मुक्तिबोध के काव्य में सामाजिक चेतना

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मुक्तिबोध के काव्य में सामाजिक चेतना मुक्तिबोध के काव्य में सामाजिक चेतना का विषय गहराई से समाया हुआ है। उनकी कविताएँ केवल सौंदर्य और भावनाओं तक सीमि

मुक्तिबोध के काव्य में सामाजिक चेतना


मुक्तिबोध के काव्य में सामाजिक चेतना का विषय गहराई से समाया हुआ है। उनकी कविताएँ केवल सौंदर्य और भावनाओं तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे समाज के यथार्थ और उसकी विसंगतियों को उजागर करती हैं। उनके काव्य में सामाजिक चेतना का स्वर मुख्य रूप से वर्ग संघर्ष, शोषण, अन्याय और मानवीय मूल्यों के ह्रास के प्रति आक्रोश और चिंता के रूप में प्रकट होता है। मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज के उन वर्गों की पीड़ा को अभिव्यक्त किया है जो शोषण और अन्याय का शिकार हैं। उनकी कविताएँ मध्यवर्गीय समाज की मानसिकता, उसकी द्वंद्वात्मक स्थिति और उसके अंतर्विरोधों को भी गहराई से उकेरती हैं।
 
मुक्तिबोध के अनुसार जो लोग आत्मसंतुष्टिपूर्वक समाज से सामंजस्य की बात करते हैं, उनकी जिन्दगी में जरा घुसकर देखने से पता चलता है कि उन्होंने कितना और कैसा सामंजस्य प्राप्त कर लिया है। असल में वह सामंजस्य न होकर शिष्ट समाज की गोल-मोल सतही आवभगत से अपनी गोल-मोल सतही सामाजिक भद्रता का सामंजस्य होता है। वह सामंजस्य यश और शिश्नोदर की लिप्सा में पड़े हुए मनुष्य का आत्मछल मात्र है। " 

यह है आधुनिक युग के कबीर, मुक्तिबोध का समाज बोध। लिजलिजे व्यवहार वाले लोगों को मुक्तिबोध-फटकारते हैं। वह विसंगतियों का खुलकर विरोध करने के लिए कहते हैं- "कट जाओ/ टूट जाओ/ टूटने से विस्फोटक शब्द जो होगा/ अकेली ही तुम्हारी ही वह सिर्फ नहीं होगी कहानी।" कल्पना-लोक में विचरण कर और खुलकर संघर्ष करने 
में बहुत अन्तर है। सूरत तभी बदलेगी जब संघर्ष होगा। स्थापित शोषक विस्थापित होंगे -
 
सुकोमल काल्पनिक तल पर 
नहीं है द्वन्द्व का उत्तर 
तुम्हारी स्वप्न-वीथी कर सकेगी क्या 
विना संहार के सर्जन, असंभव है 
समन्वय झूठ है 
सब सूर्य फूटेंगे 
व उनके केन्द्र टूटेंगे 
उड़ेंगे खंड 
बिखरेंगे गहन ब्रह्माण्ड में सर्वत्र 
उनके नाश में तुम योग दो ।
 
मुक्तिबोध के काव्य में सामाजिक चेतना
साहित्य वह है जो हित की भावना से युक्त हो। आचार्य शुक्ल की मान्यता है कि “साहित्य विलास की वस्तु नहीं, साहित्य का अन्तिम लक्ष्य है। जगत् के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण कर मानव-हृदय के साथ सामंजस्य स्थापन।" मुक्तिबोध ने भी समाज में व्याप्त विसंगतियों का प्रत्यक्षीकरण किया है, इससे जन-मन को अवगत कराया है और संघर्ष के लिए प्रेरित किया है। मुक्तिबोध अपना और साथ-साथ नयी कविता का उद्देश्य इस प्रकार स्पष्ट करते हैं- "यह ध्यान में रखने की बात है कि नयी कविता वर्तमान ह्रासग्रस्त, अध:पतन शील सभ्यता की असलियत को जब तक पहचानती नहीं है, सभ्यता के मूलभूत प्रश्नों से अपने को जब तक जोड़ नहीं लेती, मानवता के भविष्य निर्माण के संघर्ष से जब तक स्वयं को संयोजित नहीं कर पाती, जब तक उसमें उत्पीड़ित और शोषित मुखों के बिम्ब दिखायी नहीं देते, उनके हृदयों का आलोक दिखाई नहीं देता, तब तक सचमुच हमारा कार्य अधूरा रहेगा।" 

