छायावाद स्वाधीन चेतना का काव्य है

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छायावाद स्वाधीन चेतना का काव्य है छायावाद हिंदी साहित्य की वह काव्यधारा है जिसने भारतीय मनीषा की स्वाधीन चेतना को सर्वप्रथम साहित्यिक अभिव्यक्ति प्रद

छायावाद स्वाधीन चेतना का काव्य है


छायावाद हिंदी साहित्य की वह काव्यधारा है जिसने भारतीय मनीषा की स्वाधीन चेतना को सर्वप्रथम साहित्यिक अभिव्यक्ति प्रदान की। यह केवल एक साहित्यिक आंदोलन नहीं, बल्कि मनुष्य की आंतरिक स्वतंत्रता का दर्शन है जो काव्य के माध्यम से प्रकट हुआ। छायावादी कवियों ने परंपरागत बंधनों से मुक्त होकर मानव मन की गहन अनुभूतियों, प्रकृति के रहस्यमय सौंदर्य और आत्मा की अमरता को अपनी कविता का विषय बनाया। इस प्रकार छायावाद ने साहित्य को बाह्याचार से मुक्त कर उसे आंतरिक सत्य की खोज का माध्यम बना दिया।

स्वाधीन चेतना के रूप में छायावाद का उदय औपनिवेशिक युग में हुआ जब भारतीय समाज पश्चिमी विचारों और परंपरागत मूल्यों के बीच संघर्ष कर रहा था। इस संदर्भ में छायावादी कवियों ने न तो अंध परंपरावाद को अपनाया और न ही पश्चिम का अंधानुकरण किया, बल्कि उन्होंने एक स्वतंत्र दृष्टि विकसित की जिसमें मानवीय मूल्यों और राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतिष्ठा थी। जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' हो या निराला की 'राम की शक्तिपूजा', इन रचनाओं में मनुष्य की आत्मनिर्भरता और आध्यात्मिक स्वतंत्रता का जो दर्शन प्रस्तुत हुआ है, वह छायावाद की मूल चेतना को दर्शाता है।

'छायावाद' हिन्दीकविता के कलात्मक उत्कर्ष का युग है। इसमें एक साथ ही कविता के कथ्य और शिल्प सम्बन्धी परम्परागत मानदंड चरमराकर टूट गये थे। इन परिवर्तनों को देखकर पुराने आचार्यों का चौंकन्ना होना स्वाभाविक था। वे चौके और इस नयी तरह की रचना-धारा के बारे में उनके जो विचार आये उनमें से अधिकांश अटकलों पर आधारित होने के कारण एकांगी और परस्पर विरोधी हो गये। 'छायावाद' को जिन लोगों ने समझाने की कोशिश की है, उनमें से कुछ के विचार इस प्रकार हैं : 

उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर पता लगता है कि 1920 के आस-पास 'छायावाद' नाम का प्रचलन हो चुका था। सर्वप्रथम मुकुटधर पाण्डेय ने 'श्री शारदा' पत्रिका में 'हिन्दी में छायावाद' शीर्षक से चार लेख प्रकाशित कराये थे जिनमें उन्होंने 'छायावाद की विशेषताओं-वैयक्तिकता, स्वातंत्र्य, रहस्यवादिता, विचित्र प्रकाशन रीति, (वैशिष्ट्य) अस्पष्टता कल्पनाशीलता आदि का उल्लेख करते हुए इसे भाव-प्रकाशन का नया मार्ग कहा है। सरस्वती के जून 1921 के अंक में सुशीलकुमार ने अपने संवादात्मक लेख में छायावादी कविता को टैगोर स्कूल की चित्रकला के समान अस्पष्ट बताया है। 

छायावाद स्वाधीन चेतना का काव्य है
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने 'सुकविकिंकर' नाम से मई 1927 के सरस्वती में 'आजकल के हिन्दीकवि और कविता' शीर्षक लेख में लिखा कि 'छायावाद से लोगों का क्या मतलब है, कुछ समझ में नहीं आता। शायद उनका मतलब है किसी कविता के भावों की छाया यदि कहीं अन्यत्र जाकर पड़े तो उसे छायावादी कविता कहनी चाहिए। उनके अनुसार अन्योक्ति पद्धति ही छायावाद आगे चलकर आचार्य शुक्ल ने छायावाद और रहस्यवाद को समानार्थी मानते हुए इसमें विषय को गौड़ और शिल्प को प्रमुख माना। उन्होंने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में लिखा कि 'ईसाई सन्तों के छायाभास (फैंटासमाटा) तथा योरोपीय काव्यक्षेत्र में प्रवर्तित आध्यात्मिक प्रतीक वाद (सिंबालिज्म) के अनुकरण पर रची जाने के कारण बंगला में ऐसी कविताएँ 'छायावाद' कही जाने लगी थीं। यह वाद क्या प्रकट हुआ, एक बने बनाये रास्ते का दरवाजा सा खुल पड़ा और हिन्दी के कुछ नये कवि उधर एकबारगी झुक पड़े।
 
