आधुनिक बंगला साहित्य की विविध विधाएँ

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आधुनिक बंगला साहित्य की विविध विधाएँ आधुनिक बंगला साहित्य एक समृद्ध और विविध साहित्यिक परंपरा है, जिसने न केवल बंगाल के सांस्कृतिक और सामाजिक परिदृश

आधुनिक बंगला साहित्य की विविध विधाएँ

 
धुनिक बंगला साहित्य एक समृद्ध और विविध साहित्यिक परंपरा है, जिसने न केवल बंगाल के सांस्कृतिक और सामाजिक परिदृश्य को प्रभावित किया है, बल्कि भारतीय साहित्य को भी गहराई से प्रेरित किया है। इस साहित्य की शुरुआत 19वीं शताब्दी में हुई, जब बंगाल में पुनर्जागरण का दौर चल रहा था। इस दौरान बंगाली समाज में नए विचारों, शिक्षा और सांस्कृतिक जागरण का उदय हुआ, जिसने साहित्य को नई दिशा दी। आधुनिक बंगला साहित्य में कई विधाएँ विकसित हुईं, जिनमें कविता, उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध, आलोचना और संस्मरण शामिल हैं।

आधुनिक बंगला साहित्य का सूत्रपात 19वीं सदी की 'तत्वबोधिनी' पत्रिका, जिसके सम्पादक अक्षयकुमार दत्त थे, से माना जाता है। 'समाचार दर्पण संवाद कौमुदी', 'समाचार चन्द्रिका', 'बंग-दूत', 'ज्ञानान्वेषण', 'संवाद प्रभाकर' इत्यादि पत्रों ने बंगला-साहित्य के विकास में अधिक योगदान दिया। किन्तु उस समय के लेखक अधिकतर पूर्वापर प्रचलित 'पयार-त्रिपादी' का ही अनुसरण कर रहे थे, अतः न हो सकी। ईश्वरचन्द विद्यासागर ने अक्षयकुमार के गद्य की जटिलता को लालित्य प्रदान किया। उनके अनुयायियों में 'संस्कृत कॉलेज गोष्ठी' के ताराशंकर तर्करत्न तथा राम गति न्यायरत्न मुख्य हैं। बंगला गद्य में क्रान्ति उत्पन्न करने वाली 'हिन्दू कॉलेज गोष्ठी' के रचनाकारों में महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर, राजनारायण बसु द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर, भूदेव मुखोपाध्याय तथा प्यारीचाँद मित्र मुख्य हैं। बंगला गद्य में योगदान देने वाली सरकारी संस्था वर्नाक्यूलर लिटरेचर सोसाइटी का नाम उल्लेखनीय है। 'बंग भाषानुवाद समाज' ने भी महत्वपूर्ण कार्य किये। इस समय साहित्यकारों में राजेन्द्रलाल मित्र, कालीप्रसन्न, सिंह तथा महताव चाँद स्मरणीय हैं।
 
बंगाल में प्रचलित नाटय-गीत अथवा यात्रा से बंगला नाटक की उत्पत्ति नहीं हुई। सर्वप्रथम विदेशी रंगमंच को यथेष्ट रूप से राष्ट्रीय अभिनय के उपयुक्त बनाया गया। फिर संस्कृत नाटक को अंग्रेजी नाटक के ढंग पर परिमार्जित किया गया, इस प्रकार बंगाली-नाटक की रचना हुई। इसीलिए जितना अधिक पाश्चात्य प्रभाव, काव्य तथा उपन्यास पर दिखायी पड़ता है उतना अधिक नाटक पर नहीं।
 
बंगला प्रहसन की उत्पत्ति नाटक के समान नहीं हुई। कलकत्ता अथवा गाँव के धनी व्यक्तियों की बुराइयों को व्यंग्य-चित्र में प्रस्तुत कर प्रहसन के रूप में रखने की प्रथा उन्नीसवीं शती के प्रारम्भ में थी। गद्य-पद्य में लिखित प्रहसनों के प्रारूप 'नकशो बाबू', 'नव बाबू विलास', 'नवबिवि विलास', 'कविराजा का माहात्म्य', 'कलि चरित' तथा 'आलालेर घरेर दुलाल' इत्यादि हैं।

