोज करने के लिए उन्होंने एक दिन स्वयं ही घर को त्याग दिया। बाईस वर्ष सत्य की खोज में लगे रहे। देश के कोने-कोने का भ्रमण करने के उपरांत, अंत में आप मथुरा चले आए और स्वामी विरजानंद नामक एक प्रज्ञाचक्षु संन्यासी से संस्कृत, व्याकरण, और वैदिक साहित्य पढ़ा। स्वामी विरजानंद अंधे थे। परंतु उन्होंने स्वामी दयानंद की आंखें खोल दी। स्वामी दयानंद को ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे लगभग ३८ वर्ष की अंध कोठरी की कैद से सहसा सूर्य के प्रकाश में लाए गए हों। उनके सब संशय दूर हो गए। स्वामी दयानंद अपने गुरु से विदा होने लगे तब स्वामी विरजानंद ने उनसे वैदिक धर्म का पुनरुद्धार करने का आग्रह किया। [3] वेद ईश्वरीय ज्ञान है।, अतः स्वयं प्रमाण है। [4] मूर्ति पूजा पुराणों से विहित है, परंतु वेद विरुद्ध होने से त्याज्य है। [5] वर्ण चार हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। परंतु इसका आधार गुण, कर्म और स्वभाव है, जन्म नहीं। इसका अर्थ यह कि हिंदुओं को वर्तमान जात - पात त्याज्य है। [6]बाल विवाह सर्वथा वेद विरुद्ध है। [7] बाल विधवा विवाह होना चाहिए। [8] सनातनी पंडितों, मुसलमान मौलवियों, ईसाई पादरियों आदि से शास्त्रार्थ करके उन्होंने एक और सिद्धांत ठहराया और वह यह कि संसार के भिन्न-भिन्न धर्म और भिन्न-भिन्न भाषाएं चाहे वे यूरोपीय हों या एशियाई, केवल वैदिक धर्म और संस्कृत भाषा के विकृत रूप हैं। इस प्रकार 1875 में उन्होंने आर्य समाज की स्थापना कर सबके लिए उसका द्वार खोल दिया और समाज सुधार का स्तुत्य प्रत्यन किया। उन्होंने 'सत्यार्थ प्रकाश' नाम का ग्रंथ लिखा। [9]
स्वामी दयानंद सरस्वती ने इस देश में सर्वप्रथम, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया। वेद हिंदी और स्वदेश प्रेम की शिक्षा देकर स्वामी दयानंद ने आर्य समाज को सार्वदेशिक बना दिया। सन् 1883 में अजमेर में दिवाली के दिन इस महान विभूति का स्वर्गवास हो गया। [10] भारत में समय - समय पर अनेक समाज सुधारकों ने समाज सुधार का कार्य किया। परंतु महर्षि दयानंद और उनमें मूल अंतर यह था कि महर्षि दयानंद ने धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड और कुरीतियों को शास्त्रों से सटीक प्रमाण देकर धर्म विरुद्ध सिद्ध किया। साथ ही धर्म के सत्य व सरल स्वरूप को प्रतिपादित किया। इसके परिणामस्वरूप जनता ने महर्षि दयानंद के लिए सुधारों को बढ़ - चढ़ कर स्वीकारा और सुधारों की क्रांति ने भारत के जन - जन को ओट दिया। महर्षि दयानंद के बाद उनके अनुयायियों ने उनके समाज सुधार के कार्य को आगे बढ़ाया। [11] महर्षि दयानंद सरस्वती ने भारत में फैले जातिवाद का हर स्तर पर विरोध किया।महर्षि दयानन्द ने अनेक प्रमाण और तर्क देकर सिद्ध किया कि इन प्रचलित जन्मना जातियों का कोई शास्त्रीय आधार नहीं है और न ही इनका कोई उल्लेख किसी शास्त्र में मिलता है। जन्मना जाति-व्यवस्था वेद विरुद्ध है। इसलिए जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था का निर्माण समूल नाश होना चाहिए। उन्होंने कहा कि गुण - कर्म - स्वभाव आधारित वर्ण व्यवस्था ही वेद सम्मत है। [12] स्वार्थी लोगों ने शूद्रों के वेद पढ़ने पर रोक