आज यदि आलोचक, मुक्तिबोध द्वारा निर्धारित कार्य का अवलोकन करें तो पायेंगे कि यह अधूरा है। आज भी स्थितियाँ जस की तस हैं। कारण है कि मुक्तिबोध ने जो नींव रखी थी, उसे वहीं रोक दिया गया। साहित्यिक, कविजन आदि शान्त हो गये, परिणामतः लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकी। यह लक्ष्य तभी प्राप्त होने वाला है, जब हम मुक्तिबोध की निम्नलिखित काव्य-पंक्तियों पर ध्यान देंगे -
 
हम जो विरोधी थे 
कुओं तहखानों में कैद बंद 
लेकिन हम इसलिए मरे कि जरूरत से ज्यादा नहीं 
बहुत-बहुत कम हम बागी थे।
 
यदि हमें अपना अस्तित्व बचाना है, तो जरूरत से अधिक बागी होना पड़ेगा, अपना हक छीनना होगा, माँगने से वह नहीं मिलेगा। अन्यथा हम बे मौत मारे जायेंगे। कवि को विश्वास है कि- 

मैं हूँ जवाबी गदर 
जिससे कि और ज्यादा तैयारियाँ कर 
आज नहीं कल फूट पड़ेगा जरूर 
जरूर ।
 
कवि को जवाबी कार्रवाई के लिए उपयुक्त अवसर की तलाश है। वह लक्ष्य के प्रति अंध आसक्त और सर्वहारा के पक्ष में पूर्णतः प्रतिबद्ध हैं। सुलेखचन्द्र शर्मा का कथन यहाँ द्रष्टव्य है- “एक गहन आत्मीयता और तरल आस्था की सर्वगामी चेतना मुक्तिबोध की संवेदना को एक संभाव्य मनोमय आदर्श से सदैव जोड़े रखती है, किन्तु उस सम्भाव्य के मूल में निहित द्वन्द्व-चेतना को परखने में कवि की दृष्टि कभी धोखा नहीं खाती, फलतः उसके भविष्य-स्वप्न रोमानी रंगच्छायाओं के कुहरिल परिवेश में धुल नहीं जाते, एक यथार्थपरक समष्टि-निष्ण के द्वार पर अनवरत् दस्तक देते रहते हैं।"
 
मुक्तिबोध सर्वहारा वर्ग के दुःखों को व्यंजित करते हैं। उनकी कमियों का उन्हें भान कराते हैं और संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन इसके पहले अपने ही वर्ग से सम्बन्धित लोगों की यथास्थितिवादिता, सिद्धान्त को व्यवहार में परिणत न करने की दशा का चित्रण करते हुए कहते हैं कि- 

लोगों 
एक जमाने में जो मेरे ही थे 
बहुत स्वप्न द्रष्टा थे 
कवि थे, चिन्तक और क्रांतिकारी थे 
क्या हो गया तुम्हें अब 
प्रतिदिन कर उपलब्ध सत्य 
अब खो देते हो अगले क्षण ही 
अपने अनुभव के पुत्र गवाँ देते हो क्यों ।
 
मुक्तिबोध सत्य की पहचान करना चाहते हैं, उसे पाना चाहते हैं। यथार्थ को जीना चाहते हैं। जिसे आत्म-सत्य की पहचान हो गयी, वह अनैतिक कार्य नहीं करेगा। जीवन- मूल्यों की रक्षा में सन्नद्ध होगा। आधुनिक सभ्यता/ आधुनिक समाज संकट ग्रस्त है। इसका कारण उसकी अज्ञानता है। उसे अपने जीवन-सत्य की पहचान नहीं है। वह मूल्य- विरहित है। मुक्तिबोध ने जीवन-सत्यों से अवगत कराके जनसामान्य को दिशा देने का कार्य किया है। मूल्यों का अवमूल्यन रोकने का संकेत दिया है।
 
