गर्वीला गोल्लर | हिंदी कहानी

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गर्वीला गोल्लर पा ठक बंधु आप सोचेंगे कि गर्वीला तो ठीक है मगर यह गोल्लर क्या है! तो बता दूं, छत्तीसगढ़ में गोल्लर कहते हैं नंदी को, यानी सांड़...

गर्वीला गोल्लर


पाठक बंधु आप सोचेंगे कि गर्वीला तो ठीक है मगर यह गोल्लर क्या है! तो बता दूं, छत्तीसगढ़ में गोल्लर कहते हैं नंदी को, यानी सांड़ का, यानी बुल। मगर नंदी या सांड़ से लेखक का क्या काम। है काम। न बताऊं तो घुलती रहूँ।दरअसल किस्सा यह है कि उस दिन तड़के मैंने घर के सामने का दरवाजा खोला  तो दरवाजे पर बैठी मिली गोमाता। भूरे रंग की हृष्टपुष्ट गोमाता। आराम से बैठी जुगाली करती हुई। सुखद आश्चर्य। दरवाजा तो रोज तड़के मुँह अँधेरे ही खोलती हूँ, भगवती बमलेश्वरी के मंदिर के दर्शन करने। दूर पहाड़ी की ऊची चोटी पर विराजमान है भगवती का मंदिर। अँधेरे में जगमगाता। धर्मध्वजा फहराता। मंदिर को प्रणाम कर घर के भीतर अपनी देनिकचर्या में लग जाती हूँ। मगर उस दिन खोला तो सामने बैठी मिलीं गोमाता। गायें मेरे घर के सामने अक्सर बैठती हैं।  मगर इतने सबेरे! जरूर रात अपने घर गई ही नहीं, मेरे ही दरवाजे गुजार दीं हैं माता। मन भर आया। सो भगवती के मंदिर को प्रणाम कर सीढ़ियों से उतरी। गोमाता को स्पर्शकर प्रणाम किया। कोमल करुण नेत्रों ने निशब्द आशीर्वाद दिया। आशिर्वादिक अनुभूति से घिरी मैं भीतर गई। काम में व्यस्त हो गई।

दूसरे दिन दरवाजा खोला तो फिर वही गोमाता। वैसे ही भगवती मंदिर को प्रणाम किया। नीचे उतरी। इस बार स्पर्श ही नहीं किया। उनका सिर सहलाया। गर्दन सहलाया। पीठ थपथपाई। धन्यवाद कि मेरे दरवाजे पधारीं। प्रणाम कर भीतर चली गई। सुखद अनुभूतियों से भरी।

दो तीन दिन ऐसे ही। चौथे दिन देखा, साथ बैठी हैं एक और गोमाता। फिर सुखद आश्चर्य। उनका भी सिर सहलायां। गर्दन सहलाया। पीठ थपथपाई। उनके नेत्रों में भी वही कोमल करुण  आशीर्वादक अभिव्यक्ति। विभोर ही हो गई मैं तो।

गर्वीला गोल्लर
अगले दिन एक और गोमाता। उनका भी वैसा ही विभोर सत्कार। पाँचवे दिन, छठे दिन। सातवें,गोमाताओं की संख्या बढ़ती गई। मेरा दूर तक पसरा पैत्रिक घर। लाईन से बैठी गोमातायें। सबको लाईन से ही प्रणाम सत्कार करती। आशीर्वादक अनुभूतियों से घिर जाती । दिनभर घिरी ही रहती । कि एक दिन देखा, एक विशालकाय नंदी महराज भी आकर बैठ गए हैं लाईन में। झिझकी मैं। पर आगे बढ़कर उनका भी वैसे ही सिर सहलाया। गर्दन सहलाया। पीठ थपथपाई। महाबली की कोमल कृतज्ञ दृष्टि। आशीर्वाद ही तो।

दो तीन दिन मैंने भीतर जाकर रात में बची रोटी भी लाकर दिया। मगर जब माताओं की संख्या बढ़ने लगी,तो नहीं दे पायी। मगर माताओं को तो जैसे कोई फर्क ही नहीं। संभवतः वे मेरी श्रद्धा जनित स्पर्श दुलार पाने के लिये ही रात भर बैठी रहती थीं। महाबली नंदी महाराज को  भला कौन  ऐसा भावभरा स्पर्श दुलार देने की हिम्मत करता। सो वे भी इसी आस में रात भर डटे रहते।

