भारतीय साहित्य की विकास यात्रा भारतीय साहित्य वैदिक काल से आरंभ होता है। ऋग्वेद इस साहित्य का प्राचीनतम् सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। वैदिककालीन भारतीय साह
भारतीय साहित्य की विकास यात्रा
भारतीय साहित्य वैदिक काल से आरंभ होता है। ऋग्वेद इस साहित्य का प्राचीनतम् सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। वैदिककालीन भारतीय साहित्य में ऋग्वेद के अतिरिक्त अथर्ववेद, यजुर्वेद तथा सामवेद का विश्लेषण करने वाले विविध ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों का भी स्थान है। ये सभी ग्रन्थ जिस भाषा में रचे गये वह 'वैदिक संस्कृत' है, जिसे 'छान्दस' भी कहा जाता है। इसके पश्चात विविध पुराणों एवं रामायण, महाभारत की रचना हुई, अतः यह काल पुराण काल के नाम से अभिहित किया जाता है। वेदों तथा ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा एवं उपनिषदों की भाषा में ही नहीं एक सीमा तक विचारधारा में भी अन्तर है। उपनिषदों की भाषा को पौराणिक संस्कृत अथवा पाणिनीय संस्कृत का पूर्वरूप कहा जा सकता है। इसी कारण कुछ विद्वान वेदों से पुराणों तक के साहित्य को तीन काल खण्डों- वैदिककाल, उपनिषदकाल, तथा पुराणकाल में विभाजित करते हैं। इन तीनों कालों का साहित्य न केवल भारत के लिए वरन विश्व के लिए गौरवपूर्ण निधि है। इसकी तुलना विश्व की किसी भी प्राचीनतम भाषा के साहित्य से की जा सकती है।
इसके पश्चात् उस भारतीय साहित्य का युग प्रारम्भ होता है जिसमें पालि, प्राकृत आदि मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं के साहित्य का निर्माण हुआ । इस काल के साहित्य में बौद्ध एवं जैन दर्शन से सम्बन्धित साहित्य विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। अपभ्रंश इस काल की अन्तिम भाषा है। अपभ्रंशों में खास तौर पर शौरसैनी व महाराष्ट्री अपभ्रन्श में जिस साहित्य की रचना हुई, उसका मूल्य बहुत अधिक है। इसमें शौरसेनी अपभ्रन्श को अपेक्षाकृत अधिक व्यापक क्षेत्र में प्रसारित होने का अवसर प्राप्त हुआ। इस भाषा के साहित्य का प्रभाव समस्त उत्तर-पूर्व और पश्चिम से लेकर दक्षिण में महाराष्ट्र तक फैला हुआ था। वैसे तो चौदहवीं शताब्दी तक इन अपभ्रन्शों में साहित्य रचना होती रही, परन्तु अधिकांश भाषाशास्त्री इनका काल ईसा की दसवीं शताब्दी तक ही मानते हैं। यहाँ यह बात भी ध्यान में रखनी आवश्यक है कि इसके समानान्तर संस्कृत की धारा भी पूर्ववत् प्रवाहित होती रही। अनेक पुराणों एवं संस्कृत के अधिकांश प्रसिद्ध काव्यों की रचना इसी काल में हुई।
यही वह समय है जब आधुनिक भारतीय भाषाओं का काल प्रारम्भ होता है। उस काल को विभिन्न चरणों में विभाजित कर देखने में सुविधा होगी -
प्रारम्भिक काल
