हिन्दी उपन्यासों में मनोविश्लेषणवाद

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हिन्दी उपन्यासों में मनोविश्लेषणवाद हिन्दी उपन्यासों में मनोविश्लेषणवाद का प्रभाव एक रोचक और गहन अध्ययन का विषय है, जो साहित्य और मानव मन की जटिलताओं

हिन्दी उपन्यासों में मनोविश्लेषणवाद


हिन्दी उपन्यासों में मनोविश्लेषणवाद का प्रभाव एक रोचक और गहन अध्ययन का विषय है, जो साहित्य और मानव मन की जटिलताओं को एक साथ जोड़ता है। मनोविश्लेषणवाद, जिसकी नींव सिगमंड फ्रायड ने रखी, मानव व्यवहार और भावनाओं को समझने के लिए अवचेतन मन की भूमिका पर जोर देता है। हिन्दी साहित्य में इस विचारधारा का प्रवेश विशेष रूप से 20वीं सदी के मध्य से देखा जा सकता है, जब प्रगतिशील लेखन और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण ने साहित्य में नए आयाम खोले। यह प्रभाव हिन्दी उपन्यासों में पात्रों के मनोवैज्ञानिक चित्रण, उनके आंतरिक संघर्षों और जटिल भावनात्मक परतों के माध्यम से स्पष्ट होता है।

हिन्दी उपन्यासों में मनोविश्लेषणवाद का प्रयोग लेखकों ने मानव मन की गहराइयों को उजागर करने के लिए किया। यहाँ पात्र केवल बाहरी परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होते, बल्कि उनकी अपनी अचेतन इच्छाएँ, दमित भावनाएँ और सपनों की दुनिया भी उनकी कहानी को आकार देती है। उदाहरण के लिए, प्रेमचंद जैसे लेखक, जो सामाजिक यथार्थवाद के लिए जाने जाते हैं, ने भी अपने कुछ पात्रों के मनोवैज्ञानिक पहलुओं को सूक्ष्मता से छुआ। हालाँकि, प्रेमचंद के बाद के लेखकों जैसे जैनेंद्र कुमार और अज्ञेय ने इस दिशा में अधिक स्पष्ट और गहन कदम उठाए। जैनेंद्र के उपन्यास "त्यागपत्र" में नायिका प्रभावती का चरित्र मनोविश्लेषण की दृष्टि से बेहद जटिल है। उसकी भावनाएँ, त्याग और आत्म-संघर्ष उसके अवचेतन में दबी कुंठाओं और इच्छाओं का परिणाम प्रतीत होते हैं। यहाँ लेखक ने प्रभावती के मन के भीतर झाँककर उसके व्यवहार को समझने की कोशिश की है, जो फ्रायड के अवचेतन सिद्धांत से प्रेरित लगता है।

हिन्दी उपन्यासों में मनोविश्लेषणवाद
मनोविश्लेषण के सम्बन्ध में डॉ. सत्यदेव मिश्र का कथन है- "मनोविश्लेषण मनोविज्ञान की एक पद्धति है, जिसके जनक वियना के मस्तिष्क चिकित्सक सिगमण्ड फ्रायड थे। इस पद्धति के विकास में यद्यपि फ्रायड के अनेक सहयोगी मनोवैज्ञानिकों ने भाग लिया है तथापि इसके विकास में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाने का श्रेय एडलर तथ कार्ल जुंग को है। मनोविश्लेषण मानसिक रोगियों के उपचार की एक विशेष विधि है, प्रयोगात्मक आधार पर यह सिद्ध कर दिया गया था कि सम्मोहन के क्षणों में रोगी एक ऐसी अबोध अवस्था को प्राप्त होता है, जिसमें उसके अन्तर्मन की उन बातों को भी जाना जा सकता है, जिन्हें वह बोध के समय कभी नहीं बताता। इस अबोध अवस्था में रोगी से कोई भी कार्य कराया जा सकता है। परिणामस्वरूप यह निष्कर्ष निकाला गया कि सम्मोहन के क्षणों में मानसिक रोगी के चेतन मन से परे अचेतन मन की तह तक पहुँचा जा सकता है। फ्रायड ने अपनी मनोविश्लेषण पद्धति का इसी आधार पर शिलान्यास किया है। फ्रायड ने शिशु को प्रारम्भ से ही काममूलक माना है। तेरह वर्ष की अवस्था से रति इच्छाएँ बलवती होने लगती हैं और वह नवीन काम चेतना से उद्वेलित हो उठता है। सन् 1951 से 1960 ई. तक के उपन्यास फ्रायड के मनोविज्ञान से प्रभावित हैं। फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद से प्रभावित सबसे पहले उपन्यासकार जैनेन्द्र हैं। जैनेन्द्र का प्रत्येक उपन्यास अन्तर्विरोधों का उपन्यास बन गया है। उनके उपन्यास कल्याणी, सुखदा, विवर्त, व्यतीत और जयवर्धन में विचारधारा मनोविज्ञान, दार्शनिकता, वैयक्तिकता आदि के माध्यम से निषेध रूपों में उभरी है। इनके पात्र अपने अस्तित्व को भी पहचानना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में आत्म यातना के अतिरिक्त अन्य कोई राह शेष नहीं रहती। इनके पात्र समाज को न तोड़कर स्वयं टूटते हैं किन्तु अपने को तोड़कर किसी का निर्माण नहीं करते हैं।
 
