आदरणीयों से अटा पड़ा शहर | व्यंग्य लेख

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आदरणीयों से अटा पड़ा शहर शहर में कई प्रकार के आदरणीय पाए जाते हैं। एक प्रकार के आदरणीय होते हैं, जो "एक्सीडेंटल" आदरणीय कहलाते हैं। ये वो होते हैं

आदरणीयों से अटा पड़ा शहर

  
हर में कई प्रकार के आदरणीय पाए जाते हैं। एक प्रकार के आदरणीय होते हैं, जो "एक्सीडेंटल" आदरणीय कहलाते हैं। ये वो होते हैं जो खुद आदरणीय बनने का कोई ख्वाब भी नहीं देखते, मगर जनता ने न जाने क्या देखा या शायद कोई पूर्व जन्म का राजयोग रहा कि ये आदरणीय बन गए। शहर के कई ऐसे  लाड़ले आदरणीय होते हैं, जिन्हें लोग आँखों पर बैठाकर रखते हैं। इन्हें भी लोगों की आँखों पर बैठना अच्छा लगने लगा है... आजकल कुर्सी पर कम बैठते हैं, दिन-रात बस लोगों की आँखों पर बैठने के लिए लालायित रहते हैं। कोई भी उद्घाटन समारोह (पान के ठेले से लेकर शोरूम तक), उठावना, तीये की बैठक, मुंडन संस्कार या कोई भी कार्यक्रम ऐसा नहीं होता जहाँ ये आदरणीय न पहुँचें। शहर को बस मिल गए हैं  रेडीमेड आदरणीय, जो एक फोन कॉल पर हाज़िर हो जाते हैं । उद्घाटन के लिए हमेशा कैंची, माला और कार में साफा लिए तैयार रहते हैं। आदरणीय होने के सामान की आपूर्ति भी खुद ही कर देते हैं। समर्पण और श्रद्धा हो आपकी, आप तो बस मन बनाइए...धन की व्यवस्था भी आदरणीय खुद कर देंगे। इनका कहना है कि यह धन-दौलत सब हाथ का मैल है, साथ जाएगा तो सिर्फ मंच, माला और माइक।

फिर आते हैं 'जुगाड़ू' आदरणीय। ये जुगाड़, समीकरण और हर प्रकार के संसाधनों का प्रयोग कर, साम-दाम-दंड-भेद से आदरणीय बनते हैं। इनके साथ कुछ जामवंत टाइप के लोग होते हैं, जो दिन-रात इन्हें इनकी शक्तियों की याद दिलाते रहते हैं। ये आदरणीय के जामवंत सरीखे लोग हमेशा एक सूची लेकर चलते हैं, जिसमें उन निकृष्ट लोगों का नाम होता है जो उनके हनुमान सरीखे आदरणीय को आदरणीय नहीं मानते। इनका काम है उन लोगों को मजा चखाना। येन केन प्रकारेण उन्हें उनके चरणों में लाकर उनके अंदर श्रद्धाभाव जागृत करवाना।

अब शहर है तो समस्याएं भी होंगी। अब अगर शहर ने ही इन्हें आदरणीय बनाया है, तो शिकायत कैसी? एक आदरणीय का होना ही पर्याप्त नहीं होता, उन्हें आदरणीय का चोगा दिन-रात पहने रहना पड़ता है। अब आदरणीय बने रहें या काम करें... बताओ। आदमी भला दो काम एक साथ कैसे कर सकता है? और काम का क्या? काम तो चलता रहेगा। काम को निष्काम भाव से देखो, तो कोई काम काम जैसा लगेगा ही नहीं।आदरणीय , आदरणीय बने रहने के लिए शहर की समस्याओं का अनूठा हल प्रदान करते हैं। ऐसा हल, कि समस्याएं भी जनता के साथ ताली बजाने को मजबूर हो जाएं। समस्याएं इठलाती हैं, इतराती हैं, किसी कमसिन किशोरी की तरह शरमाती हैं, जैसे उनका माशूक कितना मोहब्बत करता है, कितना सोचता है उनके बारे में। मसलन, अभी गड्ढों की समस्या है, तो इन आदरणीय का हल है कि शहर के सारे कचरे को इन गड्ढों में डंप कर दिया जाए और यहाँ गोबर गैस प्लांट लगा दिए जाएं। कचरे का निस्तारण, गड्ढों की फिलिंग और साथ में ही शहर को इंधन आपूर्ति — वाह, मान गए आदरणीय को। एक तीर से तीन निशान। ऐसा जहीन सुना है आपने?

आदरणीयों से अटा पड़ा शहर
शहर में कुछ और किस्म के आदरणीय भी होते हैं, जिन्हें हम 'भावी आदरणीय' कह सकते हैं। ये दावा करते हैं कि अगली बार वही आदरणीय बनेंगे, और अपने नाम के आगे 'भावी' लिखवा कर घूमते रहते हैं। इन्हें बस आदरणीय होना है, कोई विशेष पद या जिम्मेदारी नहीं चाहिए, बस कुर्सी मिलनी चाहिए। वह कुर्सी चाहे किसी संस्था में मिल जाए, किसी कार्यक्रम में मिल जाए। और नहीं तो राह चलते दो आदमियों को पकड़ कर उन्हें सच्चे आदरणीय के लक्षण बताने लगते हैं। वर्तमान आदरणीय के कच्चे चिट्ठे खोलने लगते हैं। ये जिस पार्टी में हैं, उसमें सिर्फ अकेले यही आदरणीय हैं, ऐसा इनका मानना है, इसलिए पार्टी के अंदर-बाहर होते रहने को क्रांतिकारी कदम मानते हैं। हाथ में माइक और दो माला गले में डालकर, ये रोज अपने भावी आदरणीय होने की घोषणा करते हैं।