आधुनिक भारतीय भाषाओं का इस काल का साहित्य काव्यबद्ध है, जिसका आरम्भ प्रेम-कहानियों, धार्मिक गाथाओं अथवा वीरगाथाओं के रूप में होता है। यह वह काल है, जिसमें इस देश में द्रुतगति से धार्मिक और राजदीतिक परिवर्तन हो रहे थे पूरा देश छोटे-छोटे असंख्य राज्यों में विभाजित था। उत्तर व पश्चिम भारत पर मुस्लिम आक्रमण प्रारम्भ हो गये थे। इस स्थिति में सामाजिक जीवन की विद्रूपता स्वाभाविक थी। यह अस्थिरता भी धार्मिक साहित्य के उद्भव का एक प्रमुख कारण थी।
उत्तर भारतीय भाषाओं में हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ यद्यपि वीरगाथाओं की रचना से माना जाता है, तथापि इस भाषा के पूर्वरूप हिन्दी उन्मुख अपभ्रन्श में सातवीं शताब्दी से धार्मिक रचनाएं प्रारम्भ हो गयी थीं। ये रचनाएं बौद्ध और जैन सिद्धों की हैं, अतः इनपर इन धर्मों का प्रभाव स्वाभाविक है। दसवीं शताब्दी के पूर्व की रचनाओं में रामायण और महाभारत भी हैं। जैन सिद्धों ने इन ग्रन्थों की मूलकथा में अन्तर कर अपने ग्रन्थों की रचना की थी ।
'बौद्धगान ओ दोहा' को पंडित हरप्रसाद शास्त्री ने बंगला की प्रथम काव्यकृति सिद्ध करने का प्रयास किया है। यह भी बौद्धों की ही रचना है जिसमें चार पद ऐसे हैं, जिनकी भाषा प्राचीन उड़िया है। कुछ पद प्राचीन असमियां से मेल खाते हैं। यह देखकर माना जा सकता है कि हिन्दी की तरह बंगला, उड़िया और असमी साहित्य का आरम्भ भी धार्मिक साहित्य से हुआ है।
गुजराती साहित्य का आरम्भ रासो-ग्रन्थों से होता है, जिनपर जैन प्रभाव स्पष्ट है। पंजाबी साहित्य का आरम्भ नाथपंथी ग्रन्थों की रचना से ही होता है। कश्मीरी भाषा का प्रथम ग्रन्थ 'महातम - प्रकाश' एक तान्त्रिक रचना है। मराठी साहित्य का आरम्भ स्वामी मुकुन्दराव के 'विवेक-सिन्धु' से होता है जो बारहवीं शताब्दी की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण धार्मिक कृति है। उर्दू भाषा का साहित्य चौदहवीं शताब्दी में गेसूदराज की रचना से प्रारम्भ होता है।
दक्षिण भारतीय भाषाओं में से तमिल में उत्तर भारत की आधुनिक भाषाओं से बहुत पहले धार्मिक साहित्य की रचना प्रारम्भ हो गयी थी। इनमें भारतीय भक्ति से सम्बन्धित ग्रन्थों के अतिरिक्त कुछ बौद्ध रचनाएं भी हैं। कन्नड़ भाषा का साहित्यिक विकास जैन विचारधारा को लेकर आरम्भ हुआ। इसके प्रायः सभी आरम्भिक कवि जैन थे। तेलुगु का साहित्य नन्नय्य के 'महाभारत' से ग्यारहवीं शताब्दी में प्रारम्भ होता है। इसके पूर्व की भी कुछ जैन और बौद्ध धर्म से सम्बन्धित रचनाएं उपलब्ध हैं; परन्तु उन्हें विशुद्ध तेलुगु की रचनाएं नहीं कहा जा सकता। मलयालम का साहित्य तेरहवीं शताब्दी के मध्यकाल में रचित 'उन्नीशादि चरितम' से आरम्भ होता है। यह एक चरित्र ग्रन्थ है । सारांशतः हिन्दी, बंगला, असमी, उड़िया, मराठी, पंजाबी, तमिल, कन्नड़ और तेलुगु भाषा का साहित्यिक विकास धार्मिक साहित्य से, कश्मीरी का तांत्रिक रचना से, उर्दू का सूफी प्रेमकाव्य से और मलयालम का विकास चरित्र - साहित्य से आरम्भ होता है। “चौदहवीं शताब्दी तक सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं को साहित्य-सृजन की क्षमता प्राप्त हो गयी थी और इसके पश्चात् वे अपने साहित्यिक रूप में द्रुतगति से विकसित होती गयीं।""