अज्ञेय कृत 'शेखर: एक जीवनी' के प्रकाशन के साथ हिन्दी उपन्यास की दिशा में एक नया मोड़ आया। इस उपन्यास को लेकर आलोचकों में भारी मतभेद रहा। किसी ने इसे प्रकाशमान पुच्छल तारा कहकर प्रशंसा की तो किसी ने अतिशय आत्मकेन्द्रित बताकर इसके कथानक को असम्बद्ध और विशृंखल माना ।
 
जैनेन्द्र और अज्ञेय फ्रायड के मनोविज्ञान से प्रभावित हैं तो इलाचन्द जोशी उसके मनोविश्लेषण से। यद्यपि इलाचन्द्र जोशी का पहला उपन्यास 'घृणामयी' सन् 1936 में प्रकाशित हो चुका था, किन्तु 'संन्यासी' (1941) के द्वारा ही उन्हें उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठा मिली। इस उपन्यास में ही पहली बार मनोविश्लेषणात्मक पद्धति की विवृत्ति देखी जाती है। संन्यासी के अतिरिक्त उनके 'पर्दे की रानी', 'प्रेत' और छाया', 'निर्वासित', 'मुक्तिपथ', 'जिरासी', 'जहाज़ का पंछी', 'ऋतु चक्र', 'भूत का भविष्य' आदि उपन्यास प्रकाशित हुए। जोर्शी जी के उपन्यासों की विकास यात्रा में 'मुक्तिपथ' एक मोड़ की सूचना देता है। इसके पूर्ववर्ती उपन्यास मनोग्रंथियों के विश्लेषण पर आधारित हैं। इतने पर भी जोशी जी कहीं भी मनोविश्लेषणात्मक प्रवृत्ति से उबर नहीं पाते। इनके प्रमुख पात्र किसी न किसी मनोवैज्ञानिक ग्रन्थि के शिकार हैं।
 
डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने अपने 'हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास' के द्वितीय खण्ड में 'मनोविश्लेषणवादी परम्परा' शीर्षक से लिखा है- "हिन्दी के अनेक उपन्यासकारों ने अपनी कृतियों में आधुनिक मनोविज्ञान एवं मनोविश्लेषण के सिद्धान्तों के आधार पर अपने पात्रों की मानसिक प्रवृत्तियों-विशेषतः यौन-वृत्तियों, दमित वासनाओं, कुण्ठाओं, ग्रन्थियों आदि का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उन्हें इस परम्परा में स्थान दिया जा सकता है। इनमें जैनेन्द्र कुमार, इलाचन्द्र जोशी, अज्ञेय, देवराज प्रभृति का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जैनेन्द्र कुमार ने 'परख', 'सुनीता', 'त्यागपत्र', 'कल्याणी', 'सुखदा' 'विवर्त', 'व्यतीत', 'जयवर्धने' आदि उपन्यासों की रचना की है। इनमें विभिन्न पात्रों की मानसिक प्रवृत्तियों एवं अन्तर्द्वन्द्व का विश्लेषण अत्यन्त सूक्ष्म रूप में हुआ है। इनके उपन्यासों का प्रमुख तत्त्व यह अन्तर्द्वन्द्व ही है। शेष तत्त्व कथावस्तु, वातावरण, शैली आदि गौण हैं। सामान्यतः इनमें नारी और पुरुष के पारस्परिक आकर्षण का चित्रण हुआ है, किन्तु उनकी नारियाँ पुरुष पात्रों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली एवं सशक्त दृष्टिगोचर होती हैं। इसीलिए इनके उपन्यासों को नायिका प्रधान भी कहा जाता है। इनकी नायिकाएँ भी प्रायः एक जैसे व्यक्तित्व वाली हैं। वे विवाहिताएँ हैं किन्तु विवाह के अनन्तर अपने पति के मित्र, भाई या किसी अन्य सामाजिक कार्यकर्त्ता के सम्पर्क में आती हैं और वे उसे अपने हृदय का स्नेह, सच्ची सहानुभूति और कभी-कभी अपना सर्वस्व भी समर्पित करती हुई उनके चरित्र को ऊँचा उठाने या उनकी पीड़ा को कम करने का प्रयास करती हैं।"

