संक्रमण काल की राष्ट्रीय ओज की रचनाएं

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संक्रमण काल की राष्ट्रीय ओज की रचनाएं मनुष्य को पूजनीय बनाने वाले तत्व सत्य,सहिष्णुता एवं मानव जीवन को सरल और उद्यमशील बनाने तत्व होते हैं । जो समाज

संक्रमण काल की राष्ट्रीय ओज की रचनाएं


नुष्य को पूजनीय बनाने वाले  तत्व सत्य,सहिष्णुता एवं मानव जीवन को सरल और उद्यमशील बनाने तत्व होते हैं । जो समाज पर -पीड़ा व स्वार्थ -परता में लिप्त हो जाता है, उसका पतन निश्चित है । पतन उस  समाज का भी निश्चित है जिसमें रूढ़िवाद और पाखंड व्याप्त हो या पनपता हो । नवीं सती से भारत के राजाओं की आपसी कलह , प्रतिद्वंदिता के कारण भारत राष्ट्र कमजोर होता गया । विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण प्रारंभ हुए। छत्रसाल ,शिवाजी सूरजमल और भूषण जैसे कवि इस अलख को जगाने में लगे रहे। संत मनुष्य और मनीषियों ने  इसी अलख को जगाए रखा । भारतेंदु हरिश्चंद्र को  पुनर्जागरण के प्रणेता माना गया है, उन का उद्घोष निज भाषा उन्नत है सब उन्नति को मूल।

संक्रमण काल की राष्ट्रीय ओज की रचनाएं
आधुनिक काल में 1900 के आसपास कवियों पर विचार करना समीचीन हो जाता है तीनों ही काव्य नवीन चेतन नवीन जागृति लाने को लिखे गए जीवन को सुख और समृद्धि से और कर्म सील बानो यह इनका मूल मंत्र है। जिन की  मीमांसा की जा रही है ,वे  प्रियप्रवास, कामायनी और साकेत हैं।

स्वाध्याय पर आधारित है ,फिर भी प्रमुख रूप से सामग्री विनोद पुस्तक मंदिर आगरा द्वारा प्रकाशित पुस्तक प्रिय प्रवास में काव्य संस्कृति और दर्शन डॉक्टर द्वारका प्रसाद सक्सेना, खुर्जा, 1960 की सहायता ली है।

सुदूर दक्षिण में चेर ,चोल और पांड्या राजा अपनी स्थिति सुधार करने में और व्यापार में उन्नति करने में स्थापित कला और संसाधन जुटाना में लगे हुए थे लेकिन उत्तर भारत में आपसी द्वंद्व में फंसे रहे  और आपसी द्वेष इस कदर बढ़ गया कि एक दूसरे की जान के दुश्मन बन गए। परिणाम  मुगल जो मात्र कबीले थे ,लुटेरे थे वे हमारे राजा बन गए। हमारी इस कमजोरी को विदेशी व्यापारिक कंपनियों ने भी भांपा  और शोषण किया, ईस्ट इंडिया कंपनी का क्लर्क भी हमारे लिए लॉर्ड बना रहा , 1947 में इस परतंत्रता से छुटकारा ले -देकर मिला। संदेश यह भी है कि आधुनिक काल में हम इन सब कुरीतियों ,आडंबर और पाखंड  से दूर रहें और सत्कर्म करते हुए अपने मार्ग पर आगे बढ़ें ,यह सावधान और सचेत भी किया गया है ।

खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य होने का प्रिय प्रवास को गौरव प्राप्त है। श्री कृष्ण एक सखावत  ही इसमें दृष्टिगोचर होते हैं और वह सच्चे अर्थों में एक महापुरुष हैं। मानव को कर्म के मार्ग पर प्रशस्त करते हैं। कोई ऐसा चमत्कार है नहीं जो बिना कर्म किए दुखों से मुक्ति दे या जीवन में उन्नति के द्वार खोल देवे । प्रियप्रवास का मानवता के लिए संदेश यही है कि वह कर्मशील बने अपनी उन्नति के द्वार खोलें।  झूठे मकड़ जाल और व्यवहार जनित कुरीतियों और  दोषों से मुक्ति पाकर लोकहित  के  कामों में लिप्त हो जाए । मुख्य रूप से देववाणी कृष्ण और प्रिय प्रवास के संदेश में साम्य  है ।

क्रम सं  विवरण  प्रिय प्रवास    कामायनी      साकेत 
1   रचना काल ,1909-1913 1936         1931
2   लेखक     हरिऔध    जयशंकर प्रसाद मैथिलीशरण गुप्त
3    समय काल  ,   द्वापर   आदियुग त्रेता
4    नायक   कृष्ण  सृष्टि का उदय उर्मिला
5   सृजन स्रोत   ब्रज प्रदेश, पहाड़ -उपत्यका अयोध्या

तीनों काव्य में नारी जीवन की  उज्जवल झांकी प्रस्तुत की गई है। प्रकृति के प्रांगण में ही तीनों लिखे गए हैं ।कामायनी में गहनता ,मार्मिकता अधिक है। इन तीनों में ही कवि की दृष्टि लोकहित और परमार्थ की है। तुलनात्मक रूप से हम यह पाते हैं कि उर्मिला के 14 वर्ष के कठोर विरह व मिलन को साकेत में  दर्शाया है और यह बात भी रेखांकित की है कि त्याग में वैराग्य नहीं है बल्कि साकेत में अनुराग छिपा है। कामायनी में नायक स्पष्ट नहीं है । प्रिय प्रवास और साकेत में नायक सुस्पष्ट है।

सबसे प्रमुख बात है कि तीनों के प्रारंभ में  वंदना की तुलनात्मक व्याख्या सम्यक रूप से करें तब हम यह पाते हैं किप्रकृति का चित्रण यद्यपि तीनों में समान रूप और समान भाव से हुआ है ,वंदना की गई है  कामायनी में प्रलय के बाद मनु को एक निर्जन पहाड़ के शिखर पर चित्रित किया गया है और आसपास की उपत्यकाएं भी है। लेकिन सबसे मनोहारी वर्णन प्रियप्रवास में हुआ है जिसमें शाम की मनोहारी छटा सूर्यास्त की गोधूलि बेला की है ,बालकृष्ण गाय चराते हुए घर लौट रहे हैं ,धूल में उनके पैर सने हुए हैं और शाम की लालिमा प्रकृति के सौंदर्य में वृद्धि कर रही है ।प्रकृति की वंदना इसमें सर्वोपरि है। कालिदास के बाद इस तरह की भाव व्यंजना शायद अन्यत्र देखने को न मिले।


- क्षेत्रपाल शर्मा
म सं 19/17,शांतिपुरम सासनी गेट आगरा रोड अलीगढ़ 202001

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