मुक्तिबोध की कविता में आत्मसंघर्ष

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मुक्तिबोध की कविता में आत्मसंघर्ष मुक्तिबोध हिंदी साहित्य के एक प्रमुख कवि हैं जिन्होंने अपनी कविताओं में आत्मसंघर्ष को बखूबी उजागर किया है। उनकी कवि

मुक्तिबोध की कविता में आत्मसंघर्ष


मुक्तिबोध हिंदी साहित्य के एक प्रमुख कवि हैं जिन्होंने अपनी कविताओं में आत्मसंघर्ष को बखूबी उजागर किया है। उनकी कविताएं आधुनिक जीवन की जटिलताओं, विरोधाभासों और संघर्षों को दर्शाती हैं।

मुक्तिबोध छायावादोत्तर काल के मूर्धन्य कवियों में हैं। उनकी कविताओं का जनवादी स्वर तथा उनकी जन-सामान्य की दशा को सुधारने की छटपटाहट उन्हें एक सच्चा जनकवि सिद्ध करते हैं, यद्यपि उनके काव्य में कहीं भी छिछले स्तर की नारेबाजी नहीं है।
 
अतः हम कह सकते हैं कि मुक्तिबोध की कविता में व्याप्त जीवनदर्शन अधुनातन मानव मूल्यों से गृहीत है। उसमें आम आदमी की ज़िन्दगी की समस्याओं के दृश्य हैं। इन दृश्यों में निम्न मध्यमवर्गीय व्यक्तियों की समस्याएँ अधिक हैं, अतः उनमें मार्क्सवादी चिन्तन का अंश अधिक है।

मुक्तिबोध का मार्क्सवादी चिन्तन

मुक्तिबोध की कविता में आत्मसंघर्ष
मुक्तिबोध का प्रायः सम्पूर्ण जीवन आर्थिक विषमताओं से संघर्ष करते हुए व्यतीत हुआ, किन्तु उन्होंने परिस्थितियों के सम्मुख घुटने नहीं टेके। इस सन्दर्भ में उन्होंने स्वयं ही यह निर्देश किया है- (तारसप्तक के द्वितीय संस्करण में, पुनश्च के रूप में)- “पिछले बीस वर्षों में न मालूम कितनी बातें घटित हुई हैं। वे सबके सामने हैं। मेरी अपनी ज़िन्दगी जिन तंग गलियों में चक्कर काटती रही उन्हें देखते हुए यही मानना पड़ता है कि साधारण श्रेणी में रहनेवाले हम लोगों को अस्तित्व-संघर्ष के प्रयासों में ही समाप्त होना है। मेरा अपना प्रदीर्घ अनुभव बताता है कि व्यक्ति-स्वातन्त्र्य की वास्तविक स्थिति केवल उनके लिए है जो उस स्वातन्त्र्य का प्रयोग करने के लिए संपुष्ट आर्थिक अधिकार रखते हों, जिससे कि वे परिवारसहित मानवोचित जीवन व्यतीत कर सकें और साथ ही व्यक्ति-स्वातन्त्र्य का ऐसा प्रयोग भी कर सकें जो विवेकपूर्ण हो और लक्ष्योन्मुख हो । अपने जीवन के आर्थिक आधार को दृढ़ और सम्पुष्ट करने के लिए व्यक्ति के व्यवसायीकरण का मार्ग भी सामने आता है। मेरे लेखे यह अत्यन्त अनुचित मार्ग। और कम-से-कम मैं उसे कभी स्वीकार नहीं कर पाया, लेकिन वह मार्ग तो सामने आता ही है और व्यवसायीकरण-व्यापारीकरण का दबाव तो तीव्रतर होता जाता है। सच तो यह है कि व्यक्ति की सच्ची आत्म-परीक्षा, उसकी आध्यात्मिक शक्ति की परीक्षा, सबसे प्रधान समय, उस इम्तिहान का सबसे नाजुक दौर यही आज का युग है ।"

मुक्तिबोध के लिए महाप्राण निराला की निम्नलिखित पंक्तियाँ उतनी ही सार्थक एवं सटीक हैं, जितनी स्वयं निराला जी के लिए - 