शुक्ल जी ने अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए आगे लिखा है- 'छायावाद की कविता की पहली दौड़ तो बंगभाषा की रहस्यात्मक कविताओं के सजीले और कोमल मार्ग पर हुई। पर उनके कविताओं की बहुत कुछ गतिविधि अंग्रेजी वाक्यखण्डों के अनुवाद द्वारा संघटित देख, अंग्रेजी वाक्यों से परिचित हिन्दी कवि सीधे अंग्रेजी से ही तरह-तरह के लाक्षणिक प्रयोग लेकर उनके ज्यों-के-त्यों अनुवाद जगह-जगह अपनी रचनाओं में जड़ने लगे।

इस प्रकार आचार्य शुक्ल ने छायावाद को योरोपीय और बँगला कविताओं की नकल मानते हुए उसे 'ऊटपटांग चित्र' और गाँव में नया-नया आया ऊँट, बताते हुए उसका उपहास किया। बाद में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आचार्य शुक्ल के कथन का खण्डन करते हुए स्पष्ट किया कि 'यह भ्रम ही है कि इस प्रकार के काव्यों को बंगला में 'छायावाद' कहा जाता था और वहीं से यह शब्द आया है। 

'छायावाद' शब्द केवल चल पड़ने के कारण ही स्वीकारणीय हो सका है, नहीं तो इस श्रेणी की कविता की प्रकृति को प्रकट करने में यह शब्द एकदम असमर्थ है। ....छायावाद एक विशाल सांस्कृतिक चेतना का परिणाम था,वह पाश्चात्य प्रभाव नहीं था, कवियों की भीतरी व्याकुलता ने ही नवीन भाषा-शैली में अपने को व्यक्त किया । महादेवी वर्मा ने छायावाद को आत्माभिव्यक्ति के लिए मनुष्य के हृदय की अकुलाहट का परिणाम माना।

प्रसाद जी की दृष्टि में 'कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुन्दरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी, तब हिन्दी में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया है।" 'मोती के भीतर छाया की जैसी तरलता होती है वैसी ही कान्ति की तरलता अंग में लावण्य कही जाती है। इस लावण्य को संस्कृत साहित्य में छाया और विच्छिति के साथ कुछ लोगों ने निरूपित किया था। 

छायावाद की विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है- 'छाया भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौन्दर्यमय प्रतीक विधान तथा उपचार वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृति छायावाद की विशेषताएँ हैं। अपने भीतर की मोती के पानी की तरह आन्तर-स्पर्श करके भाव-समर्पण करने वाली अभिव्यक्ति छाया कान्तिमयी होती है। ज्ञातव्य है कि जाने-अनजाने शुक्ल जी ने छाया के महत्व को स्वीकार करते हुए लिखा है- 'छायावाद का सामान्य अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन।” 

हिन्दी साहित्य : बीसवीं शताब्दी नामक पुस्तक के 'महादेवी वर्मा' शीर्षक निबन्ध में आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी ने छायावाद की परिभाषा देते हुए कहा कि 'मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौन्दर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है।' डॉ० रामकुमार वर्मा ने छायावाद को 'हृदय की एक अनुकृति' और डॉ० नगेन्द्र ने इसे 'स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह, माना है। डॉ० देवराज के अनुसार 'छायावाद धार्मिक पौराणिक चेतना के विरुद्ध आधुनिक लौकिक चेतना का विद्रोह है।' 

कुल मिलाकर छायावाद उस वैयक्तिक और राष्ट्रीय स्वाधीन चेतना का प्रतीक है जिसमें हर तरह के सामाजिक शास्त्रीय और राष्ट्रीय बन्धनों को तोड़ देने की उद्दाम लालसा वेगवती धारा के समान हिलोरें लेती हुई प्रकट हुई है। इसमें अपनी पूर्ववर्ती द्विवेदी युगीनकाव्य-धारा का विकास भी है और उसकी रूढ़ियों के प्रति प्रखर विद्रोह भी।इसने भारतीय मन की गहराइयों से उठने वाली स्वतंत्रता की आकांक्षा को काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी। छायावादी कवियों की यह स्वाधीन चेतना आज भी प्रासंगिक है क्योंकि यह मनुष्य को बाहरी और भीतरी गुलामी से मुक्त करने का संदेश देती है। साहित्य की यह धारा हमें सिखाती है कि सच्ची स्वतंत्रता केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि बौद्धिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भी होनी चाहिए।

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