भक्ति काल
तेरहवीं से सोलहवीं शताब्दी तक समस्त भारतीय साहित्य में भक्तितत्त्व की प्रधानता रही। अतः यह लगभग चार शताब्दियों का काल भारतीय साहित्य का भक्तिकाल कहा जा सकता है। मुसलमान आक्रमणों के परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म में कट्टरता और कर्मकाण्डों का प्राधान्य हो गया था। इस्लाम की कट्टरता भी मुसलमानों के एक वर्ग को उतनी नहीं सुहाती थी। “सौभाग्य से उसी समय कुछ भारतीय भाषा क्षेत्र में ऐसे सन्तों का आविर्भाव हुआ, जो मुसलमानों में धर्म के नाम पर प्रचलित कर्मकाण्डों की निस्सारता बतलाकर इन दोनों सम्प्रदायों में एकता स्थापित करने के आकांक्षी थे। हिन्दी के सन्त कवि कबीर और मराठी के कवि नामदेव ऐसे कवियों में प्रमुख थे। इस श्रेणी के कवियों द्वारा भारतीय साहित्य में निर्गुण भक्ति धारा का जन्म हुआ ।
इसी काल में मलिक मुहम्मद जायसी जैसे सूफी कवियों ने प्रेम-भक्ति-काव्य का गान कर एक ओर इस्लाम धर्म की कट्टरता दूर की, दूसरी ओर हिन्दू और मुसलमान को निकट लाने का स्तुत्य कार्य किया । तदनन्तर 'सगुण भक्ति धारा' का आविर्भाव हुआ, जो भारतीय साहित्य में राम भक्ति काव्य और कृष्ण भक्ति काव्य के रूप में विकसित हुई। इस मध्ययुगीन भारतीय साहित्य में हमें इन्हीं चारों धाराओं से समन्वित काव्य मिलता है।
मध्यकालीन हिन्दी साहित्य की निर्गुण काव्यधारा के उन्नायक सन्त कबीर, सूफी-प्रेमभक्ति धारा-काव्य के उन्नायक मलिक मुहम्मद जायसी, रामभक्ति काव्यधारा के प्रवर्त्तक तुलसीदास तथा कृष्णभक्ति काव्यधारा के प्रवर्त्तक सूरदास हैं। बंगला में 'धर्म मंगल' और 'मनसा मंगल' जैसी काव्य-रचनाएं पहले से ही हो रही थीं। परन्तु इसमें वैष्णव काव्य का आरम्भ जयदेव के 'गीतगोविन्द' के प्रभाव से हुआ, जिसका विकास हमें सर्वप्रथम चण्डीदास तथा उनके पश्चात के कवियों की रचनाओं में मिलता है। उड़िया भाषा के भक्ति साहित्य का विकास दीनकृष्ण के काव्य से होता है, जो इसी समय के हैं। इसी काल में असमी में शंकरदेव द्वारा वैष्णव काव्यधारा का स्रोत प्रवाहित होता है। मराठी में इसी काल में मुकुन्दराज, ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम आदि सन्त कवियों द्वारा भक्ति काव्य की रचना हुई। मराठी का 'महानुभावी साहित्य' भी इसी काल के भक्ति साहित्य के अन्तर्गत है । गुजराती में इस काल के भक्ति-काव्य के प्रणेता नरसी मेहता तथा राजस्थानी के इस काल के भक्ति साहित्य की प्रतिनिधि कवयित्री मीरा हैं। कश्मीरी भाषा का साहित्यिक विकास शैव-भक्ति साहित्य की तांत्रिक रचना 'महान्याय प्रकाश' से ही आरम्भ होता है। पंजाबी भाषा में भी इस काल में गुरु नानक से आरम्भ होने वाले भक्ति-काव्य का ही प्राधान्य रहा। तमिल भाषा में पहले से ही शैव और वैष्णव सन्तों द्वारा भक्ति-काव्य की रचना हो रही थी, जो इसकाल में भी अनवरत जारी रही। कन्नड़ भाषा में इस काल में भक्ति-काव्य-धारा प्रवाहित करने वाले वीर शैव सन्त जैन कवि रत्नाकर तथा वैष्णवीदास हैं। तेलुगु के इस काल के भक्ति साहित्य का आरम्भ त्यागराज के गीतों से तथा मलयालम का मध्ययुगीन साहित्य रामचरित की रचना से आरम्भ हुआ। इस प्रकार मध्य युग के लगभग चार सौ वर्ष तक सभी भारतीय भाषाओं में भक्ति काव्य रचे जाते रहे।
