महाकवि देव का साहित्यिक जीवन परिचय

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महाकवि देव का साहित्यिक जीवन परिचय महाकवि देव हिंदी साहित्य के रीतिकाल के एक प्रमुख कवि माने जाते हैं, जिन्हें ब्रजभाषा काव्य में महाकवि का सम्मान प्

महाकवि देव का साहित्यिक जीवन परिचय


हाकवि देव हिंदी साहित्य के रीतिकाल के एक प्रमुख कवि माने जाते हैं, जिन्हें ब्रजभाषा काव्य में महाकवि का सम्मान प्राप्त है। उनका पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। ये इटावा के रहने वाले सनाढ्य ब्राह्मण थे। कुछ लोगों ने इन्हें कान्यकुब्ज सिद्ध करने का भी प्रयत्न किया है। इनका पूरा नाम देवदत्त था।देव ने अपने जीवन में कई राजाओं और आश्रयदाताओं के दरबारों में समय बिताया, जिससे उन्हें विभिन्न सांस्कृतिक और साहित्यिक अनुभवों का अवसर मिला।  'भावविलास' का रचनाकाल इन्होंने 1746 दिया है और उस ग्रन्थ निर्माण के समय अपनी अवस्था सोलह ही वर्ष की कही है। इस हिसाब से इनका जन्म सम्वत् 1730 निश्चित होता है। इसके अतिरिक्त इनका और कुछ वृत्तान्त नहीं मिलता। इतना अवश्य अनुमित होता है कि इन्हें कोई अच्छा उदार आश्रयदाता नहीं मिला जिसके यहाँ रहकर इन्होंने सुख से कालयापन किया हो। 

ये बराबर अनेक रईसों के यहाँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहे, पर कहीं जमें नहीं। इसका कारण या तो इनकी प्रकृति की विचित्रता मानें या इनकी कविता के साथ उस काल की रुचि का असामंजस्य । इन्होंने अपने 'अष्टयाम' और 'भावविलास' को औरंगजेब के बड़े पुत्र आजमशाह को सुनाया था जो हिन्दी कविता में प्रेमी थे। इनके पीछे इन्होंने भवानीदत्त वैश्य के नाम पर 'भवानीविलास' और कुशलसिंह के नाम पर 'कुशलविलास' की रचना की। फिर मर्दनसिंह के पुत्र राजा उद्योतसिंह बैस के लिये 'प्रेमचन्द्रिका' बनाई । इसके उपरान्त ये बराबर अनेक प्रदेशों में भ्रमण करते रहे। इस यात्रा के अनुभव का इन्होंने अपने 'जातिविलास' नामक ग्रन्थ में कुछ उपयोग किया। इस ग्रन्थ में भिन्न-भिन्न जातियों और भिन्न-भिन्न प्रदेशों की स्त्रियों का वर्णन हैं। वर्णन में उनकी विशेषताएँ अच्छी तरह व्यक्त हुई हो, यह बात नहीं है। इतने पर्यटन के उपरान्त जान पड़ता है कि इन्हें एक अच्छे आश्रयदाता राजा मोतीलाल मिले जिनके नाम पर सम्वत् 1783 में इन्होंने ‘रसविलास' नामक ग्रन्थ बनाया। इन राजा मोतीलाल की इन्होंने अच्छी तारीफ की है, जैसे 'मोतीलाल भूपलाल पाखर ले वैया जिन्ह लाखन खरचि रचि आखर खरीदे हैं।' 

महाकवि देव की रचनाएँ

रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में शायद सबसे अधिक ग्रन्थ रचना देव की है। कोई इनकी रची पुस्तकों की संख्या 52 और कोई 72 तक बतलाते हैं। जो हो, इनके निम्नलिखित प्रन्थों का तो पता है- (1) भावविलास, (2) अष्टयाम, (3) भवानीविलास, (4) सुजानविनोद, (5) प्रेमतरंग, (6) रागरत्नाकर, (7) कुशलविलास, (8) देवचरित, (9) प्रेमचन्द्रिका, (10) जातिविलास, (11) रसविलास, (12) काव्यरसायन या शब्दरसायन, (13) सुखसागर तरंग, (14) वृक्षविलास, (15) पावसविलास, (16) ब्रह्मदर्शन पचीसी, (17) तत्वदर्शन पचीसी, (18) आत्मदर्शन पचीसी, (19) जगदर्शन पचीसी, (20) रसानन्द लहरी, (21) प्रेमदीपिका, (22) नख-शिख, (23) प्रेमदर्शन।
 