लगा रखी थी। महर्षि दयानंद ने घोषणा की कि वेद पढ़ना प्रत्येक मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है। [13] महर्षि ने कहा कि सब मनुष्यों को बिना भेदभाव के समान अधिकार मिलने चाहिए। कोई व्यक्ति जन्म के आधार पर ऊंचा या नीचा नहीं हो सकता [14] महर्षि ने जन्म के आधार पर छुआछूत का प्रबल विरोध किया। [15] महर्षि दयानंद ने सभी हिंदुओं से जाति बंधन तोड़कर आपस में विवाह करने का आह्वान किया। [16] एक ओर तो शास्त्रों में नारी को पूज्य बताया गया था जबकि दूसरी ओर नारी की स्थिति पांव की जूती के समान थी। स्वार्थी जनों ने नारी को अधिकारहीन बनाकर उसकी स्थिति पशुओं से भी बदतर बना रखी थी। महर्षि दयानंद ने एक ओर समाज में फैली नारी शोषक कुरीतियों का विरोध किया, वहीं दूसरी ओर नारी को उसके जन्मसिद्ध अधिकार भी दिए। [17]
महर्षि दयानंद सरस्वती ने शास्त्रों से प्रमाण देकर घोषणा की कि स्त्री पुरुष समान हैं। उनमें किसी कि स्तर ऊंचा या नीचा नहीं है। [18] महर्षि दयानंद ने शास्त्रों से प्रमाण देकर सिद्ध किया कि यज्ञोपवीत विद्या कि चिन्ह है और इतिहास में अनेक विदूषी नारियों का वर्णन आता है। अतः पुरुषों की भांति स्त्रियों को भी यज्ञोपवीत पहनने का समान अधिकार है। [19]स्वार्थी लोगों ने स्त्रियों को असहाय बनाए रखने के लिए उनके पढ़ने लिखने पर रोक लगा रखी थी। कुछ समाज सुधारकों ने बालिकाओं के लिए कुछ पाठशालाएं गोली थी। परंतु ज्यादातर स्त्रियों के लिए पढ़ाई असंभव बात थी। ऐसे में महर्षि दयानंद सरस्वती ने नारी को शिक्षा का समान अधिकार था। [20] स्वार्थी लोगों ने भी स्त्रियों के वेद पढ़ने पर रोक लगा रखी थी। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने घोषणा की कि वेद पढ़ना स्त्री सहित प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। [21] जब नन्हे मुन्ने बच्चों को गोदी में लेकर विवाह कर दिया जाता था। उस काल में सर्वप्रथम महर्षि दयानंद जी ने शादी के लिए न्यूनतम आयु (लड़के की 25 वर्ष एवं लड़की की 16 वर्ष घोषित की।) [21] मर्द अनेक स्त्रियों से विवाह कर लेते थे और वे स्त्रियां अनेक दुःख सहती थी। महर्षि दयानंद जी ने शास्त्रों से प्रमाण देकर सिद्ध किया कि मर्द - औरत को एक समय में एक ही विवाह करना चाहिए। [22] महर्षि दयानंद जी ने मांसाहार का कड़ा विरोध किया और शाकाहार को मनुष्यों का भोजन बताया। महर्षि दयानन्द ने सभी प्रकार के नशे का विरोध किया। वस्तुतः समाज सुधारक का जो कार्य कबीर और महानतम कवि तुलसीदास भी नहीं कर सके वह कार्य स्वामी दयानंद सरस्वती ने कर दिखाया। स्वामी जी भारतीय धर्म और संस्कृति के नवीनतम बौद्धिक संस्करण थे। मेरी दृष्टि में वे आधुनिक भारत के सबसे बड़े एवं महान समाज सुधारक थे। वे गौतम बुद्ध के बाद सबसे बड़े समाज सुधारक हुए। स्वामी दयानन्द सरस्वती का समाज दर्शन सत्यार्थ प्रकाश के विशेष संदर्भ पर आधारित है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में इस पुस्तक की रचना की।