लोग कहते....आप बहुत भाग्यशाली हैं जी। लक्ष्मी मैया दलबल के साथ आपको आशीर्वाद देने बैठी रहती हैं। मैं गदगद।पर फिर एक परेशानी भी।सुबह जब ये मातायें जातीं तो मेरे घर के सामने गोबर, गोमूत्र, उनके मुँह नाक, आँख से निकली कीच, गंदे द्रव्य, वमन, लाईन से बिखरे पसरे रहते। जाने इन गोमाताओं का पेट खराब रहता था या क्या ,गोबर पिलपिले पसरे हुये। साथ में इनके बीच घुस आये कुत्तों की गंदगी भी। एकदम घिनाई। अब ये  गंदगी कौन साफ करे। जाहिर है, मैं ही। यों सड़कें साफ करने  सफाई कर्मचारी आते , मगर वे सड़कें साफ करते । लोगों के घरों की दीवारों से सटी गंदगी नहीं। फिर इन दूर तक पसरी  विद्रूप गंदगियों को साफ करने बड़ा सा सूप, फावड़ा,खर्राटा झाड़ू की जरूरत पड़ती। साथ में ढेर सारे पानी की भी। जब तक दो तीन गायें थीं, मैं कर ही लेती सफाई। पर जब माताओं की संख्या बढ़ती गई, गंदगी का विस्तार और फैलाव बढ़ता गया, मेरी हिम्मत जवाब देने लगी।
 
खिजलाहट भी हावी होने लगी। दरअसल मैं गंदगी साफ करने का काम सुबह सुबह नहाने के पहले ही कर लेती हूँ। मगर ये मातायें अक्सर सुबह हो जाने के बाद भी टलें ना। मैं घर की सफाई करने के बाद बार बार बाहर झाँकती रहूँ।  मगर ये मातायें अपनी गंदगी में ही मगन जुगाली करती बैठी दिखें। दुख तारी हो जाये।
  
दुख और भी घनीभूत, कारण कि मेरे सारे पड़ोसियों के घर के सामने का दृश्य हो बड़ा ही मनोरम। दरअसल मेरा मुहल्ला हे खानदानी श्री संपन्न लोगों का। सामान्यतः मकानों में आधुनिकता तो आ गई है, पर साथ है परंपराओं की हृदयग्राही विरासत भी। परंपरानुसार लोग  मुँह अँधेरे ही अपने घर के सामने का हिस्सा स्वयं साफ करते हैं। ”खोरबहरा“ छत्तीसगढ़ में सामान्य नाम रहा है। खोरबहरा का मतलब है, घर के सामने के हिस्से की भी सफाई करने वाला स्वच्छताप्रिय।। हमारे मुहल्ले में महिलाये ही करती हैं सफाई, पर कई घरों में पुरुष भी करें, चाहे खानदानी रईस हों। झाड़ू से बुहारकर, पानी से धोकर,स्वच्छ चिकना किया जाता है सामने का प्रांगण, फिर महिलायें उस पर छोटी सी रंगबिरंगी रांगोली बना देती हैं। रंगोली के बीचों बीच दीप बाल कर रख देती हैं । भोर के मधुरिम आभा मे सद्यः संवारी सतह पर सजी मनोहारी रांगोली, उसपर झिलमिलाता नन्हा सा दीप। प्रभाती का मासूम स्वागत करता ।
  
सुबह टहलने वाले गुजरते तो इन्हें देखते अनूठी सी आनंदमयी ऊर्जा से भर जाते। मेरे घर तरफ देखते तो तत्क्षण नजरें फेर लेते।कई बार गोमातायें इतनी देर से आसन त्यागतीं कि सड़क में आवाजाही शुरू हो। राह चलते लोग मुझे सूप झाड़ू  फावड़ा लिये सफाई करते देखते, तो दया से भर जाते। कहते...काम वाली बाई से कहिये न, सफाई करने। मैं चिढ़ जाती...”बताईये कहाँ है ऐसी कामवाली बाई जो सबेरे सबेरे ऐसी गंदगी साफ करे“। बस फिर लोग ठिठक जाते। कामवाली बाईयों पर चर्चा शुरू...”कामवाली बाईयाँ तो अब मैडम हो गई हैं। क्या कपड़े, क्या गहने, क्या साजश्रृगार और क्या तेवर। क्यों न हो, मुफ्त राशन,मुफ्त बिजली पानी, मुफ्त घर,मुफ्त चीजों की भरमार। तिसपर लाड़ली बहनों पर मुफ्त पैसों की बारिश भी। अब क्या ये ऐसी गंदगी साफ करेंगी, हमारे जैसों के कहने से!
 सो चर्चा गंदगी फैलाई गोमाताओं पर। चर्चा कि गोमातायें हैं तो आखिर पशु ही। इन्हे कोई प्रशिक्षण तो दिया नहीं गया है कि यहाँ यहाँ विसर्जन नहीं करना है। कूड़े के ढेर मे मुँह नहीं मारना है। बीच सड़क में बैठ जुगाली नहीं करना है। सभी लावारिस नहीं हैं, पर जिनके मालिक हैं वे भी लावारिस सी। गोबर, कीचड़ में सनी घिनाई रहें, रातभर न लौंटें, बूढ़ी गोमाताये कहीं मर खप जाय, मालिक को पर्वाह ही नहीं। ं