मुक्तिबोध सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए गहरा व्यंग्य भी करते हैं, क्योंकि जब बात सीधे कहने पर असर नहीं करती है तो व्यंग्य ही एकमात्र सहारा है। यह सामने वाले को तिलमिला देने वाला होता है। तारसप्तक में संकलित कविताओं में मुक्तिबोध ने व्यंग्य किया है, लेकिन परवर्ती कविताओं में यह व्यंग्य और धारदार हो जाता है। उनका व्यंग्य दोहरी मार करता है, क्योंकि उसमें फैण्टेसी भी मिल गयी है। मुक्तिबोध की कविताओं का पाठक इस व्यंग्य-विधान से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है। वह सोचने को विवश हो जाता है- 

किन्तु उसी अमंगल को आज सिर्फ 
सहा जाता हास कह 
आज वह मात्र व्यंग्य-रूप है 
तर्क यह- 
हाय ! सबका अंग रूप है 
सभ्यता-समाज का ही हास है 
इसलिए सहनीय मात्र निवेदनीय त्रास है 
ह्रास में भी खूब खूब मजा है 
आदमी की धज्जा है............ 
लक्ष्य समाजी है 
प्रतिभा का जिन्न आज खूब जिसके पास है 
सत्य की सर्चलाइट वह अनायास है।
 
मुक्तिबोध का व्यंग्य बहु-आयामी है। उन्हें जहाँ भी खोट दिखती है, वहीं चोट करते हैं। चाहे पूँजीपति वर्ग हो या फिर साहित्यकार-समाज-सेवी हों - सब उनके व्यंग्य-बाण से छलनी हुए हैं। कवि की धृष्टता कि, अवसर आने पर वह स्वयं को भी नहीं छोड़ता है। क० प० सारथि का कथन द्रष्टव्य है कि- “मुक्तिबोध में अपने आप तक के विरोध करने की प्रवृत्ति थी और खुले खतरनाक तरीके से व्यवहार करने की आदत भी थी। इसी एक गुण ने, जिसने उन्हें तिरस्कार दिलाया, उनकी कविता में तीखापन और निर्वैयक्तिक व्यंग्य का इतना उत्तम रूप भरा है, जो हिन्दी कविता में अपवाद के तौर पर भी नहीं पाया जाता।"
 
समाज व्यक्ति के/ मानव के व्यवस्थित समूह का नाम है। इसलिए मुक्तिबोध सर्वप्रथम मानव की ही मुक्ति की चेष्टा करते हैं। मानवता तार-तार हो रही है, इसे बचाने का प्रयास करते हैं। शोषित मानव को पूँजीपतियों के चंगुल से छुड़ाना मुक्तिबोध अपना कर्त्तव्य समझते हैं। वे इन शोषितों के प्रति पूरी सहानुभूति रखते हैं। लेकिन मुक्तिबोध की सहानुभूति दिखावा नहीं है। वंचितों के प्रति उनकी पूर्ण आस्था है। रवीन्द्रनाथ त्यागी कहते हैं- “मुक्तिबोध का काव्य जीवन के प्रति अटूट आस्था का काव्य है। जीवन की विषम परिस्थितियाँ उनकी इस आस्था को तोड़ नहीं पायीं । आधुनिक सभ्यता की विसंगतियों को उन्होंने पहचाना। निर्धन की प्रतिभा और ईमान को अपमान की आग में सुलगता पाया। वचन और कर्म के विरोध को समाज में व्याप्त देखा, लेकिन शोषण के प्रति धैर्यपूर्ण संघर्ष और मानव के प्रति विश्वास को नहीं त्यागा एक शोषणमुक्त समाज, उसमें पनपने वाले सांस्कृतिक मूल्यों और इससे बढ़कर मानवता के प्रति उनकी अटूट आस्था थी और वहीं हम मुक्तिबोध के काव्य में मानवता की मुक्ति का बाध पाते हैं।"
 