आज 21वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में भी दयानंद जी का समाज दर्शन अपनी उपादेयता बनाए हुए है। दयानंद सरस्वती जी 'सत्यार्थ प्रकाश' में लिखते हैं कि - "बुद्धिमान माता पिता को अपनी संतान की शिक्षा की उचित व्यवस्था करनी चाहिए। तांबे का सोना करना और पारे का चांदी बनाना, उन्हें यह बात मिथ्या जाननी चाहिए। अपने बालकों को हृदय में अच्छी रीति से यह बात निश्चय करानी चाहिए कि वीर्य की रक्षा करने से बुद्धि बड़ती है। क्योंकि वीर्य की रक्षा से बुद्धि, बल पराक्रम और धैर्य आदि गुण अत्यंत बढ़ते हैं। इससे बालकों को बहुत सुख की प्राप्ति होती है। इसमें यह उपाय है कि विषयों की कथा और विषयी लोगों का संग, विषयों का ध्यान कभी न करें। श्रेष्ठ लोगों के साथ विद्या का ध्यान करें। विद्या को ग्रहण करने में अपना मन लगाएं। "[23] स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने सार्वभौमिक शिक्षा का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि माता पिता तथा राज्य के लिए यह आवश्यक है कि सभी को अनिवार्य रूप से शिक्षित किया जाए। ताकि स्वयं वेदों अध्ययन कर उनके अनुकूल आचरण करें और दूसरों द्वारा दी गई व्याख्या को मानने के लिए बाध्य न हो। [24] स्वामी दयानंद सरस्वती जी के अनुसार शिक्षा जिससे विद्या सभ्यता, धर्मात्मा जितेन्द्रियता आदि की वृद्धि हो और अविद्या दोष दूर हो उसे शिक्षा कहते हैं। विद्या के पांच लक्षण हैं - विद्या प्रदान करना, सभ्य बनाना, धर्मात्मा बनाना, जितेन्द्रियता बढ़ाना और अविद्या से मुक्ति दिलाना। इस प्रकार शिक्षा में लौकिक और परलौकिक सभी चौदह विद्याएं आती हैं। सत्यार्थ प्रकाश के नौवें विभाग में स्वयं स्वामी दयानंद ने विद्या अविद्या के योग सूत्र के अनुसार अंतर किया है।अविद्या के कारण मनुष्य अनित्य को नित्य और अपवित्र को पवित्र समझता है। जबकि विद्या में दुःखों से छुटकारा मिलता है और इसी से मोक्ष की प्राप्ति होती है। [25] ज्ञान प्राप्ति के बाद स्वामी दयानंद जी ने वेदों का संदेश फैलाने और हिंदू धर्म की रुढ़िवादी अतार्किक परंपराओं का विरोध करने का संकल्प किया। हालांकि दयानंद जी का ब्रह्म समाज से लगाव बहुत ज्यादा था, परंतु वे वेदों की उम्र सर्वोच्चता और आत्मा के संचरण को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।
दयानंद सरस्वती जी संपूर्ण भारत के भ्रमण पर निकल पड़े। उन्होंने हिंदू लोगों में जाकर और तर्क प्रस्तुत कर, हिंदू धर्म पर बोझ बन गई परंपराओं को त्यागने का आह्वान किया। जहां शिक्षित वर्ग से उन्हें समर्थन मिला, वहीं ब्राह्मणों ने उनका विरोध किया। एक हिंदू व्यक्ति का तर्क को आधार मानकर चिंतन करना, ब्राह्मणवाद के लिए बहुत बड़ा खतरा था। उन्होंने दयानंद के रास्ते में कांटे बोने शुरू कर दिए। दयानंद जी अब समझ चुके थे कि। हिंदू धर्म में इस तरह जागृति नहीं पैदा की जा सकती। इसके लिए योजनाबद्ध तरीके से काम किया जाना चाहिए। योजनाबद्ध तरीके से ही वे अपने विचारों और तर्कों को दुनिया के सामने दृढ़ संकल्प के साथ रख सकते थे। अपने जीवन के इस मिशन को पूरा करने के लिए उन्होंने 10 अप्रैल, 1875 को बॉम्बे में आर्य समाज की स्थापना की और विभिन्न स्थानों पर आर्य समाज की शाखाएं स्थापित करने में अपना शेष जीवन व्यतीत किया। दयानंद के सुधारवादी उत्साह ने रुढ़िवादी हिंदुओं को परेशान किया। तो वहीं शिक्षित और आधुनिकता के पक्षधर हिंदू उनके पीछे लामबंद हो गए।