आधुनिक बंगला साहित्य की विविध विधाएँ
इस काल के बंगला-साहित्य के कुछ मुख्य विषय ब्राह्मणों की पोल, अंग्रेजी शिक्षितों की अभिमानता, समाज-संस्कार- प्रचेष्टा, मिशनरियों की कीर्ति और ब्राह्म धर्म के नक्शे इत्यादि हैं।बंगला-काव्य में आधुनिकता का जन्म मुख्यतः तीन सूत्रों को धारण करके हुआ था। प्रथम सहज क्रिया तो पूर्ववर्त्ती साहित्य के भाव-परिवर्तन द्वारा हुई। इसके उदाहरण नीतिमूलक कविता, सामाजिक नीति अथवा सामयिक घटना विषयक छटा, अध्यात्म प्रणय-संगीत, ऋतु तथा प्राकृतिक दृश्य प्रधान कविता में मिलते हैं। इस क्रिया में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के अनेक शिष्यों के अतिरिक्त साहित्य में योग देने वाले साहित्यिकों में द्वारिकानाथ अधिकारी, आनन्दचंद्र वर्मा, रसिकचंद्र राय, बकिमचंद्र चट्टोपाध्याय तथा कृष्णकामिनी देवी उल्लेखनीय हैं। 

द्वितीय क्रिया में अंग्रेजी गद्य और पद्य, आख्यायिका एवं काव्य के अनुवाद तथा अनुसरण हुए। उस समय फारसी और हिन्दी कहानियों का अनुवाद बड़े आग्रह से पढ़ा जाता था। फारसी से कम परिचित होने के कारण अधिकतर अनुवाद अंग्रेजी से ही हुए। इस कोटि के ग्रन्थों में प्राचीनतम हैं-गिरीशचन्द्र बन्द्योपाध्याय तथा नीलमणि बसाक द्वारा अनूदित 'पारस्य इतिहास' (प्रथम खण्ड 1834 ई.)। बाद में नीलमणि ने 'नरनारी', 'पारस्य उपन्यास', 'भारतवर्ष का इतिहास', इत्यादि गद्य कृतियाँ दीं। महेशचन्द्र मित्र की 'लयला' मजनू' (1853 ई.), अज्ञातनामा की 'काजिर-विचार' (1854 ई); हरिमोहन कर्मकार की 'यूसुफ जुलेखा' (1262 बंगाब्द) तथा 'कथे मार जिलभ्यानेर मनोहर उपाख्यान' (1262 बगाब्द) तथा 'कथे मार जिलभ्यानेर मनोहर उपाख्यान' (1262 बंगाब्द) तथा द्वारका नाथ कुन्तूर की 'कुन्तूर का तुरकीय इतिहास' (1859 ई.) नामक कृतियाँ उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार अंग्रेजी की 'ग्रेट फेबल' का अनुवाद 'हित संग्रह' (1836 ई.) तथा मिल्टन के 'पैराडाइज लॉस्ट' का अनुवाद 'सुखद उद्यान भ्रष्ट' के नाम से हुआ। इसी का एक और अनुवाद, 1850 ई. के लगभग, 'स्वर्ग-भ्रष्ट काव्य' के नाम से प्राप्त होता है। महाभारत, रामायण के नवीन अनुवादों के साथ ही इस काल में कालिदास के मेघदूत (1861 ई.), ऋतु संहार (1855 ई.), कुमारसम्भव (1861 ई.) तथा शकुन्तला (1861 ई.) का अनुवाद हुआ।

बंगला काव्य में आधुनिकता प्रवर्तन का तृतीय एवं प्रमुख सूत्र है-अंग्रेजी आख्यायिका काव्य के आदर्श में अनुप्राणित होकर वीरत्वव्यंजक एवं स्वदेश-प्रेम-घटित रोमान्टिक कहानी और काव्य की रचना। इसका प्रारम्भ हमें रंगलाल के 'पद्मिनी उपाख्यान' (1858 ई.) काव्य से प्राप्त होता है। 

नाटक एवं काव्य के विकास के पश्चात् बंगला उपन्यास की उत्पत्ति हुई। जिस प्रकार से बंगला नाटक की उत्पत्ति त्रिधारा-संस्कृत नाटक, अंग्रेजी नाटक तथा बंगला यात्रा नक्शा-से हुई है। ठीक उसी प्रकार से बंगला उपन्यास के पूर्वाभास में भी तीन धाराएँ हैं। प्रथम तो प्राचीन ढंग की आदि रसात्मक कहानी, दूसरी संस्कृत तथा अंग्रेजी मूलक आख्यायिका और तीसरी बंगाली यात्रा अथवा नक्शा की। आधुनिक बंगला काव्य के समान बंगला उपन्यास भी अंग्रेजी शिक्षालब्ध नवीन रस-दृष्टि एवं स्वातन्त्र्य-बोध का फल है।