“जाना तो अर्थागमोपाय / पर रहा सदा संकुचितकाय 
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर/हारता रहा मैं स्वार्थ समर । 
दुःख ही जीवन की कथा रही/क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।"
 
मुक्तिबोध ने अपने जीवन में ही नहीं, अपनी रचना के लिए भी जीवनभर संघर्ष किया है। इस संघर्ष की ओर संकेत करते हुए वे कहते हैं कि, “सच तो यह है कि आज के कवि को एक साथ तीन क्षेत्रों में संघर्ष करना है-- (1) तत्त्व के लिए संघर्ष, (2) अभिव्यक्ति को सक्षम बनाने के लिए संघर्ष, और (3) दृष्टि-विकास का संघर्ष।” (नयी कविता का आत्मसंघर्ष पृ0 03) 

मुक्तिबोध ने अपनी कृतियों के तत्त्व के लिए जीवन की गहन एवं विषम समस्याओं से जूझकर संघर्ष किया है। अभिव्यक्ति को सक्षम बनाने के लिए वे 'पत्रकारिता', अध्यापन, निबन्ध-समीक्षा-लेखन के साथ-साथ जीवनपर्यन्त काव्य-सर्जना में संलग्न रहे। दृष्टिविकास के संघर्ष के रूप में उन्होंने स्वदेश और विदेश के अनेक दार्शनिकों एवं साहित्यकारों की कृतियों का अध्ययन-मनन किया है और अपने मस्तिष्क के पीछे अकेले में/गहरे अकेले में/न कह सके जाने वाले अनुभवों के ढेर को उन्होंने कविता में उतारने का सार्थक प्रयास किया है।

मुक्तिबोध का मार्क्सवादी चिन्तन हिंदी साहित्य और विचारधारा में एक महत्वपूर्ण योगदान है। उनके विचारों ने सामाजिक यथार्थ, वर्ग संघर्ष, मानवतावाद और सांस्कृतिक चेतना जैसे विषयों पर गहन बहस को जन्म दिया।

मुक्तिबोध की व्यक्तिवादी मनोभूमि

'आत्मसंघर्ष की कविता' मुक्तिबोध की व्यक्तिवादी मनोभूमि में जन्म लेती है। विषम परिस्थितियों में संघर्षशील 'लघुमानव' की व्यथाकथा ही आज की कविता है। जब यह असहाय, निरस्त्र, निष्कवच, बुद्धिवादी मनुष्य ज़िन्दगी के हर मोर्चे पर अपने को असफल-अक्षम पाता है, तब उसके जीवन की उलझनें, 'कदम-कदम पर मिलनेवाले चौराहे' कवि को कविता के बजाय 'उपन्यास' की सामग्री प्रदान करते हैं। सुरंग, तंग गलियाँ, दो पहाड़ियों के बीच दूरी य करनेवाले सैनिक की तरह अपनी और देश की चिन्ता मुक्तिबोध की मूल चिन्ता है। जीवन में निराशा के कारण विद्यमान गहन अँधेरा, ताप और लावा की जलन, संत्रास-घुटन और अवसाद का अनुभव कवि की रचना को व्यक्तिवादी प्रवृत्ति से जोड़ता है :
 
"मैं अपने से ही सम्मोहित, मन मेरा डूबा निज में ही 
मेरा ज्ञान उठा निज में से, मार्ग निकाला अपने से ही 
मैं अपने में ही जब खोया, तो अपने से ही कुछ पाया 
निज का उदासीन विश्लेषण आँखों मे आँसू भर लाया ।"
 
जग से विद्रोही बनने के साथ मुक्तिबोध अपने जीवन में भी विद्रोही बनकर जीने लगे थे। उनके अन्तस् में फूटनेवाला रक्तस्रोत का फव्वारा उनको तल्खी के साथ सुख भी देता था। आत्मवंचना, जीवन का दर्द झेलने की उद्दाम लालसा, प्रायश्चित और क्षोभ के प्रभाव से टूटकर खण्डित व्यक्तित्ववाले 'ब्रह्मराक्षस' को वे अपने विलोम-रूप में देखते थे। निराशा, अन्तर्द्वन्द्व और मनोभग्नता की स्थिति तथा घुटन की खौफनाक वारदातों को झेलते हुए जिस कवि ने अपने जीवन की 'आहुति' दे दी हो, उसके आत्मसंघर्ष का इससे अधिक प्रमाण क्या हो सकता है ?
 