दयानंद सरस्वती जी शिक्षित और प्रबुद्ध हिंदुओं का नेतृत्व करने में सक्षम थे। उन्हें भारतीय इतिहास के महान नायकों में से एक माना जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। एक नायक के गुण उनमें कूट कूट कर भरे थे। दयानंद सरस्वती जी ने पहले अपना लेखन संस्कृत भाषा में शुरू किया था। किन्तु धीरे-धीरे वे अपना लेखन हिंदी भाषा में करने लगे। उन्हें हिंदी भाषा से प्रेम था। उनका हिंदी प्रेम उनके अखंड राष्ट्र के सपने को प्रतिबिंबित करता था। वे भारत की आम भाषा के रूप में अंग्रेजी की बजाए हिंदी भाषा को देखना चाहते थे। उनका लेखन मुख्यतया दो ही भाषाओं में लिखा गया है - संस्कृत व हिंदी। वे हिंदी को बढ़ावा तो देना चाहते थे, परंतु अंग्रेजी का विरोध करके नहीं।
हिंदी भाषा के उत्थान के लिए स्वामी दयानंद जी ने शानदार कार्य किया। हिंदी भाषा उनके इस योगदान के लिए सदा ही उनकी ऋणी रहेगी। दयानंद सरस्वती जी ने अपनी पुस्तकों में संपूर्ण वेदों का सार व्यक्त किया है व उसे सरल शब्दों में मनुष्य को आज के समयानुसार समझाने का प्रयास किया है। उन्होंने लगभग साठ पुस्तकों की रचना की है। दयानंद सरस्वती जी ने हिंदू धर्म में वेदों के उत्थान, उनकी भूमिका व उनके उद्देश्य के बारे में लोगों को बताने के लिए 'ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका' पुस्तक लिखी। दयानंद सरस्वती जी ने युवाओं को अपने व्यवहार और चरित्र को उत्कृष्ट बनाने के लिए प्रेरित किया। उनके विचार आज भी युवाओं को चरित्रवान बनने के लिए प्रेरित करते हैं। आज 21 वीं सदी में भी युवा उनके विचारों से प्रेरित हैं। आज दयानंद सरस्वती जी प्रत्यक्ष रूप से न सही परंतु अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय युवाओं को नेतृत्व व मार्गदर्शन कर रहे हैं। दयानंद सरस्वती जी के अनुसार उसी व्यक्ति का धर्म श्रेष्ठ है जिसका व्यवहार श्रेष्ठ है।दयानंद सरस्वती जी ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली की आलोचना की थी। दयानंद सरस्वती जी के अनुसार एक शिक्षित व्यक्ति को विनम्र होना चाहिए और अच्छे चरित्र को धारण करना चाहिए। उन्हें वाणी और मस्तिष्क पर नियंत्रण रखना, उर्जावान होना, माता-पिता, शिक्षकों, बड़ों और अतिथि का सम्मान करना और बूरी आदतों से दूर रहना चाहिए।
उपसंहार
स्वामी दयानंद सरस्वती जी उन सबसे महत्वपूर्ण सुधारकों और आध्यात्मिक बलों में से एक हैं जिन्हें देश ने हाल के दिनों में जाना है। शिक्षा संस्थानों की स्थापना, विशेष रूप से भारत के उत्तरी और पूर्वी हिस्सों में और हरिद्वार में गुरुकुल अकादमी के गठन से हिंदू शिक्षा के प्राचीन आदर्श और परंपराओं को पुनर्जीवित करने के लिए कई समाजवादियों की बहुत ही सही उत्सुकता का प्रतीक है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी भारतीयों के सामाजिक जीवन में एक क्रांति लेकर आए थे। आज स्वामी दयानंद सरस्वती जी के देहावसान को डेढ़ शताब्दी बीत चुकी है। अंग्रेज भारत पर शासन कर वापस चले गए। देश को स्वतंत्रता मिले हुए 75 वर्ष से ज्यादा समय हो चुका है। लेकिन आज भी देश की परिस्थितियां एक शताब्दी पूर्व की परिस्थितियों से ज्यादा भिन्न नहीं है। आज का युवा महापुरुषों की तरफ मार्गदर्शन के लिए देख रहा है। वह चलने के लिए एक सच्चा पथ चाहता है। आज का युवा स्वामी दयानंद सरस्वती जी के पद चिन्हों पर चलकर गर्वित महसूस कर रहा है। वर्तमान समय में भी स्वामी दयानंद सरस्वती जी का समाज दर्शन हमारे समाज का प्रदर्शन कर रहा है।