अंग्रेजीस के आदर्श पर भारत की ऐतिहासिक कथा का रूपायन पाकर बंगला उपन्यास का जन्म हुआ। भूदेव मुखोपाध्याय का 'अंगुरीय विनिमय' एवं बंकिमचन्द्र की 'दुर्गेशनन्दिनी' यथाक्रम में बंगला भाषा के प्रथम उपन्यास और बृहत् उपन्यास हैं। इनके पूर्व सम-सामयिक चित्रों को प्रस्तुत करने की एक प्राचीन पद्धति थी, अंग्रेजी उपन्यास के आदर्श से अलग बंगला उपन्यास की क्या परिणति हो सकती थी, इस विषय में प्यारीचाँद मित्र का 'आलालेर घरेर दुलाल' तथा गोपीमोहन घोष का 'विजय वल्लभ' एक नवीन दिशा प्रस्तुत करता है। संस्कृत-आख्यायिका के आधार पर लिखे गये 'विजय वल्लभ' उपन्यास के विषय में राजनारायण बसु ने 'बंगाल भाषाओं साहित्य विषयक वक्तृता' में लिखा है- “यूरोपीय लोगों का सब कार्य जिस प्रकार अद्भुत चमत्कारजनक हैं, भारतीय लोगों के प्रायः उस प्रकार के नहीं दिखायी पड़ते, फलस्वरूप इस देश में उपाख्यान का अवलम्बन करके बंगला भाषा में अंग्रेजी नायेल की रचना सु-कठिन है।" 

प्राचीन ढंग की गद्य अथवा गद्य-पद्य में लिखित कहानियों ढंग पर नवीन काली देवी का 'कामिनी कलंक' (1277 बंगाब्द) गद्य-पद्य में रचित इस श्रेणी का एक विशेष काव्य है। इसकी कथा में रचनाकार की आत्मकथा का यथेष्ट रंग प्राप्त होता है।

बंकिमचन्द्र ने अवतरित होकर बंगला भाषा में अंग्रेजी उपन्यास की रचना-क्षमता के अभाव की पूर्ति कर दी। उन्होंने अंग्रेजी उपन्यासों से घटना प्रवाह, द्रुत गति, रोमांटिक कल्पना आदि लेकर एतद्देशीय लोगों के उपाख्यानों में संचारित किया तथा बंगला-साहित्य-वृक्ष को पल्लवित एवं पुष्पित किया।उपन्यास आधुनिक बंगला साहित्य की एक प्रमुख विधा है। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय को बंगला उपन्यास का जनक माना जाता है। उनके उपन्यास 'आनंदमठ' और 'दुर्गेशनंदिनी' ने बंगला साहित्य में नई ऊर्जा भरी। रवींद्रनाथ टैगोर ने भी उपन्यास लेखन में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। उनके उपन्यास 'गोरा', 'घरे बाइरे' और 'चोखेर बाली' बंगाली समाज के जटिल मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पहलुओं को उजागर करते हैं। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यासों में सामाजिक कुरीतियों, नारी जीवन और मानवीय संवेदनाओं को गहराई से चित्रित किया। उनके उपन्यास 'देवदास', 'चरित्रहीन' और 'परिणीता' आज भी पाठकों के बीच लोकप्रिय हैं। आधुनिक बंगला उपन्यास में महाश्वेता देवी, सुनील गंगोपाध्याय और बुद्धदेव गुहा जैसे लेखकों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

कहानी लेखन भी आधुनिक बंगला साहित्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। रवींद्रनाथ टैगोर ने कहानी लेखन में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। उनकी कहानियाँ 'काबुलीवाला', 'पोस्टमास्टर' और 'स्त्रीर पत्र' आज भी पाठकों के बीच लोकप्रिय हैं। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय ने भी कहानी लेखन में अपनी छाप छोड़ी। उनकी कहानियाँ सामाजिक यथार्थ और मानवीय संवेदनाओं से भरी हुई हैं। आधुनिक बंगला कहानी में मनिक बंदोपाध्याय, ताराशंकर बंदोपाध्याय और प्रेमेंद्र मित्र जैसे लेखकों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

निबंध और आलोचना भी आधुनिक बंगला साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय और रवींद्रनाथ टैगोर ने निबंध लेखन में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। उनके निबंध सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विषयों पर केंद्रित हैं। आधुनिक बंगला आलोचना में शंख घोष, बुद्धदेव बसु और असित कुमार बंदोपाध्याय जैसे विद्वानों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

संस्मरण और आत्मकथा भी आधुनिक बंगला साहित्य की महत्वपूर्ण विधाएँ हैं। रवींद्रनाथ टैगोर की आत्मकथा 'जीवनस्मृति' और महाश्वेता देवी के संस्मरण बंगाली समाज और साहित्य के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हैं।

इस प्रकार, आधुनिक बंगला साहित्य ने विविध विधाओं के माध्यम से बंगाली समाज और संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया है। यह साहित्य न केवल बंगाल के लिए, बल्कि पूरे भारत के लिए गर्व का विषय है।

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