भारतीयता का समाजशास्त्र के आरम्भिक रूप की समीक्षा भारत का पुरोहित वर्ग, जो सामान्यतः रूढ़िवादी है और पश्चिमी संसार का वैज्ञानिक विचार, जो सामान्यतः प
भारतीयता का समाजशास्त्र के आरम्भिक रूप की समीक्षा
भारत का पुरोहित वर्ग, जो सामान्यतः रूढ़िवादी है और पश्चिमी संसार का वैज्ञानिक विचार, जो सामान्यतः प्रगतिशील है, इस तथ्य पर सहमत हैं कि भारतीय वाङ्मय का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है और वह ब्राह्मणों द्वारा रचित धर्मग्रन्थ है। वे इस बात पर भी सहमत हैं कि अपरिवर्तनशील वर्ण-व्यवस्था भारतीय समाज की एक बहुत बड़ी विशेषता है। इस सन्दर्भ में एक रोचक तथ्य दृष्टव्य है कि भारतीय रूढ़िवादी यह नहीं जानते कि उनकी चिन्तनधारा कितनी वैज्ञानिक है और इसी प्रकार पाश्चात्य वैज्ञानिक इस तथ्य के प्रति जागरूक नहीं हैं कि वे अनजाने में कितने रूढ़िवादी बन गये हैं। वेदों को कंठस्थ करने की परम्परा ने पाश्चात्य विद्वानों में यह भ्रम उत्पन्न कर दिया कि वेद मौखिक साहित्य हैं, लिखित नहीं। परन्तु परवर्ती शोध कार्यों द्वारा यह निधारित हो गया कि वे लिखित परम्परा के ग्रन्थ हैं, क्योंकि "मौखिक साहित्य में सामान्यतः उत्तम पुरुष सर्वनाम का प्रयोग नहीं होता है, जबकि ऋग्वेद में उत्तम पुरुष सर्वनाम के प्रयोग भरे पड़े हैं। "
डॉ. रामविलास शर्मा मार्क्सवादी दृष्टिकोण की पृष्ठभूमि में कहते हैं कि, "वैदिक काल में व्यक्तिगत सम्पत्ति का उद्भव हो चुका था। ऐसे समाज में कवियों द्वारा उत्तम पुरुष सर्वनाम का प्रयोग सर्वथा स्वाभाविक था। वे लोग नई और पुरानी पीढ़ियों के भेद को खूब समझते थे।" (पृ. 6, भूमिका, भारतीय साहित्य की पृष्ठभूमि) व्यक्तिगत सम्पत्ति के उद्भव का एक परिणाम यह हुआ कि विनिमय और लेन-देन का चलन हुआ तथा पुर और ग्राम के मध्य भेद उत्पन्न हुआ। यद्यपि अधिकांश विद्वानों को ऋग्वेद की इस पृष्ठभूमि से विशेष सरोकार नहीं है, तथापि विनिमय के प्रसार और नगर सभ्यता के विकास से वर्ण-व्यवस्था की स्थिति का गहरा सम्बन्ध है। वित्त के चलन से किसी भी व्यक्ति का अपना वंशागत पेशा छोड़ना सम्भव होता है। हड़प्पा काल में और उसके बाद भारत में विनिमय केन्द्रों का पूर्ण अभाव कभी नहीं रहा। वित्त के चलन से वर्ण-व्यवस्था का विघटन होता है। इसलिए भारतीय समाज की विशेषता वर्ण संकरता है, वर्ण-व्यवस्था नहीं।
वर्ण-व्यवस्था का विघटन कभी-कभी महाकाव्यों में बड़े विचित्र ढंग से दिखाया जाता है। राक्षस बड़े अत्याचारी हैं, पापात्मा हैं बताए जाते हैं, परन्तु वे वेद-पाठी दिखाए जाते हैं। हम सब जानते हैं कि राक्षसराज रावण की लंका में वेदपाठ होता था, यज्ञ होते थे आदि। वस्तुतः वर्ण-व्यवस्था में उसके विघटन की प्रक्रिया अन्तर्निहित है। इसी को लक्ष्य करके मनुस्मृतिकार ने वर्ण-व्यवस्था के जड़रूप को बनाए रखने का आग्रह किया है। यह भी एक रोचक प्रसंग है कि मनुस्मृति में वर्ण-व्यवस्था के विघटन के भी अनेक प्रमाण पाए जाते हैं। वासुदेवशरण अग्रवाल प्रभृति विद्वानों ने भी अपने अध्ययन के आधार पर वर्ण-व्यवस्था के लचीलेपन के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि साहित्य अथवा समाज के इतिहास के सम्यक् विवेचन में वर्ण-व्यवस्था की विघटनशीलता पर ध्यान देना परम आवश्यक है।