श्रृंगारी कवियों में देव का स्थान

महाकवि देव का साहित्यिक जीवन परिचय
देव की रचनाओं का ब्रजभाषा-काव्य के श्रृंगारी कवियों में प्रमुख स्थान है। काव्य शास्त्रीय विवेचन में कुछ मौलिक उद्भावनाओं की रचना भी देव ने की है। इस क्षेत्र में देव ने छल नामक चौंतीसवें संचारी भाव की उद्भावना की है। 'काव्य रसायन' नामक ग्रन्थ का सृजन भी देव ने किया जिस पर साहित्य-दर्पण, रसतरंगिणी, काव्य-प्रकाश, रस-मंजरी आदि ग्रन्थों का प्रभाव पड़ा है । महाकवि देव मूलतः श्रृंगार रस के कवि हैं। श्रृंगार रस का जितना व्यापक और विस्तृत विवेचन कवि देव ने किया है उतना विवेचन इस काल में अन्य कवियों ने नहीं किया है। वियोग और संयोग दोनों पक्षों का विस्तृत विवेचन देव ने किया है। इनकी रचनाओं में संयोग एवं वियोग के अतिरिक्त सांसारिक ज्ञान का विस्तृत ज्ञान मिलता है ।
 
डॉ. नगेन्द्र के अनुसार देव ने परम्परा के अनुसार नख-शिख, शोभा, कान्ति आदि अलंकार, विलास, ललित आदि भाव एवं अन्य सौन्दर्य तत्वों का विस्तृत वर्णन किया है। नख-शिख, आदि में जड़ सौन्दर्य का वर्णन वे नहीं करते, वरन् उनमें तरंगित चेतन सौन्दर्य ही उनका लक्ष्य है।
 

देव का रीतिकाल के कवियों में प्रमुख स्थान

देव आचार्य और कवि थे। जहाँ तक आचार्यत्व का प्रश्न है वहाँ डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना के अनुसार, आचार्य कवियों में तो देव अपना कोई विशेष स्थान नहीं बना पाये, पर श्रृंगार वर्णन के रूप में विकसित रीति काव्य-धारा में देव की गणना उच्चकोटि के कवियों में है। प्रेमानुभूति की गहनता, सौन्दर्य चेतना की प्रौढ़ता एवं प्रांजला, भाषा की उज्जलता, संगीतमयता एवं नादात्मक सौन्दर्य के साथ उनकी सूक्ष्म कोमल एवं स्निग्ध अभिरुचि ने काव्य को सरस एवं मार्मिक बनाया है। अतः रीतिकालीन कवियों में उनका महत्वपूर्ण स्थान है।
 

देव के प्रकृति चित्रण पर प्रकाश

देव के काव्य में प्रकृति का चित्रण अत्यधिक सुन्दर व मनोहारी हैं। प्रकृति का चित्रण उद्दीपन रूप में श्रेष्ठ हुआ है। देव ने पावस का अत्यधिक सुन्दर दृश्य प्रस्तुत किया है - “सुनि के धुनि चातक, मोरन की चहुँ ओरन कोकिल कूकन सों। कृष्ण के स्वर सौन्दर्य से जब नायिका आकर्षित हो तो मेरे द्वारा बताये उपवन में जाकर उससे मिले । बसन्त ऋतु का वर्णन करते हुए देव ने लिखा है- माधुरे झौरिन, फूलनि, भौरनि, बौरनि-बौरनि बेलि बची है। 

देव ने ऋतुओं का चित्रण भी बहुत सुन्दर किया है। देव का ऋतु वर्णन प्रमुखतया उद्दीपन-रूप में है किन्तु आलम्बन रूप में हुआ है।
 

देव की भाषा शैली

देव की भाषा ब्रजभाषा है। भाषा में माधुर्य और ध्वनि सौन्दर्य प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इनकी भाषा में यमक और अनुप्रास का उत्कृष्ट प्रयोग मिलता है। इनकी रचनाओं में स्थल-स्थल पर कहावतों और मुहावरों का प्रयोग भी मिलता है। ध्वनि के द्वारा दृश्य प्रस्तुत करने की देव में अद्भुत क्षमता है। ध्वनि सौन्दर्य के प्रति देव की विशेष रुचि है। यद्यपि देव की रचनाएँ ब्रजभाषा में हैं किन्तु उनमें स्थान-स्थान पर अवधी ब्रजभाषा एवं बुन्देलखण्डी शब्दों का प्रयोग भी किया गया है।
 
