पुरुषों के विरुद्ध घरेलू हिंसा

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पुरुषों के विरुद्ध घरेलू हिंसा आजकल पतियों पर ज़ुल्म की बढ़ती वारदातें एक ऐसा विषय है, जो सामाजिक और पारिवारिक ढांचे में गहरे तक पैठ बनाए हुए है। यह

पुरुषों के विरुद्ध घरेलू हिंसा


जकल पतियों पर ज़ुल्म की बढ़ती वारदातें एक ऐसा विषय है, जो सामाजिक और पारिवारिक ढांचे में गहरे तक पैठ बनाए हुए है। यह एक संवेदनशील मुद्दा है, जिस पर खुलकर चर्चा कम ही होती है, क्योंकि समाज में पुरुषों को हमेशा से शक्तिशाली और सहनशील माना गया है। लेकिन वास्तविकता यह है कि पुरुष भी उतने ही मानवीय हैं जितनी कि महिलाएं, और वे भी भावनात्मक, शारीरिक और मानसिक रूप से पीड़ित हो सकते हैं। पतियों पर होने वाले ज़ुल्म की घटनाएं केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक, कानूनी और सांस्कृतिक स्तर पर भी एक जटिल समस्या का रूप ले चुकी हैं। इस लेख में इस विषय को विस्तार से समझने की कोशिश की जाएगी, जिसमें इसके कारण, रूप, प्रभाव और संभावित समाधान शामिल होंगे।

पतियों पर ज़ुल्म की बात करें तो सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि यह ज़ुल्म केवल शारीरिक हिंसा तक सीमित नहीं है। यह भावनात्मक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक रूपों में भी सामने आता है। समाज में यह धारणा आम है कि पुरुष हमेशा मज़बूत होते हैं और वे किसी भी तरह के दबाव या उत्पीड़न को आसानी से सहन कर सकते हैं। लेकिन यह धारणा पुरुषों के साथ अन्याय करती है। कई बार पुरुष अपनी पीड़ा को व्यक्त करने से हिचकते हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि समाज उनकी कमज़ोरी का मज़ाक उड़ाएगा या उन्हें कम मर्दाना माना जाएगा। इस मानसिकता के कारण पतियों पर होने वाला ज़ुल्म अक्सर छिपा रहता है और इसका कोई ठोस आंकड़ा सामने नहीं आता।

पुरुषों के विरुद्ध घरेलू हिंसा
पतियों पर ज़ुल्म का एक प्रमुख रूप भावनात्मक उत्पीड़न है। यह तब होता है जब पत्नी या परिवार के अन्य सदस्य पति को लगातार अपमानित करते हैं, उसकी भावनाओं की कद्र नहीं करते, या उसे नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ मामलों में पत्नी अपने पति की हर छोटी-बड़ी बात पर नकारात्मक टिप्पणी करती है, उसकी कमाई, व्यक्तित्व या पारिवारिक योगदान को कमतर आंकती है। इससे पुरुष में आत्मविश्वास की कमी, तनाव और अवसाद जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं। यह भावनात्मक ज़ुल्म इतना सूक्ष्म होता है कि इसे पहचानना मुश्किल होता है, लेकिन इसका प्रभाव पुरुष की मानसिक स्थिति पर गहरा पड़ता है।

शारीरिक हिंसा भी पतियों पर ज़ुल्म का एक रूप है, हालांकि यह कम प्रचलित माना जाता है। कुछ मामलों में पत्नियां या उनके परिवार के सदस्य पति के साथ मारपीट करते हैं। यह हिंसा कभी-कभी इतनी गंभीर होती है कि पुरुष को चोटें पहुंचती हैं, लेकिन सामाजिक दबाव के कारण वे इसकी शिकायत करने से बचते हैं। पुलिस और कानूनी व्यवस्था भी अक्सर पुरुषों की शिकायतों को गंभीरता से नहीं लेती, क्योंकि यह धारणा प्रबल है कि पुरुष ही हिंसा करने वाले होते हैं। यह दोहरा मापदंड पुरुषों को अपनी बात कहने से रोकता है और उनकी पीड़ा को और गहरा करता है।

आर्थिक उत्पीड़न भी पतियों पर ज़ुल्म का एक बड़ा कारण है। आज के समय में, जहां दोनों पति-पत्नी कामकाजी हो सकते हैं, कई बार पत्नी या उसके परिवार द्वारा पति की कमाई पर अनुचित दबाव डाला जाता है। कुछ मामलों में, पति की पूरी कमाई को नियंत्रित किया जाता है, और उसे अपनी ज़रूरतों के लिए भी पैसे मांगने पड़ते हैं। इसके अलावा, दहेज उत्पीड़न के झूठे मामलों में फंसाने की धमकी देकर पति और उसके परिवार से पैसे वसूलने की घटनाएं भी सामने आई हैं। यह आर्थिक शोषण पुरुष को न केवल वित्तीय रूप से कमज़ोर करता है, बल्कि उसकी आत्मसम्मान को भी ठेस पहुंचाता है।

