सुमित्रानंदन पंत की काव्य यात्रा के विविध सोपान

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सुमित्रानंदन पंत की काव्य यात्रा के विविध सोपान सुमित्रानंदन पंत हिंदी साहित्य के एक प्रमुख कवि हैं जिनकी काव्य यात्रा विविध सोपानों से होकर गुजरी है

सुमित्रानंदन पंत की काव्य यात्रा के विविध सोपान


सुमित्रानंदन पंत हिंदी साहित्य के एक प्रमुख कवि हैं जिनकी काव्य यात्रा विविध सोपानों से होकर गुजरी है। उनका जन्म 20 मई 1900 को अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक स्थान पर हुआ था। प्रकृति की गोद में पले-बढ़े पंत के काव्य में प्रकृति का सुंदर चित्रण मिलता है। उनकी काव्य यात्रा को अलग-अलग चरणों में देखा जा सकता है जो उनके जीवन और विचारधारा के विकास को दर्शाते हैं।

सुमित्रानन्दन पन्त ने उस समय काव्य-रचना आरम्भ की, जब हिन्दी में छायावाद का उदय हो रहा था। उनकी पहली कविता "गिरजे का घण्टा" 1916 की रचना बतायी जाती है। तब से लेकर मृत्युपर्यन्त वे काव्य-साधना में संलग्न रहे। उनके एक दर्जन से अधिक काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। काल-क्रम से उनके नाम इस प्रकार हैं- उच्छ्वास, ग्रन्थि, वीणा, पल्लव, गुंजन, युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, उत्तरा, रजतशिखर और लोकायतन।
 
उपर्युक्त काव्य-संग्रहों के अध्ययन से पता चलता है कि पन्त की काव्य-चेतना उत्तरोत्तर विकसित होती रही है। उच्छ्वास, ग्रन्थि, पल्लव और गुंजन, उनकी छायावादी रचनाएँ हैं। युगान्त, युगवाणी और ग्राम्या प्रगतिवादी चेतना से समन्वित हैं और स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि पर अरविन्ददर्शन का प्रभाव है। लोकायतन उनकी गाँधीवादी विचारधारा से समन्वित प्रबन्ध रचना है। इस प्रकार उनकी काव्य-यात्रा के स्पष्टतः तीन सोपान हैं- 
  • छायावादी रचनाएँ 
  • प्रगतिवादी रचनाएँ 
  • आध्यात्मिक रचनाएँ।

छायावादी रचनाएँ

पन्त की छायावादी रचनाओं में प्रकृति के मनोरम रूपों का मधुर एवं सरस चित्रण मिलता है। प्राकृतिक सुषमा ने उनको बचपन से अपनी ओर आकृष्ट किया और उसके मनोरम वातावरण का उनके व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ा। आरम्भ में उनका मन प्रकृति की सुन्दरता में इस तरह खो गया था कि उसके सम्मुख मानवीय सौन्दर्य भी उन्हें आकृष्ट न कर सका - 

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया 
तोड़ प्रकृति से भी माया 
बाले तेरे बाल जाल में 
कैसे उलझा दूँ लोचन 
छोड़ अभी से इस जग को ।

"आँसू की बालिका" और "पर्वत प्रदेश में पावस" में प्रकृति के अनेक मनोरम चित्र विद्यमान हैं। "बादल" और "छाया" कविताओं में विलक्षण कल्पना के दर्शन होते हैं।
 
सुमित्रानंदन पंत की काव्य यात्रा के विविध सोपान
प्रकृति प्रेम ने पन्त को अधिक संवेदनशील बना दिया। प्राकृतिक दृश्य में उन्हें मानवीय संवेदनाओं का साक्षात्कार होने लगा। जिस प्रकार चाँदनी की आभा से घना अन्धकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञान के आलोक से अज्ञान का अन्धकार दूर करने की वे कामना करने लगे। "वीणा" का कवि कहता है - 
 