ये नायिकाएँ बहुत उदार और स्वच्छन्द हैं, पर वे पतित नहीं हैं। वे अन्य व्यक्ति से सम्पर्क रखती हुई भी पति के प्रति प्रायः सच्ची रहती हैं। वे पत्नी और प्रेमिका दोनों के कर्त्तव्य का निर्वाह करती हुई पत्नीत्व और सतीत्व, प्रेम और मर्यादा दोनों को सँभाले रखती हैं। अनेक उपन्यासों में आधुनिक समाज में नारी को स्थिति को स्पष्ट करते हुए उसके दुःख-दर्द को भी पूरी सहानुभूति से चित्रित किया है। जैनेन्द्रजी के पात्र कई बार स्वयं लेखक की ही भाँति अत्यन्त अस्पष्ट, अस्वाभाविक एवं विचित्र हो जाते हैं । उनकी भावनाओं के साथ सभी परिस्थितियों में तादात्म्य नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए 'सुनीता' में श्रीकान्त अपनी पत्नी को अपने मित्र के साथ अकेली छोड़कर कुछ दिनों के लिए बाहर चला जाता है, ताकि दोनों में घनिष्ठता हो जाये। इसी प्रकार अन्य भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं। उनके अनेक उपन्यासों का कथानक भी लगभग एक जैसा है तथा बार-बार एक जैसी ही प्रवृत्तियों एवं समस्याओं को प्रस्तुत किया है। फिर भी यौन समस्याओं एवं स्वच्छन्द प्रणय की अनुभूतियों से विशिष्ट एवं विचित्र रूप में प्रस्तुत करने के कारण उन्हें पर्याप्त ख्याति प्राप्त हुई है।
 
सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' ने भी 'शेखर: एक जीवनी', 'नदी के द्वीप' और 'अपने-अपने अजनबी' में यौन प्रवृत्तियों का चित्रण किया है जो कहीं-कहीं अत्यधिक अस्वाभाविक एवं असामाजिक भी हो गया है। इसीलिए उनकी कृतियों की प्रारम्भ में पर्याप्त निन्दा एवं कुचर्चा भी हुई, किन्तु इससे अज्ञेय का हित ही हुआ । अज्ञेय के सिद्धान्त के अनुसार जिस लेखक का जितना अधिक विरोध होगा, वह उतना ही बड़ा लेखक होता है। अतः इस दृष्टि से अज्ञेय को बहुत बड़ा लेखक माना जा सकता है।
 
इसके अतिरिक्त डॉ. देवराज के 'पथ की खोज', 'बाहर-भीतर', 'रोड़े और पत्थर', 'अजय की डायरी' आदि तथा धर्मवीर भारती के 'गुनाहों का देवता' और 'सूरज का सातवाँ घोड़ा', अनन्तगोपाल शेखड़े के 'निशागीत' और 'मृगजल', प्रभाकर माचवे के 'द्वाभा' और 'साँचा', यादव चन्द्र जैन का 'पत्थर-पानी', नरेश मेहता का 'डूबते मस्तूल', गिरिधर गोपाल का 'चाँदनी में खण्डहर' तथा नरोत्तम प्रसाद नागर का 'दिन के तारे' आदि भी इसी परम्परा में आते हैं। इनमें सामान्यतः सेक्स सम्बन्धी कुंठाओं, दमित वासनाओं एवं मानसिक ग्रन्थियों का ही निरूपण और उद्घाटन किया गया है। मनोविश्लेषण को अधिक महत्त्व दिये जाने के कारण इसमें समाज की व्यापक समस्याओं एवं राष्ट्र की विशिष्ट परिस्थितियों की प्रायः उपेक्षा हुई है। जीवन दर्शन की दृष्टि से ये उपन्यासकार प्रायः व्यक्तिवादी अथवा अति व्यक्तिवादी कहे जा सकते हैं, किन्तु इन्होंने व्यक्ति के अस्वस्थ पक्ष का उद्घाटन अधिक किया है।

मनोविश्लेषणवाद ने हिन्दी उपन्यासों को केवल बाहरी घटनाओं की कहानी से आगे बढ़ाकर मानव मन के अनछुए पहलुओं की खोज का माध्यम बनाया। यह दृष्टिकोण लेखकों को यह समझने में मदद करता है कि व्यक्ति का व्यवहार केवल बाहरी परिस्थितियों का परिणाम नहीं, बल्कि उसकी आंतरिक दुनिया का भी प्रतिबिंब है। इस तरह, हिन्दी साहित्य में मनोविश्लेषण ने पात्रों को अधिक जीवंत, बहुआयामी और यथार्थवादी बनाया। यह प्रभाव न केवल लेखकों के लिए, बल्कि पाठकों के लिए भी एक नया अनुभव लेकर आया, जहाँ वे कहानी के साथ-साथ स्वयं अपने मन की परतों को भी टटोल सकते हैं।

हिन्दी उपन्यासों में मनोविश्लेषण का यह सफर केवल एक साहित्यिक प्रयोग नहीं, बल्कि मानव स्वभाव को समझने की एक सतत प्रक्रिया है। यह लेखकों को समाज और व्यक्ति के बीच के संबंधों को नए नजरिए से देखने की प्रेरणा देता है और साहित्य को एक ऐसी कला बनाता है, जो बाहरी दुनिया के साथ-साथ भीतरी दुनिया को भी प्रतिबिंबित करती है। इस तरह, मनोविश्लेषणवाद हिन्दी उपन्यासों में एक शक्तिशाली औजार के रूप में उभरा, जो समय के साथ और भी परिपक्व और विविध रूपों में विकसित होता रहा।

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