यादें | हिंदी कहानी

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यादें अभी मैं सत्संग से लौटी हूं। कथा समाप्त होते ही सभी ने अपने मन की शंकाओं का समाधान किया गुरु जी से प्रश्न पूछ कर। मैं भी मन की उत्सुकता को दबा न

यादें


भी मैं सत्संग से लौटी हूं। कथा समाप्त होते ही सभी ने अपने मन की शंकाओं का समाधान किया गुरु जी से प्रश्न पूछ कर। मैं भी मन की उत्सुकता को दबा न सकी। मैंने पूछा -

' गुरुजी तुलसीदास जी ने नारी को ढोल गंवार की संज्ञा क्यों दी जबकि नारी ने समय-समय पर अपने सक्षम होने का परिचय दिया। रामायण में ही जब दशरथ जी देव संग्राम में पूरी तरह जख्मी हो गए थे, तब कैकई  ही उन्हें विजय दिला कर, बचाकर लाई थी। क्या सीता कहीं भी राम से पीछे रही थी, क्या उर्मिला ने लक्ष्मण से कम त्याग किया, क्या तुलसीदास को प्रेरणा देने वाली स्वयं नारी नहीं थी... परम पवित्र काव्य के रचयिता ने ओछी मानसिकता का परिचय नारी के प्रति क्यों दिया जबकि मैथिली शरण गुप्त ने तो नारी की मुक्त कंठ से प्रशंसा ही की है।

गुरुदेव मुस्कुराए और बोले-  'वहां प्रसंग ही कुछ ऐसा बन गया था, वरना उन्होंने जीवन में नारी को पूजा है। उदाहरण के लिए.. 'रामचरितमानस' की शुरुआत ही मां सरस्वती से की है जो एक नारी है।‘

यादें
मैं अपने मन की जिज्ञासा को छिपा ना सकी और गुरुदेव से पूछ बैठी- ‘आप नारी को किस रूप में पहचानते हैं..? आपकी सोच में नारी क्या है?’
वह पहले की तरह मुस्कुराए, फिर बोले-
'मेरी समझ में पहले रूप में नारी जननी है, जिसके बिना हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है।
दूसरी धरा के रूप में बोझ उठाने वाली भी नारी है।
भक्ति शक्ति लक्ष्मी के रूप में भी नारी विद्यमान है मैं ऐसा सोचता हूं।'

मैंने आकर गुरु जी की बात सलोनी को बताई। सलोनी का भी कुछ ऐसा ही मानना है.. जिस तरह नारी पुरुष बिना अधूरी है उसी तरह पुरुष भी नारी बिना अधूरा है क्योंकि पृथ्वी आकाश दोनों के बिना प्रकृति की कोई भी रचना संभव नहीं है मम्मी अनाथ आश्रम में कमरे तैयार हो गए हैं। आपको 4:00 बजे बुलाया है। मैंने बाबूजी (क्लर्क) को ₹5000 दे दिए हैं ताकि वह मेहमानों व अनाथों के खाने का प्रबंध करवा लें।

ठीक है, बेटा तुमने अच्छा किया। जब वे लोग मेरे हाथों कमरों का उद्घाटन कराना चाहते हैं तो मैं समय पर पहुंच जाऊंगी। ‘मम्मी, दादीजी-दादाजी ऊपर से यह देखकर कितने संतुष्ट होंगे कि उनकी इच्छा अनुसार आपने ये कमरे बनवाए हैं।‘
 
- हां सलोनी, मां कहा करती थी- ‘बेटा हो सके तो कुछ कमरे अनाथ आश्रम में बनवा देना वहां कमरे कम और रहने वाले ज्यादा हैं।‘
 
बाबूजी का ध्यान कोड़ियों की तरफ ज्यादा था वह हर पूर्णिमा को इन्हें खाना खिलाते थे और सर्दी शुरू होने से पहले बजट अनुसार कंबल भी देते थे। उनका कहना था- ‘अपाहिज होने के साथ-साथ समाज से कटा अंग है ये। ये जरूरत भर का भी धन अर्जित करने में असमर्थ होते हैं।‘
 