अमुक अमुक हाईवे पर बैठी गोमातायें अक्सर भारी वाहनो से कट जाती हैं। खून से लथपथ कुचली लाश पड़ी रहती है। देखा नहीं जाता। मालिक को पता ही नही। पर मालिक हैं ही कितने! बस वही जो दूध का धंधा करते हैं। इन्हें भी कोई दूसरा धंधा मिल जाये तो गायें रखना छोड़ दें। असल में गायें रखना मजाक नहीं है। बहुत सेवा लगती है। शहरों में तो गाय पालना संभव नहीं। गाँवों में भी बहू बेटियाँ गोबर, मूत्र, कीचड़ छूना नहीं चाहतीं। चरवाहे भी नहीं मिलते। मजदूरी का रेट बहुत बढ़ गया है। सो शहर भाग जाते हैं मजदूरी करने। विदेश भी जाने लगे हैं। ”महाराजजी लोग“ अपने प्रवचनों में गोमाता का इतना महात्म्य बताते हैं, गोहत्या, गोतस्करी पर प्रतिबंध,राष्ट्रमाता घोषित हो वगैरह, पर गाय पालकर ”सेवा करने“ पर ”असरदार जोर“ नहीं। सो लोग खिलापिलाकर, सत्कार कर, पुण्य कमा लेना चाहते हैं, पर सेवा नहीं। महात्म्य फलीभूत कराना हो तो जर्बदस्त ”सेवाअभियान“ चलाने की जरूरत है। अभियान कि हर समर्थ व्यक्ति अपने घर में गाय पाले। ऐसी सेवा करे कि गोमाता स्वस्थ, सुंदर घर की शोभा लगें। जिसकी गाय सबसे सुंदर, स्वथ्य, उसे शानदार ढंग से सम्मानित किया जाये। गाय पालना शान हो।  इस मुद्दे को तो विरोधी पक्षं को लपक लेना चाहिये। इनके सदस्य चाहे किसी जाति धर्म के हों, जहाँ देखें, कूड़े के ढेरों में मुँह मारती गंदी संदी दुर्गति की मारी गोमातायें, सेवा शुरू कर दें। नहलायें, धुलायें, संवारें। घर घर जाकर पूछें भी....”भाई गोसेवक की जरूरत है क्या।“ देखकर लोग गदगद। आस्था प्रधान देश। अगली सरकार पक्की उनकी। अगर कोई मुस्लिम संगठन इस मुद्दे को लपक ले, जबर्दस्त सेवाअभियान चलाये तो देश में अभूतपूर्व क्रांतिकारी परिवर्तन। सौ खून माफ। बाजी उनके हाथ। मुस्लिम प्रधानमंत्री का सपना साकार।
 
मैं बिगड़ जाती....”सड़क पर खड़े खड़े सेमिनार करने की जरूरत नहीं। मुझे यह बताईये कि आप लोगों के घर के सामने ये गोमातायें क्यों नहीं बैठतीं।“ बताते लोग......हम बैठने ही नहीं देते।  जैसे ही बैठीं, हम पानी छिड़ककर कर भगा देते हैं।

मैं सहम गई। प्रेम से जुगाली करती बैठी गोमाताओं को पानी छिड़क कर भगाना,मैं ऐसा नहीं कर सकती। न मैं पानी छिड़क कर भगा सकती, न मैं इतनी भारी भरकम गंदगी साफ कर पा रही हूँ, तब?आखिरकार मुझे उपाय सूझा।  ये गोमाताये तो रात में आकर बैठती हैं। सो शाम ढलते ही मैं पानी का पाईप लेकर घर के सामने की पूरी दीवार के नीचे ढेर सारा पानी बिखेरने लगी। किसी किसी ने पूछा भी, ”यह घर के सामने कीचड़ क्यों फैला रही हैं।“ मैं चुप। अब दंखूंगी परिणाम।