देव की रचनाओं में किसी-किसी स्थान पर व्याकरण की अवहेलना और अव्यवस्थित वाक्य भी दिखाई देते हैं जिससे अर्थ समझने में कठिनाई होती है। “एक तरुफ देव की भाषा केशव और भूषण की भाषा से टक्कर लेती है और दूसरी तरफ गुण-समृद्धि में मतिराम एवं सूरदास आदि की भाषा से ।"

देव की रचनाओं में कोई भी अटपटा छन्द नहीं दिखाई देता। कवि देश ने दोहा, कवित्त एवं सवैया छन्दों में अपने हृदय के भावों को स्पष्ट किया है। देव ने घनाक्षरी छन्द के प्रति विशेष आसक्ति प्रदर्शित की है। महाकवि देव ने विविध काव्यांगों को जिस कुशलता के साथ एक ही छन्द में समाविष्ट किया है वैसा अनेक कवि कई छन्दों का प्रयोग करने के बाद भी सफलता से नहीं कर पाये हैं। देव की शैली में भाव पर भाषा की अपेक्षा विशेष बल दिया गया है। उनकी शैली का सबसे बड़ा गुण भाव शक्ति की सम्पन्नता है। 

अलंकारों का प्रयोग देव की रचनाओं में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। नायिका के नख-शिख वर्णन के प्रभाव को स्थायी एवं तीव्र बनाने के लिए देव ने अलंकारों का प्रयोग किया है। श्लेष जैसे अलंकारों का प्रयोग दिखाई पड़ता है। छेकानुप्रास, यमक, पुनरुक्तिप्रकाश जैसे ध्वनि सौन्दर्य उत्पन्न करने वाले अलंकारों का प्रयोग अधिक किया गया है। कई स्थलों पर अर्थालंकारों का प्रयोग भी किया गया है। देव ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा एवं सन्देह अलंकारों का उपयोग भी किया है।

देव की काव्यगत विशेषताएँ

देव की काव्यगत विशेषताएँ उनकी बहुमुखी प्रतिभा को उजागर करती हैं। उन्होंने रीति शास्त्रीय ग्रंथ, श्रृंगारिक काव्य और भक्ति-वैराग्य से संबंधित रचनाएँ लिखीं। उनके काव्य शास्त्रीय ग्रंथों से पता चलता है कि वे रसवादी आचार्य थे। दर्शनशास्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद और कामशास्त्र जैसे विषयों में उनकी गहरी पकड़ थी। "छल" नामक संचारी भाव उनकी मौलिक देन मानी जाती है। उनकी रचनाओं में व्यापक अनुभव और गहरी भावुकता का समन्वय है। किसी भी भाव का उनका सजीव और मर्मस्पर्शी वर्णन उनकी कल्पना शक्ति को दर्शाता है, जो केवल ऊहात्मक नहीं, बल्कि अनुभूति के रस से सिंचित है। रूप, सौंदर्य और चरित्र चित्रण में उन्हें अप्रतिम सफलता मिली।

हालांकि समकालीन कवियों जैसे बिहारी, भूषण और मतिराम की तुलना में देव को उतनी ख्याति नहीं मिली, इसका कारण उनका किसी एक राजदरबार से स्थायी संबंध न होना माना जाता है। फिर भी, विद्वानों जैसे हजारी प्रसाद द्विवेदी और मिश्र बंधुओं ने उनकी प्रतिभा को उच्च स्थान दिया। द्विवेदी के अनुसार, मतिराम और जसवंत सिंह के बाद यदि कोई शक्तिशाली और अलंकारिक कवि हुआ, तो वह देव थे। मिश्र बंधुओं ने तो उन्हें तुलसीदास के बाद हिंदी साहित्य में दूसरा स्थान दिया। देव और बिहारी की श्रेष्ठता को लेकर भी एक साहित्यिक विवाद चला, जिस पर पुस्तकें लिखी गईं। इस प्रकार, भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से देव का काव्य उच्च कोटि का है और रीतिकाल में उनका स्थान सर्वोच्च माना जाता है। उनकी रचनाएँ आज भी हिंदी साहित्य के अमूल्य रत्न हैं।

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