कुमुद लता बन कमल हासिनि 
अमृत प्रकाशिनि नभ वासिनि तेरी आभा को पाकर माँ 
तिमिर त्रास हर दूँ ।
 
यही भावना विकसित होकर मानव-प्रेम में परिणत हो गयी। आरम्भ में जो कवि प्राकृतिक सौन्दर्य के सम्मुख मानवीय सौन्दर्य को तुच्छ और उपेक्षणीय समझता था। वही बाद में मनुष्य को सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी घोषित करने लगा।
 
सुन्दर है सुमन विहग सुन्दर 
मानव तुम सबसे सुन्दरतम ।
 
विचार करके देखने पर पन्त का मानवतावाद और उनकी आध्यात्मिकता दोनों ही उनके आरम्भिक प्रकृति-प्रेम का स्वाभाविक विकास जान पड़ते हैं। प्राकृतिक दृश्यों में मानवीय संवेदनाओं के साक्षात्कार ने उन्हें रहस्यवादी बना दिया। उनका रहस्यवाद 'परिवर्तन' में सर्ववाद बन गया और वही कालान्तर में अरविन्द दर्शन की आध्यात्मिकता में पर्यवसित हुआ। प्रकृति के व्यक्त रूप में आसक्त होने के कारण पन्त का रहस्यवाद अव्यक्त के प्रति जिज्ञासा तक सीमित रहा। उसमें अव्यक्त सत्ता से प्रणय निवेदन की प्रवृत्ति कहीं नहीं मिलती। उनका रहस्यवाद, महादेवी के रहस्यवाद से सर्वथा भिन्न है।
 
"पल्लव” छायावाद की सर्वश्रेष्ठ रचना है। उसकी भूमिका में कवि ने काव्य के उपादानों पर जो विचार व्यक्त किये हैं, उनसे स्पष्ट हो जाता है कि भाषा प्रयोग के सम्बन्ध में वे कितने जागरूक हैं, छायावादी रचनाओं में उनकी भाषा उन्हीं की परवर्ती प्रगतिवादी रचनाओं की भाषा से सर्वथा पृथक् है। पल्लव की भाषा में लाक्षणिक वैचित्र्य, विशेषण विपर्यय, विरोध चमत्कार, मानवीकरण, प्रतीक विधान, अन्योक्ति विधान आदि विशेषताएँ एक साथ विद्यमान हैं। कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-
 
सुरभि पीड़ित मधुपों के बाल 
तड़प बन जाते हैं गुंजार । 
उषा का था उर में 

आवास विचारों में बच्चों की साँस । 
गिरा हो जाती है 
सनयन नयन करते नीरव भाषण आदि ।

प्रगतिवादी रचनाएँ

इस युग की रचनाओं में कवि की भाषा वक्रता, सांकेतिकता आदि को छोड़कर सरलता और सपाटबयानी की ओर अग्रसर हुई है। इन रचनाओं में भाव प्रधानता कम है, विचार गम्भीरता अधिक। कवि के शब्दों में -

तुम वहन कर सको जन-मन में मेरे विचार, 
वाणी मेरी चाहिए तुम्हें क्या अलंकार ।
 
ग्राम्या की इन पंक्तियों में कवि ने विचार सम्प्रेषण के महत्त्व को समझते हुए कविता को जन-जीवन से जोड़ने का प्रयास किया है। इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि कवि ने अध्यात्म का विरोध नहीं किया है, किन्तु वह भौतिक समृद्धि की अनिवार्यता को भी स्वीकार करता है-
 
भूतवाद इस धरा स्वर्ग के लिए मात्र सोपान 
जहाँ आत्मदर्शन अनादि से समासीन अम्लान ।
 
ये पंक्तियाँ पन्त की प्रगतिशील चेतना के मूल स्वर को बड़े स्पष्ट रूप में व्यक्त करती है। प्रश्न उठता है कि भूतवाद और आत्मदर्शन के समन्वय का सैद्धान्तिक रूप क्या है ? कवि को इस प्रश्न का उत्तर अरविन्द दर्शन में प्राप्त हुआ। फलतः उनकी प्रगतिशील चेतना काव्यसाधना के अन्तिम वर्षों में अरविन्द-दर्शन की ओर उन्मुख हुई।
 