इस काल में देश की प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं में रामायण, महाभारत और भागवत अनुवाद हुए। इन तीन ग्रन्थों ने समस्त भाषा-भाषियों को आकर्षित किया। तमिल और कन्नड़ में बहुत पहले ही रामायण और महाभारत का अनुवाद हो चुका था। कुछ विद्वानों का तो यहाँ तक मानना है कि तुलसीदास के 'श्रीरामचरितमानस' की रचना तमिल की कम्ब रामायण से प्राप्त प्रेरणा का परिणाम है। तेलुगू कवि टिक्कन्न ने महाभारत का और भास्कर ने रामायण का काव्यानुवाद किया। मलयालम में तुञ्जच रामानुजाचार्य द्वारा अनूदित रामायण, महाभारत और भागवत प्रसिद्ध है। मलयालम कवि चेरूशेरी की 'कृष्ण गाथा' भी भागवत के दशम स्कन्ध पर ही आधारित है। पम्परत्न और पौल ने रामायण और महाभारत का अनुवाद कन्नड़ में किया है। बंगला में क्रीतिदास ने रामायण व रामदास ने महाभारत का अनुवाद किया है। उड़िया में भी बलराम दास की रामायण तथा जगन्नाथदास का महाभारत प्राप्त है। असमी में शंकरदेव ने रामायण तथा भागवत का काव्यानुवाद किया है। मराठी में सर्वप्रथम 'ज्ञानेश्वरी' के रूप में ‘भगवद्गीता' का अनुवाद हुआ। संत एकनाथ का भागवत मराठी में प्रसिद्ध है।
वीरकाव्यों की रचना भी इसकाल की अधिकांश भाषाओं के साहित्य में प्राप्त होती है। हिन्दी में भूषण द्वारा रचित शिवाबावनी, शिवराजभूषण और छत्रसाल दशक है तो मराठी के 'पोवाड़े', गुजराती के 'कन्हड़देह प्रबन्ध', उड़िया में बडजैन का 'समर तरंग' कन्नड़ में चिक्कनदेव का ‘राजवंशावली', तेलुगू में 'मलनाती वीरचरितम्, तथा मलयालम में 'मामगोथारतन्' इसके उदाहरण हैं।
इस युग में सन्तों के चरित्र का लेखन भी अधिकांश भाषाओं में हुआ। इस दृष्टि से हिन्दी में नाभादास का ‘भक्तमाल', बंगला में चैतन्य महाप्रभु के ढेर सारे चरित्र, गुजराती में नरसी मेहता के चरित्र, मराठी में गुरुचरित्र, तेलुगु में कृष्णदेव राय द्वारा लिखित 'विष्णुचित्रीयम्' कन्नड़ में वीरशैव सन्तों के चरित्र आदि उल्लेखनीय हैं।
आधुनिक काल
भारतीय साहित्य का आधुनिक काल सन् 1850 ई० से आरम्भ होता है। यह वह काल है, जिसमें पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति के प्रभाव ने भारतीय साहित्यकारों की दृष्टि और दिशा में आमूल परिवर्तन कर दिया। इस समय भारत की तरुण पीढ़ी पश्चिम के प्रभाव से अपनी रक्षा न कर सकी और उसने पाश्चात्य साहित्य को वरदान समझ उसके अनुकरण से परहेज नहीं रखा। अंग्रेजी शिक्षा का प्रचलन बढ़ने लगा। वह कई दृष्टियों से बहुत उपयोगी भी सिद्ध हो रही थी। इसके माध्यम से अंग्रेज व्यापारियों