संदर्भ ग्रंथ सूची -
[1] राष्ट्र के महान व्यक्तिव, डॉ एस पी गुप्ता, पृष्ठ संख्या - 132, वर्ष – 2016
[2] राष्ट्र के महान व्यक्तिव, डॉ एस पी गुप्ता, पृष्ठ संख्या - 133, वर्ष – 2016
[3] राष्ट्र के महान व्यक्तिव, डॉ एस पी गुप्ता, पृष्ठ संख्या - 133, वर्ष – 2016
[4] राष्ट्र के महान व्यक्तिव, डॉ एस पी गुप्ता, पृष्ठ संख्या - 133, वर्ष – 2016
[5] राष्ट्र के महान व्यक्तिव, डॉ एस पी गुप्ता, पृष्ठ संख्या - 133, वर्ष – 2016
[6] राष्ट्र के महान व्यक्तिव, डॉ एस पी गुप्ता, पृष्ठ संख्या - 133, वर्ष – 2016
[7] राष्ट्र के महान व्यक्तिव, डॉ एस पी गुप्ता, पृष्ठ संख्या - 133, वर्ष – 2016
[8] राष्ट्र के महान व्यक्तिव, डॉ एस पी गुप्ता, पृष्ठ संख्या - 133, वर्ष – 2016
[9] राष्ट्र के महान व्यक्तिव, डॉ एस पी गुप्ता, पृष्ठ संख्या - 133, वर्ष – 2016
[10] राष्ट्र के महान व्यक्तिव, डॉ एस पी गुप्ता, पृष्ठ संख्या - 133, वर्ष – 2016
[11] maharshidayanand.com
[12] maharshidayanand.com
[13] maharshidayanand.com
[14] maharshidayanand.com
[15] maharshidayanand.com
[16] maharshidayanand.com
[17] maharshidayanand.com
[18] maharshidayanand.com
[19] maharshidayanand.com
[20] maharshidayanand.com
[21] maharshidayanand.com
[22] maharshidayanand.com
[23] सत्यार्थ प्रकाश, दयानंद सरस्वती, पृष्ठ संख्या - 30,31
[24] स्वामी दयानंद सरस्वती के शैक्षिक दर्शन का वर्तमान शिक्षा में योगदान - शोधार्थी, प्रतीक त्रिपाठी, कलिंगा विश्वविद्यालय, नया रायपुर, छत्तीसगढ़
[25] स्वामी दयानंद सरस्वती का शिक्षा दर्शन - प्रोफेसर विजय सिंह माली
वर्तमान पीढ़ी को दयानंद के सिद्धांतों से अवगत कराने में यह शोध पत्र एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। शोधपत्र का लिंक है - https://www.gkv.ac.in/vedic-vag-jyoti/
"दयानंद दर्शन की वर्तमान में उपादेयता" सहायक प्रोफेसर विनय कुमार जो कि वर्तमान में राजकीय महाविद्यालय भोरंज(तरक्वारी), हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश में सेवारत हैं का 'वैदिक वाग ज्योति' पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र है। 'वैदिक वाग ज्योति' समकक्ष विश्वविद्यालय गुरु कुल कांगड़ी की अर्द्धवार्षिक पत्रिका है। यह एक प्रसिद्ध पत्रिका है जिसके संपादक डॉ. दिनेश शर्मा हैं। यह पत्रिका शोध के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रही है। यह पत्रिका भारतीय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की 'यूजीसी केयर लिस्ट ' में शामिल है।
-Vinay Kumar
Asst Prof Hindi,(Ex Petty Officer of Indian Navy)
Govt College Bhoranj, Hamirpur, Himachal Pradesh
Mob: 7876196399 ,E mail : vinayrana1433@gmail.com
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