प्राचीन नामों की सूची देखने से यह अनुमान लगाना कोई कठिन बात नहीं है कि प्राचीन कौशल और ऋग्वेद के मध्य किसी न किसी प्रकार का सम्बन्ध होना चाहिए। ऋग्वेद और रामायण दोनों में राक्षसों का उल्लेख मिलता है और दोनों में वे यज्ञों में विघ्न डालते हैं। इस प्रसंग को स्पष्ट करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि, "रामायण के अध्ययन से पता चलता है कि वानर और राक्षस रंगरूप में, सामाजिक विकास की मंजिल में एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं। रामायण में जिन स्थानों का उल्लेख है, उनके अध्ययन से मालूम होता है कि राक्षस कहलाने वाले लोग बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में फैले हुए थे। लंका मध्य प्रदेश में थी और राम-रावण युद्ध वास्तव में कौशलों और मगधों का युद्ध था। महाभारत में मगध के शासक जरासंघ ने कृष्ण को मथुरा में खदेड़ा था। इससे उत्तर प्रदेश में मगधों के फैले होने की पुष्टि होती है।" (पृ. 6, 7, भूमिका, भारतीय साहित्य की भूमिका-डॉ. रामविलास शर्मा) साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में तमिल संस्कृति और उत्तर भारत की संस्कृति का गहरा सम्बन्ध रहा है। एक का अध्ययन करते समय दूसरे का विवेचन परम आवश्यक है। तमिल का ग्रन्थ तिरुक्कुरन में साम्प्रदायिक आग्रहों से युक्त है और विद्वानों के मतानुसार विश्व साहित्य में पहली बार शिल्पादि कारम और मणिमेश्वलर में भूस्वामियों के स्थान पर व्यापारी को महाकाव्य का नायक बनाया गया है।
साहित्य के इतिहास में जिसे हम मध्यकाल कहते हैं, वह वास्तव में व्यापारिक पूँजीवाद का अभ्युदय काल है। इस दृष्टि से विद्यापति के युग में मिथिला की आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियों का अध्ययन रोचक है। मिथिला उस समय शक्तिशाली सांस्कृतिक केन्द्र था और वह विशेष रूप से पूर्वी जनपदों की भाषाओं और उनके साहित्य को प्रभावित कर रहा था। सामाजिक-सांस्कृतिक विकास की सामान्य धारा में झारखण्ड के आदिवासी शामिल थे, यह तथ्य उल्लेखनीय है। (पृ. 9, भूमिका, भारतीय साहित्य की भूमिका, डॉ. रामविलास शर्मा)
19वीं शताब्दी के प्रथम चरण से भारत में नवजागरण का युग आरम्भ होता है। राजा राममोहन राय उसके अग्रज थे। इस नवजागरण में समाज-सुधार और साहित्य के नये आन्दोलन शामिल थे। राजा राममोहन राय नवजागरण के लिए अंग्रेजी राज्य के अस्तित्व को आवश्यक मानते थे। उनके चिन्तन की यह सीमा थी। परन्तु वह अंग्रेजों की लूटखसोट और उनकी न्याय व्यवस्था के खोखलेपन को खूब पहचानते थे। उनकी रचनाओं में इस सन्दर्भ में उल्लेख इसके प्रमाण हैं। नवजागरण के सुधारवादी आन्दोलनों का विवेचनात्मक अध्ययन यह सहज ही कर देता है कि भारतीय नवजागरण हिन्दू जागरण का पर्याय है।
19वीं शताब्दी के प्रथम चरण में नवजागरण के लिए अंग्रेजी राज आवश्यक था। उसी क्रम में 19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में आर्थिक-सांस्कृतिक विकास के लिए अमेरिकी पूँजीवाद की शरण में जाना आवश्यक एवं स्वाभाविक था। इसके फलस्वरूप भारतीय जीवन में इस संस्कृति का विकास हो रहा है। विकृत सांस्कृतिक स्वरूप की छाया हमें हिन्दी साहित्य में स्पष्टतः देखने को मिलती है। इसने हमारी वर्ण-व्यवस्था को ही क्यों, सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को विघटन के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है।
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