मुक्तिबोध की सामाजिक चेतना अत्यन्त प्रखर है। वे अपनी सामाजिकता का ढिंढोरा नहीं पीटते हैं, बल्कि उसे जीते हैं। उपर्युक्त विवेचन के कथनानुसार यह स्पष्ट होता है कि मुक्तिबोध का समाज-बोध प्रखर है। वे स्थितियों को समझते हैं, उनका अवलोकन करते हैं और फिर खामी की तरफ इंगित भी कर देते हैं। वस्तुतः मुक्तिबोध एक चिकित्सक की भाँति हैं- जो समाज की नब्ज पर हाथ रखते ही बता देते हैं कि बीमारी क्या है और फिर उस बीमारी को दूर करने के लिए उपयुक्त दवा भी लिख देते हैं।
 
आँखों में बँध गई, 
किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया। 
किसी शून्य के अंधियारे खड्डे में गिरा दिया गया मैं..... ।
 
यह कवि के मन की अतल गहराइयों की अभिव्यक्ति है, जिसमें लघु वाक्य अपनी समस्त शक्ति लिये हुए है। यह 'सिबोफ्रेजिक' स्थिति है, जो सपाट किन्तु प्रतीक-गर्भी भाषा में व्यक्त हुई है। इसी भयाक्रांत स्थिति का चित्रण मुक्तिबोध ने भयावनी परिस्थिति का चित्रण करके भी किया है। यह आतंक की भोगी हुई स्थिति है, जिसमें सामाजिक विसंगतियों के मध्य आत्मनाश का भय है और उस आशंका की मनोव्यथा है। अँधेरे में ही सब षड्यन्त्र चलते हैं-
 
अनगिनत काली-काली हायफन - डैशों की लीकें बाहर निकल पड़ीं ? 
अन्दर घुस पड़ीं भयभीत, 
सब ओर बिखराव 
मैं अपने कमरे में यहाँ लेटा हूँ 
काले-काले शहतीर के छत के 
हृदय खोंचते यद्यपि आँगन में नल जोर मारता 
जल खखारता 
किन्तु न शरीर में बल है 
अँधेरे में गल रहा दिल यह 
बुद्धि की मेरी रग 
गिनती है समय की धक् धक् 
..दम छोड़ रहे हैं भाग गलियों में मेरे पैर साँस लगी हुई है, 
जमाने की जीभ निकल पड़ी है, 
कोई मेरा पीछा कर रहा है लगातार ।
 
मुक्तिबोध का काव्य निज और वर्ग की दारुण यातना को इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि दोनों के अन्तर को पकड़ पाना अत्यन्त कठिन है। उसमें आत्मनाश की आशंका भी है और सहचरों की तलाश भी। यह तलाश क्रान्ति के संगठन की खोज है। अतः यहाँ अकेलापन, आत्म-निर्वासन और इन स्थितियों में आत्मालोचन का भाव भी है। यह दो रूपों में व्यक्त हुआ है- शुद्ध भी और विडम्बनात्मक भी। अतः यह आत्मा और वर्ग से सम्बद्ध है। मुक्तिबोध की 'अँधेरे में' कविता इस भयावहता को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करती है। डॉ० जगदीशप्रसाद श्रीवास्तव ने लिखा है कि- "आदि से अन्त तक काव्यनायक या कि उसके माध्यम से स्वयं कवि अपने त्रस्त, आतंकित, भीरु, पलायन के लिए विवश, निरुपाय जीवनानुभवों का कातरतापूर्वक, किन्तु चित्रात्मक वर्णन करता रहता है।" श्रीवास्तव जी द्वारा दिये हुए कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं-
 
1. आवाज पैरों की देती है सुनाई 
बार-बार...बार-बार । 
2. अकस्मात् गिरते हैं भीतर से फूले हुए पलिस्तर 
घिरती है चूने भरी रेत । 
3. हाय, हाय ! मैंने उन्हें देख लिया नंगा, 
इसकी मुझे और सजा मिलेगी। 
4. अकस्मात् 
चार का गजर कहीं खड़का, 
मेरा दिल धड़का ! 
5. एकाएक मुझे भान !! 
पीछे से किसी अजनबी ने 
कन्धे पर हाथ रखा। चौंकता मैं भयानक । 
6. भागता मैं दम छोड़ / घूम गया कई मोड़।
 