कानूनी व्यवस्था का दुरुपयोग भी पतियों पर ज़ुल्म का एक बड़ा कारण बन चुका है। भारत जैसे देशों में, जहां महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई सख्त कानून बनाए गए हैं, इनका दुरुपयोग भी देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए, घरेलू हिंसा अधिनियम और दहेज विरोधी कानूनों का इस्तेमाल कई बार पुरुषों को ब्लैकमेल करने या उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के लिए किया जाता है। झूठे आरोपों के कारण पुरुषों को न केवल सामाजिक अपमान झेलना पड़ता है, बल्कि कानूनी लड़ाई में भी भारी वित्तीय और भावनात्मक नुकसान उठाना पड़ता है। कई बार ये मामले बिना किसी ठोस सबूत के वर्षों तक चलते हैं, जिससे पुरुष और उनका परिवार तनाव में जीने को मजबूर हो जाता है।

पतियों पर ज़ुल्म की बढ़ती घटनाओं के पीछे कई सामाजिक और सांस्कृतिक कारण भी हैं। पहला, पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं की मानसिकता अभी भी समाज में गहरे तक बनी हुई है। पुरुषों से हमेशा परिवार का भरण-पोषण करने, मज़बूत रहने और हर स्थिति में समझौता करने की अपेक्षा की जाती है। इस अपेक्षा के कारण पुरुष अपनी समस्याओं को खुलकर साझा नहीं कर पाते। दूसरा, महिलाओं के सशक्तिकरण के नाम पर कई बार पुरुषों की भावनाओं और अधिकारों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। यह सही है कि महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पुरुषों की पीड़ा को अनदेखा किया जाए। तीसरा, परिवार और समाज में संवाद की कमी भी इस समस्या को बढ़ाती है। कई बार छोटी-छोटी गलतफहमियां इतनी बढ़ जाती हैं कि वे हिंसा या उत्पीड़न का रूप ले लेती हैं।

इस समस्या का प्रभाव केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भी देखने को मिलता है। पतियों पर ज़ुल्म की वजह से वैवाहिक रिश्तों में विश्वास कम होता है, जिसके कारण तलाक और परिवारों के टूटने की घटनाएं बढ़ रही हैं। बच्चों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, क्योंकि वे माता-पिता के बीच तनाव और हिंसा को देखकर भावनात्मक रूप से अस्थिर हो सकते हैं। इसके अलावा, पुरुषों में बढ़ता तनाव और अवसाद सामाजिक समस्याओं जैसे अपराध, नशे की लत और आत्महत्या की दर को भी बढ़ा सकता है।

इस समस्या का समाधान तलाशना आसान नहीं है, लेकिन कुछ कदमों से स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। सबसे पहले, समाज में लैंगिक समानता की सही समझ विकसित करने की ज़रूरत है। पुरुषों और महिलाओं दोनों को यह समझना होगा कि पीड़ा और उत्पीड़न किसी भी लिंग के साथ हो सकता है। दूसरा, पुरुषों के लिए भी सुरक्षित मंच उपलब्ध कराए जाने चाहिए, जहां वे अपनी समस्याओं को बिना किसी डर के साझा कर सकें। तीसरा, कानूनी व्यवस्था को और अधिक संतुलित करने की ज़रूरत है, ताकि इसका दुरुपयोग रोका जा सके। इसके लिए झूठे आरोपों के खिलाफ सख्त सजा का प्रावधान होना चाहिए। चौथा, परिवारों में आपसी संवाद और समझ को बढ़ावा देना होगा। काउंसलिंग और मध्यस्थता जैसे उपायों से कई समस्याओं को शुरुआती स्तर पर ही सुलझाया जा सकता है।

अंत में, यह समझना ज़रूरी है कि पतियों पर ज़ुल्म की बढ़ती वारदातें केवल पुरुषों की समस्या नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज की समस्या है। जब तक हम लैंगिक भेदभाव की मानसिकता को पूरी तरह से खत्म नहीं करेंगे, तब तक न पुरुष सुरक्षित होंगे, न ही महिलाएं। एक स्वस्थ समाज वही है, जहां हर व्यक्ति की भावनाओं, अधिकारों और गरिमा का सम्मान हो। इसके लिए हमें मिलकर काम करना होगा, ताकि न केवल पतियों पर होने वाले ज़ुल्म को रोका जा सके, बल्कि एक ऐसी संस्कृति का निर्माण हो, जहां हर कोई बिना डर और दबाव के जी सके।

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