वास्तव में मुक्तिबोध ने प्रयोगवादी काव्यधारा के द्रष्टा-रूप में इस ऊबड़-खाबड़, कँकरीले पथरीले जीवन के मार्ग पर चलकर जो अनुभव ग्रहण किया था, उसे उन्होंने 'आत्मसंघर्ष' की भट्ठी में भलीभाँति पकाकर अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया है।
 

भाषिक संरचना 

जहाँ तक भाषा-शैली में प्रयुक्त शब्दावली का सम्बन्ध है, यह कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध ने अपनी अभिव्यक्ति को अधिकाधिक सजीव-सटीक बनाने के लिए संस्कृत की तत्सम शब्दावली से लेकर तद्भव, देशी और विदेशी सभी प्रकार की शब्दावली का प्रयोग किया है।
 
यद्यपि अलंकारों की अपेक्षा उनका रुझान बिम्बों और प्रतीकों की योजना की ओर अधिक रहा है, फिर भी उनके द्वारा अलंकारों की भी यथास्थान आयोजना की गई है।
 
मुक्तिबोध के कवि की विशिष्टताएँ रूपायित करते हुए शमशेर बहादुर सिंह ने लिखा है कि- “मुक्तिबोध की कविता को किसी राजदाँ की बातों की तरह सँभल-सँभलकर सोच-सोचकर, बल्कि कभी-कभी दोहरा-दोहराकर पढ़ना चाहिए। किसी-किसी कविता के कई अंश जासूसी उपन्यासों की भी याद दिलाते हैं मगर वह हरगिज एक सपाटे में पढ़ लिये जानेवाले उपन्यास के अंश नहीं हैं।

मुक्तिबोध के काव्य में फैंटेसी

मुक्तिबोध के हर इमेज के पीछे शक्ति होती है। वे हर वर्णन को दमदार, अर्थपूर्ण और चित्रमय बनाते हैं। संग्रह को कहीं से भी उलटिए, सर्वत्र इसके उदाहरण मिलेंगे। कुछ कवि अभिव्यक्ति के लिए विशिष्ट शब्द की खोज करते हैं, मुक्तिबोध विशिष्ट बिम्ब, बल्कि उससे अधिक विशिष्ट प्रतीक की योजना लाते हैं। 
 
प्रगतिवादी कविता के सशक्त हस्ताक्षर केदारनाथ अग्रवाल द्वारा लिखित 'कवि मुक्तिबोध की मृत्यु के बाद' शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ मुक्तिबोध के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को गहराई के साथ रेखांकित करती हैं।" -

"जब तक जिया / अपने लिए नहीं / कृतित्व के लिए जिया 
जो कुछ उसने दिया / जी में जीवन घोल कर दिया 
न कुछ लिया/न अपने लिए किया 
विष हो या रस/उसने पिया 
जो दूसरों ने न पिया 
हम ने/अब कहा उसको 
युग-बोध का मसीहा, / यथार्थ- द्रष्टा 
काव्य में नये का स्रष्टा :/ अद्वितीय कलाकार- 
अपूर्व रचनाकार- / अलमबरदार- ।"

इस प्रकार मुक्तिबोध की कविता में आत्मसंघर्ष एक महत्वपूर्ण विषय है। यह संघर्ष विभिन्न रूपों में प्रकट होता है, जो आधुनिक जीवन की जटिलता और विरोधाभासों को दर्शाता है। मुक्तिबोध की कविताएं पाठकों को इन संघर्षों का सामना करने और जीवन के गहरे अर्थों को समझने के लिए प्रेरित करती हैं।

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