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि मुक्तिबोध अपने समय से आक्रान्त हैं। युग की सम्पूर्ण पीड़ा और संत्रास कवि को उद्वेलित करता है। परिणामतः इसी की व्यंजना इसमें हुई है। फासीवादी ताकतें समाज निरन्तर वर्चस्व बढ़ाती जा रही हैं। इनसे लड़ने के लिए संगठन जरूरी है। संगठन के अभाव में ये निरन्तर आतंक को बढ़ावा दे रही हैं। जगह-जगह दुर्घट घटनाएँ घट रही हैं। कवि कहता है- "मानो मेरे कारण ही लग गया/ मार्शल लॉ वह/ मानो मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया/ मानो मेरे कारण ही दुर्घट/ हुई वह घटना।” “अँधेरे में' कविता का काव्यनायक बेचैन हो उठता है। वह भयाक्रान्त है, अवसन्न दशा में पहुँच चुका है, चेतना निष्पन्द हो गयी है। कवि की कविता है-

मेरा सिर गरम है इसीलिए भरम है 
सपनों में चलता है आलोचन 
विचारों के चित्रों की अवलि में चिंतन । 
निजत्व - भाफ है बेचैन 
क्या करूँ, किससे कहूँ, 
कहाँ जाऊँ दिल्ली या उज्जैन ?
 
यह है आज के भयाक्रान्त मनुष्य की तस्वीर, उसके सामने अस्तित्व बचाने का संकट है। पलायन ही एकमात्र रास्ता है। लेकिन भागने से तो अस्तित्व बचने वाला नहीं है, क्योंकि ये शक्तियाँ सर्वव्यापी हैं। अतः इनसे बचने का एक ही उपाय है- संघर्ष। संघर्ष नयी दिशा देगा। क्रान्ति से ही जन-जागृति आयेगी। कवि आश्वस्त है। फासीवादी ताकतें जन-क्रांति को दबाने का यत्न करती हैं, किन्तु क्रांति दबती नहीं, वह अंततः फूट ही पड़ती है, क्योंकि यह क्रान्ति स्वतः स्फूर्त नहीं है, बल्कि एक अदृश्य शक्ति द्वारा प्रेरित है। 'अँधेरे में' कविता का काव्य-नायक शैलियों के अँधेरे में जब भाग रहा था, तो अचानक एक आदमी उसे एक पर्चा थमा जाता है। यह पर्चा क्रांति से सम्बन्धित है। काव्य नायक उस पर्चे को पढ़ता है और महसूस करता है कि-
 
पर्चा पढ़ते हुए उड़ता हूँ हवा में,
चक्रवात-गतियों में घूमता हूँ नभ पर,
ज़मीन पर एक साथ
सर्वत्र सचेत उपस्थित।
प्रत्येक स्थान पर लगा हूँ मैं काम में,
प्रत्येक चौराहे, दुराहे व राहों के मोड़ पर
सड़क पर खड़ा हूँ,
मनाता हूँ, मानता हूँ, मनवाता अड़ा हूँ!!

मुक्तिबोध के काव्य में सामाजिक चेतना का एक अन्य पहलू यह है कि वे अपने समय के राजनीतिक और सामाजिक परिवेश को गहराई से समझते हैं और उसे अपनी कविताओं में प्रतिबिंबित करते हैं। उनकी कविताएँ केवल व्यक्तिगत अनुभवों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे समाज के सामूहिक अनुभवों और संघर्षों को भी अभिव्यक्त करती हैं। उन्होंने अपने काव्य में शोषित और वंचित वर्गों की आवाज़ को मुखर किया है और उनके संघर्षों को सम्मान दिया है। 

इस प्रकार, मुक्तिबोध के काव्य में सामाजिक चेतना एक प्रमुख तत्व के रूप में उपस्थित है, जो उनके काव्य को केवल साहित्यिक महत्व ही नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक महत्व भी प्रदान करता है।

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