रात भर ठीक से नींद नहीं आई.... तड़के बिस्तर से उठी। सहमते हुये सामने  गई। धीरे से दरवाजा खोला। दूर जगमगाता मंदिर। प्रणाम किया। मुँह निकालकर बाहर देखा। दायें बायें। कीचड़ का असर। कोई गोमाता नहीं। दिल बल्लियो उछल पड़ा। किं ंदूर से आती भारी भरकम हलचल। देखा, अरेबाप! वही नंदी। झट दरवाजा बंद किया। घर के भीतर दुबकी बैठी रही। आहत जानवर। तिस पर महाबली सांड़। कहीं दरवाजा न पेलने लगे। तोड़ न दे दरवाजा। संकट से हनुमान छुड़ावें...”कभी हनुमानजी को मनाऊं, कभी शंकरजी को.....भोलेबाबा, अपने नंदी को बुला लो...“

सड़क में आवाजाही शुरू। भगवान भास्कर आसमान में चढ़ गये। दिन का चमकदार उजाला। अब जाकर दरवाजा खोला। नंदी महाराज जा तो चुके थे। मगर दस गायों के बराबर गोबर गंदगी फैलाकर। जाने कौन सा जुलाब खाकर आये थे।

और नंदी महाराज का यही बदला। रात मैं पानी बिखेरकर सामने बुरी तरह गीला कर दूं। एकदम कीचड़। बिस्तर में जाने के पहले झाँकू, ”कहीं आ तो नहीं गया दुष्ट।“ नहीं दिखे। मगर जब तड़के डरते डरते जरा सा दरवाजा खोलकर झाँकूं तो सामने बैठे। चट मेरी तरफ देख दें। मेरी जान सूख जाये। दरवाजा लगा दुबकी बैठी रहूं। सूरज देवता सिर चढ़ जाये तब ये जायें। भरपूर गंदगी फैलाकर।
 
पड़ोसियों ने समझ लिया। बोले..यह दुष्ट ऐसे नहीं मानेगा। इसे डंडे डंडे.मारना पड़ेगा। अकेली औरत देख सता रहा है।सता तो रहा है। मगर मैं डंडे से नहीं मार सकती। हाँ, पानी डाल सकती हूँ। जरा सा पानी छिड़कने से यह जानेवाला नहीं। तब?

तब मैंने जी कड़ा किया। कई दिनों तक हिम्मत जुटाती रही। आखिर एक तड़के बाल्टीभर पानी लेकर सामने गई। भगवान का नाम लेकर दरवाजा खोलां कि सामने बैठे ने पूरी आँखों से मुझे देखा। प्राण कंठ में। आँख मीचकर पूरी ताकत से बाल्टीभर पानी उसपर उड़ेला  ओैर  दरवाजा  बंद। भागकर अंदर चली गई। एकदम अंदर। दुबकी बैठी रही।

नहीं दरवाजा पेलने की आवाज नहीं आई। उजाला फेल गया। सूरज चढ़ गया। आवाजाही की आवाजें। सहमते हुये दरवाजा खोला। डरते हुये झाँका। नहीं दिखा। पूरी गर्दन निकालकर झाँका। सामने निकलकर दूर दूर तक देखने लगी। कहीं नहीं। मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा। सामने बिखरा पानी अब तक सूखा नहीं था। धन्यवाद पानी। 

कि राहगीरों की बातचीत कानो में पड़ी। सबेरे सबेरे बेचारा गोल्लर कट गया। मेरा जी धक् । पूछने लगी....ये भैया, कौन गोल्लर कहाँ कट गया।बाईपास रोड में बहनजी। तड़के बाईपास पर भारी भरकम लदीफँदी ट्रकें गुजरती हैं। पूरी रफ्तार से। यह बीच सड़क में बैठ गया था। एक ट्रक ने किसी तरह बचाया। अगला रौंदकर निकल गया। बाद के भी रौंदते निकलते गये। लाश पहचान में नहीं आ रही । पर जरूर वही है जो सबेरे सबेरे आपके घर के सामने ठसके से बैठा रहता था। जाने क्या सूझी कि मरने चला गया।

जाने क्या सूझी, मैं समझती रहती हूँ क्या सूझी होगी, और घुलती रहती हूँ। मूक जीवों का प्रेम लोग समझते हैं। गदगद होते हैं। मगर मूक जीवों का प्रतिकार? वह भी गर्वीले गोल्लर का।

आज भी तड़के दरवाजा खोलती हूँ तो मुझे वह गर्वीला आहत नेत्रों से ताकता दिखता है।



- शुभदा मिश्र,
14, पटेलवार्ड, डोंगरगढ़

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