यही बात बाबूजी की ध्यान में रखकर मैं 200 गज जमीन लेकर वहां कुछ कमरे भी बनवा रही हूं, ताकि वे ठंड और बरसात से बच सकें। सब माँ बाबूजी के आशीर्वाद का फल है वरना हमारी बिसात ही क्या थी। मैं बीते पृष्ठ पलटने लगी…

जब मैं सजी कार से उतरी थी तो बाबूजी का 50 गज में बना दो कमरों का छोटा सा घर था जिसमें मेरे आने पर गुजर बसर मुश्किल से होती थी। फिर धीरे-धीरे सोनू, मोनू भी आ गए। फिर तो जगह का अभाव बहुत ही खलने लगा। फिर किस तरह ₹20,000 लोन लेकर, कुछ अपनी जमा पूंजी लगाकर पास ही तीन कमरों का घर बनवाया और मां बाबूजी से छोटा घर बेचकर साथ रहने को कहा। मां ने तत्काल इंकार कर दिया था -'यह हमारे पूर्वजों की धरोहर है। यहां उनकी आत्मा निवास करती है और मुझे भी यहां भजन- पूजा में सुविधा रहेगी। तुम वहां आराम से रहो सब।'

माँ के सुलझे विचारों से सब छोटी बड़ी उलझन का समाधान आराम से हो जाता था। मां कहती थी-‘गृहस्थि एक कर्म भूमि है। अपने अच्छे कर्मों द्वारा ही घर को मंदिर जैसा शांत और पवित्र बनाए जा सकता है। बच्चों को अच्छे संस्कार देकर प्रखर बुद्धि वाले एवं आत्मविश्वासी बनाया जा सकता है। जब बच्चे आत्मनिर्भर हो जाएं, तो गृहस्थ को तपोभूमि में बदलकर विरक्ति की बात सोचनी चाहिए। घर में रहकर भी तपस्वी जैसा जीवन जिया जा सकता है। बस चंचल मन की गति पर विराम लगाना पड़ता है। मन को एकाग्र करके चिंतन- मनन एवं पठन-पाठन में लगाकर मुक्ति का मार्ग खोजा जा सकता है। जैसे कमल कीच में रहकर भी गंदगी से दूर रहता है और निश्छल ओस की बूंदें उसे ताजा बनाए रखती है हमें भी  कूपमंडों और अंधविश्वासियों से दूर रहना चाहिए, जो भाग्य का रोना रोकर कर्म करने से दूर भागते हैं वे मन की शांति खो देते हैं।'

‘नीलू सोचो तुमने यह वैभव अपने कर्म के आधार पर मेहन। करके पाया है। तुम्हें याद होगा तुमने यह काम जो आज तुम्हें यश दिला रहा है, सिर्फ 1000 से शुरू किया था- ढाई सौ रुपए का ईंटों का ट्रक और ₹40 का रेत, ₹60 का बदरपुर, ₹100 की रोड़ी, चार कौड़ी बांस, दो कौड़ी तख्ते, कुछ कड़ी और बाई बुलवाई थीं। बाकी सब तुम्हारी मेहनत और लगन का फल है। बून्द बून्द से सागर भर जाता है। सो बेटा तुमने कर दिखाया है।‘
   
मांजी की बातें कानों में गूंजती रहती हैं। वह मेरी सास नहीं, मार्गदर्शिका थीं। उन्हीं से प्रेरित होकर शायद मैं यह काम करने का साहस जुटा पाई थी।
 
मुझे याद है… रात को जब मैं बिस्तर पर गई और विजय ने प्यार से मेरी तरफ हाथ बढ़ाया तो मैंने ठुनक कर कहा था- ‘मैं आज आपसे कुछ कहना चाहती हूं अगर सुनने का मूड हो तो...पर साथ में शर्त यह भी है- मेरी हंसी नहीं उड़ाओगे।’