से विचार-विनिमय में सुविधा होती थी। अंग्रेज़ी जानने वालों के लिए विदेशी फर्मों और कम्पनी के प्रशासन में नौकरी पाना भी सरल था। सन् 1801 में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना एक उल्लेखनीय घटना है। “फोर्ट विलियम कालेज के अध्यापकों से देशभाषा में पाठ्य-पुस्तकें, कोश और व्याकरण तैयार करने का काम भी लिया गया। इस कालेज की मुख्य देन यह है कि इसके द्वारा भारतीय भाषाओं में गद्य लेखन को प्रोत्साहन मिला।""
हिन्दी के गद्य-निर्माण में इंशाअल्ला खां, राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, लल्लूलाल, सदल मिश्र आदि ने; उर्दू गद्य के निर्माण में दिल्ली कॉलेज के कर्णधार सैयद अहमद काजी, नजीर अहमद सबा आदि ने तथा बंगला गद्य के निर्माण में राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र गुप्त, महर्षि देवेन्द्रनाथ, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
इसी प्रकार असमी में अमेरिकी पादरियों के अलावा पुरुवन और हेमचन्द्र बरुआ ने, उड़िया में फकीर मोहन सेनापति, राधानाथ राय तथा मधुसूदन राय ने, गुजराती में नर्मद, दलपतराय आदि ने, पंजाबी में मोहन सिंह, वीर सिंह, काहन सिंह आदि ने, कश्मीरी में परमानन्द, महमूदगामी, ईश्वर कौल आदि ने और मराठी में तिलक, आगरकर, चिपलूणकर आदि ने आधुनिक काल के साहित्य की स्थापना में अपना बहुमूल्य योगदान दिया।
दक्षिण भारतीय भाषाओं में से तमिल में स्वामीनाथ अय्यर और भारती ने, कन्नड़ पुदृण्ण, कारन्त, मास्ति ने तथा मलयालम में केरल वर्मा व राजवर्मा ने अपनी-अपनी भाषाओं के आधुनिककालीन विकास का नेतृत्व किया। इस प्रकार भारत की समस्त आधुनिक भाषाओं में पाश्चात्य साहित्य के प्रकाश में विविध प्रकार के गद्य एवं काव्य साहित्य का विकास प्रारम्भ हुआ। सभी भाषाओं में पाश्चात्य साहित्यकारों की प्रमुख कृतियों एवं ज्ञान-विज्ञान विषयक विध ग्रन्थों का अनुवाद किया गया और इन ग्रन्थों के आधार पर नवीन ग्रन्थों की भी रचना की गयी। पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ और उनके द्वारा नये-नये साहित्यकार प्रकाश में आने लगे। प्रत्येक भारतीय भाषा के क्षेत्र में शिक्षा-संस्थाएं तथा साहित्यिक संस्थाएं स्थापित हुईं, जिनसे आधुनिक भारतीय साहित्य के उत्तरोत्तर विकास में महत्त्वपूर्ण सहायता मिली। इन बातों से यह स्पष्ट है कि प्रारम्भिककाल और मध्यकाल की तरह आधुनिककाल में भी समस्त भारतीय भाषाओं में एक समय पर एक ही प्रवाह प्रवाहित हो रहा था और इन भाषाओं का साहित्यिक विकास समान भावधारा में ही होता रहा। यही भारतीय भाषाओं की विविधता के साथ उनकी एकता का रहस्य है।
इस प्रकार भारतीय साहित्य की यह विकास यात्रा न केवल भारत की सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत को दर्शाती है, बल्कि यह मानवीय अनुभवों और विचारों की एक सार्वभौमिक अभिव्यक्ति भी है।
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