आप इन्हें किसी भी कार्यक्रम में एक विशेष मुद्रा में देख सकते हैं। ये अपने पास बैठे किसी भी अतिविशिष्ट अतिथि के कान के पास अपने मुँह को ले जाकर थोड़ी देर रखते हैं। इन्होंने फोटोग्राफर को पहले ही निर्देश दे दिया होता है कि इस मुद्रा का फोटो ले लिया जाए, ताकि अखबार में फोटो के साथ इनकी "चिंतामग्न" तस्वीर छप सके। अब चाहे ये अतिथि से उनकी चाय के बारे में ही पूछ रहे हों कि ‘चाय मीठी लेंगे या फीकी?’ तस्वीर में यही लगेगा कि ये शहर की चिंताओं पर गंभीर विचार-विमर्श कर रहे हैं।

शहर में कुछ पुराने 'भूतकालीन' आदरणीय भी होते हैं। ये अब किसी ज़माने में अपनी आदरणीयता के परचम लहराती बुलंद इमारतें, जो अब वीरान हो चुकी हैं, उन्हीं में मकड़ी के जालों के बीच में उलटे लटके रहते हैं। क्या करें, इनकी इमारतों तक आने वाले रास्ते नए आदरणीयों ने खोद-खोद कर पथरीले कर दिए हैं। शहर के लोग भटक गए, वैसे भी इनके रास्ते तक आने के लिए शहर के लोगों को भारी टोल टैक्स अदा करना पड़ता था। सारे टोल टैक्स इन्होंने अपने शागिर्दों को ही आवंटित किए थे। आदरणीय उलटे लटके हुए ही नीचे बिछी सेंटर टेबल को देख रहे हैं। उस पर पड़ी मिठाइयाँ बासी हो चुकी हैं। कुछ दो-चार शहर की ऐसी मक्खियाँ, जो बासी मिठाई से भी गुरेज़ नहीं करतीं, या जिन्हें नए आदरणीय की ताज़ा मिठाई नसीब नहीं है, वे अभी भी वहीं भिनभिनाती रहती हैं। कभी-कभी कोई भूला-भटका या अगुआ किया हुआ आगंतुक उन्हें देख जाता है, जो शायद उन्हें फिर से आदरणीय होने का मौका मिलने की उम्मीद दिला देता है।

शहर की जनता अब 'कोऊ नृप होय हमें का हानि' के भाव से बस निठल्ली, लुटी-पिटी सी सब राम और श्याम के भरोसे छोड़ चुकी है। नया आगंतुक आया है, आदरणीय की सेवा में लगे दो कारिंदे उसे जबरदस्ती धकेल कर आदरणीय के दरबार में प्रस्तुत कर देते हैं। बासी मिठाइयों में से एक पीस उठाकर जबरदस्ती आगंतुक के मुँह में ठूँस दिया गया है। आगंतुक ने मुखमुद्रा को स्वामीभक्ति का प्रमाण देते हुए प्रसन्नचित्त ही बनाए रखा है। लेकिन साथ ही आदरणीय की फटेहाल सूरत पर कुछ चिंतित मुद्रा के भाव लाकर कह दिया है, "देख लिया हमने सब, पाँच साल में क्या हाल हो गया है जनता का। जनता आप जैसे आदरणीय के बिना तड़प रही है। जनता उम्मीद लगाए बैठी है कि आपको फिर से आदरणीय के रूप में देख सके।"

आदरणीय गंभीर मुद्रा में सिर हिलाते हैं और कहते हैं, "हाँ, बात की है दिल्ली से। बस आप सब दुआ कीजिए, बाबा श्याम की कृपा रही तो इस बार भी टिकट हमें ही मिलना चाहिए।"

उन्हें पता है कि आदरणीय बनने का रास्ता दिल्ली से होकर आता है। दिल्ली के सूत्रों ने उन्हें आश्वासन दे रखा है कि चिंता की कोई बात नहीं है, वे फिर से आदरणीय बन सकते हैं। कुछ हैं, जो इस बीच उनके आदरणीय बनने के रास्ते में चूहों की तरह बिल बनाकर रास्ता खोदने में लगे हैं, लेकिन उन्होंने पिंजरे बनवा लिए हैं। आदरणीय इस आश्वासन पर पूरा भरोसा किए बैठे हैं। बिना बुलाए ही वे शहर के हर सुख-दुख के मसले में पहुँच जाते हैं, गले में माला डालकर और सिर पर साफा पहनकर, आदरणीय बने रहने की पूरी कोशिश करते हैं। जनता को दिखाना होता है कि वे आज भी उतने ही ज़िम्मेदार और जनता के हितैषी हैं, जैसे पहले हुआ करते थे। जैसे शेर कभी शिकार करना नहीं भूलता, वैसे ही नेता कभी आदरणीय बन जाना नहीं भूलता!

शहर का ये सिलसिला राम और श्याम के भरोसे चल ही रहा है। आदरणीयों की नई-पुरानी खेपें आती-जाती रहेंगी। शहर में समस्याएं बनी रहेंगी। समस्याएं ही मुद्दों को जन्म देती हैं। मुद्दों की खाद से आदरणीय की फसल लहलहाती है। समस्याओं से तो जनता समझौता कर ही लेगी, बस शहर के आदरणीय फलते-फूलते रहें। आखिरकार, जनता के लिए उनके सर पर इन आदरणीयों का वरदहस्त होना ही काफी है, बाकी सब बातें बेमानी हैं।



- डॉ मुकेश असीमित 
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आदरणीयों से अटा पड़ा शहर | व्यंग्य लेख
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