‘ऐसा क्या कहना है जो इतनी भूमिका बना रही हो। आराम से कहो- क्या कहना चाहती हो।‘
-‘पहले आप गंभीर हो जाइए तब कहेंगे।‘
-‘ठीक है अब कहो हम पूरी तरह तैयार हैं तुम्हारी बात ध्यान देकर सुनेंगे।
-‘कहां से शुरू करूँ कुछ समझ नहीं पा रही हूं फिर भी कहती हूं- ‘विजय मैं भी कुछ काम कर तुम्हारा हाथ बंटाना चाहती हूं अगर तुम सहयोग दो तो...’

-' तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं रहा क्या... मैं तो हर पल तुम्हारे साथ हूं। हमें मिलजुल कर ही जीवन में सुखद मंजिलें पानी है। बच्चों का भविष्य उज्जवल बनाना है। हमें एक और एक ग्यारह बनकर, संघर्ष कर, शक्ति जुटानी है, तुम निर्भय होकर कहो जो कहना है।' विजय ने कहा।

- 'यहां अभी नई कॉलोनी बन रही है। आसपास के सभी प्लॉट खाली है। यहां से बाजार दूर है सामान लाने, ले जाने में बहुत ढुलाई लग जाती है। परेशानी अलग से… अगर हम यहां घर बनवाने का कुछ सामान रख लें, तो यह काम यहां पर चल सकता है। पड़ोस का प्लॉट किराए पर लेकर उसमें काम शुरू कर सकते हैं। मैंने मालूम कर लिया है वह अभी घर नहीं बनवा रहे हैं और प्लॉट किराए पर दे देंगे।‘

- 'ठीक है मैं सोचता हूं, लेकिन तुम तो जानती हो कि बैंक बैलेंस निल है और ऑफिस से पहले ही लोन ले चुके हैं फिर धन अर्जन कहां से होगा?'

शायद आपको याद हो, जब मैं मेरठ गई थी तो कुछ सामान ना लाकर सिर्फ रुपए लाई थी। मैंने मम्मी को अपने मन की बात बताई थी और उन्होंने आशीर्वाद के साथ मौन स्वीकृति दे दी थी। बस आपसे कहने का सुअवसर देख रही थी। अगर आप ठीक समझें तो शीघ्र ही श्री गणेश करवा दीजिए।'

- 'अच्छा तो तुमने सब प्रबंध कर रखा है। ठीक है मैं कल ही गोपाल बदरपुर वालों से बात करता हूं। वह कहां से सामान मंगवाते हैं, लेकिन एक बार अच्छी तरह सोच लो बहुत व्यस्त हो जाओगी। घर बच्चे और मुझे भी संभालना है। ऐसा ना हो कि तुम रेत बदरपुर की हो जाओ और मैं, बच्चे भटक जाएं। मुझे और बच्चों को तुम्हारी बहुत जरूरत है।‘

- ‘प्लीज मेरा उत्साह कम मत करो। मुझे इस समय आपके सहारे की बहुत जरूरत है। मैं तो घर में ही रहकर काम करूंगी। आपका और बच्चों का पूरा ध्यान रखूंगी। आज की प्रगतिशील नारी तो घर- बाहर दोनों ही कुशलता से संभाल रही है।
 
उस समय की सुखद यादें मन में नई कोपलें खिला रही है।



- बृज गोयल
मवाना रोड, मेरठ
मोबाइल नंबर -9412708345

COMMENTS

Leave a Reply: 2
  1. अभी यादें कहानी पढ़ी,बिना किसी आडम्बर के सीधी सादी स्वभाव जबाव में न उलझकर ऐसा कुछ कह ग ई जिसकी आज आवश्यकता है। लेखिका को मेरी बधाई।

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  2. ठीक कहा आंटी सीधी सीधी बात सरलता से कही मम्मी ने।

    जवाब देंहटाएं
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