पन्त ने मार्क्सवादी दर्शन को चिन्तन के रूप में स्वीकार किया था। इसलिए वे काव्य में प्रायः मार्क्सवादी सिद्धान्तों को व्यक्त करते रहे -
 
कहता भौतिकवाद वस्तुजग का कर तत्वान्वेषण 
भौतिक भव ही एक मात्र मानव का अन्तर्दर्पण 
स्थूल सत्य आधार सूक्ष्म आधेय हमारा जो मन 
वाह्य विवर्तन से होता युगपत् अन्तर परिवर्तन ।
 
कहना न होगा कि मार्क्सवादी दृष्टि के आलोक में कवि ने ग्राम्यजीवन के यथार्थ का बड़ा सुन्दर चित्र अंकित किया है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि कुशल शिल्पी पन्त ने उस यथार्थ को जितना उसके रूप-रंग में पकड़ा है उतना भीतर की चेतना में नहीं। यह बात तब और स्पष्ट हो जाती है, जब ग्राम्या से आगे की यात्रा में वे अरविन्द दर्शन से प्रभावित हो उठते हैं।
 

आध्यात्मिक रचनाएँ

पन्त की आध्यात्मिक रचनाओं का आरम्भ 'ग्राम्या' के बाद हुआ। उनकी 'स्वर्ण किरण' और 'स्वर्णधूलि' को स्वर्णकाव्य कहा जाता है। इनमें उनकी शैली पुनः परिवर्तित हो गयी है। इस नवीन शैली में छायावाद की सांकेतिकता के साथ "युगवाणी” की बौद्धिकता भी समाविष्ट है। अपने स्वर्णकाव्य में उन्होंने अनेक सन्दर्भों, स्थितियों के अन्तर्गत अरविन्द दर्शन को व्यक्त किया है। कवि वर्तमान जीवन के विषम संकट से परिचित होते हुए नये आदर्श भविष्य की कल्पना करता है। यह प्रयास युगीन यथार्थ के अनेक पक्षों को व्यक्त करते हुए आध्यात्मिक आदर्शवाद पर आधारित है। इस यात्रा की सबसे महत्त्वपूर्ण और अन्तिम कड़ी "लोकायतन है। उसके विषय में कवि की स्वीकारोक्ति है, “साम्प्रतिक युग का मुख्य प्रश्न सामूहिक आत्मा का मनः संगठन है। अतः आधुनिक मानव को अन्तःशुद्धि के द्वारा अन्तर्जगत की ओर बढ़ना है। सामाजिक स्तर पर आत्मा का यही संस्कार 'लोकायतन' का प्रतिपाद्य है।"
 
नये युग के लिए कवि का सन्देश इस प्रकार है -
 
अन्तरैक्य में बँध मानवता 
धरती पर रह सकती जीवित 
वाह्य विविधता बहु की समता 
जिसके बल पर ही अवलम्बित ।
 
वाह्य अनेकता के बीच आन्तरिक एकता की खोज ही मनुष्य को आध्यात्मिकता की ओर ले जाती है। हिंसा पर अहिंसा की विजय से ही पशुता के बीच मानवता का प्रकाश आलोकित होता है - 
 
नम्र अहिंसा की क्षमा से 
दैन्य अनघ अघ पर जय पाकर 
मनुष्यत्व था जन्म ले रहा 
पाशवता की क्रूर क्रोड पर ।

इस प्रकार मार्क्सवाद अन्त में गाँधीवाद की शरण में चला जाता है। इस प्रकार पन्त का काव्य वाह्य जगत् से अन्तर्जगत् की यात्रा है। सुमित्रानंदन पंत की काव्य यात्रा हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण योगदान है जो उनके बहुमुखी व्यक्तित्व और सृजनात्मक ऊर्जा को दर्शाती है।

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