प्रेमचंद के उपन्यासों में स्त्री विमर्श

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प्रेमचंद के उपन्यासों में स्त्री विमर्श स्त्री का जीवन और उसकी समस्याएं। प्रेमचंद के उपन्यासों में स्त्री विमर्श का एक महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने

प्रेमचंद के उपन्यासों में स्त्री विमर्श


प्रेमचंद, हिंदी साहित्य के महान उपन्यासकार, ने अपने रचनाओं के माध्यम से भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को बड़ी ही सटीकता से चित्रित किया है। इनमें से एक महत्वपूर्ण पहलू है स्त्री का जीवन और उसकी समस्याएं। प्रेमचंद के उपन्यासों में स्त्री विमर्श का एक महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अपने पात्रों के माध्यम से उस समय की नारी की दयनीय स्थिति, उसके संघर्ष और उसके सपनों को बड़े ही मार्मिक ढंग से उजागर किया है।

प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में नारी पात्रों के वास्तविक स्वरूप का चित्रण किया है। ये नारी पात्र विशुद्ध भारतीय हैं। भारतीय ग्राम और नगर के परिवेश में रहने वाले इन पात्रों की अपनी मान्यताएँ, विचार और आदर्श हैं। डॉ० सरोजनी कुलश्रेष्ठ ने प्रेमचन्द के उपन्यासों में वर्णित नारियों को निम्न तीन श्रेणियों में बाँटा है -
 

बाबू (क्लर्क) वर्ग से सम्बन्धित नारियाँ

प्रेमचन्द द्वारा चित्रित बाबू वर्ग की नारियाँ समाज की रूढ़ियों और आर्थिक अव्यवस्थाओं से प्रताड़ित हैं। इनके सामने समस्याएँ हैं, समस्याओं का समाधान नहीं। इस कारण वे विद्रोहिणी हो जाती हैं। बृजरानी और पूर्णा दोनों विधवा हैं। बृजरानी प्रताप से प्रेम करती है किन्तु दुर्भाग्यवश उसका विवाह आवारा कमलाचरण से होता है। वह इसे भाग्य की मार समझकर सौभाग्य में परिवर्तित करने का प्रयास करती है और अपने प्रयास में सफल भी हो जाती है किन्तु उसे शीघ्र ही वैधव्य का सामना करना पड़ता है। जीवन की निराशा बृजरानी को साहित्य की ओर प्रवृत्त कर देती है। उसके प्रेम में मुग्ध प्रताप संन्यासा हो जाता है। 'प्रतिज्ञा' उपन्यास की पूर्णा भी विधवा है। वह शारीरिक सुख के लिए तड़पती है किन्तु आदर्शवाद के पुरोधा मुंशी प्रेमचन्द उसे भक्ति की ओर मुख कर देते हैं। सुमित्रा पूर्णा की भाभी है। वह बड़े पिता की बेटी और बड़े ही श्वसुर की पुत्रवधू है फिर भी वह सुखी नहीं है। उसका पति रात को देर से घर लौटता है। पूर्णा द्वारा पूछने पर कि 'क्या अभी भइया नहीं आये ?' वह कहती है-अभी नहीं, बारह ही तो बजे हैं। इतनी जल्दी क्यों आयेंगे ? न एक, न दो, न तीन। मेरा विवाह तो महल से हुआ है। लाला बद्रीप्रसाद की बहू हूँ, इससे बड़े सुख की कल्पना कौन कर सकता है? भगवान ने किसलिए मुझे जन्म दिया, समझ में नहीं आता। इस घर में मेरा कोई अपना ही नहीं बहिन। मैं जबरदस्ती पड़ी हूँ। मेरे मरने-जीने की किसी को परवाह नहीं है। तुमसे यही प्रार्थना है कि मुझ पर दया रखना। टूटे हुए तारों से मीठे स्वर नहीं निकलते। तुम्हारे हृदय में सुखद स्मृतियाँ हैं, मेरे में वह भी नहीं। मैंने सुख देखा ही नहीं और न देखने की आशा रखती हूँ। 

प्रेमचंद के उपन्यासों में स्त्री विमर्श
'सेवासदन' की सुमन प्रेमचन्द का स्मरणीय नारी पात्र है। सुमन का सौन्दर्य और यौवन उसे रूपगर्विता बना देता है। विवाह के बाद जब वह ससुराल पहुँचती है तो पहनने, ओढ़ने और श्रंगार करने की लालसा और अधिक बढ़ जाती है। अपनी पड़ोसिनों में भी वह रानी की तरह सुन्दर प्रसिद्ध हो गयी थी। प्रेमचन्द ने लिखा है-"सुमन उनके बीच में रानी मालूम होती थी। उसकी सगर्वा प्रकृति को इसमें अत्यन्त आनन्द प्राप्त होता था।'' पति की कृपणता उसे अपनी कामना पूर्ति का अवसर नहीं देती थी। पति का व्यवहार सुमन के प्रति अच्छा नहीं था। उसके जीवन में रहने वाले आर्थिक अभावों ने भी सुमन को विरक्ति से भर दिया था। सुमन के सामने रहने वाली भोली नामक वेश्या की सम्पन्नता ने सुमन के हृदय की अतृप्त इच्छाओं को जागृत कर दिया। पति द्वारा उपेक्षित गुमन को भोली वेश्या के घर पर ही प्रश्रय मिला। भोली के घर सुमन तीव्रता से झूठे सम्मान की ओर बढ़ती चली गयी किन्तु शीघ्र ही उसका हृदय घृणा से भर गया। उपन्यास के अन्त में सुमन सेवासदन नामक आश्रम में अनाथ स्त्रियों की सेवा करते हुए जीवन व्यतीत करने लगती है। सुमन के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता उसका स्वाभिमान है। अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारण सुमन अपनी बड़ी बहन शांता के यहाँ भी रहना अस्वीकार कर देती है।
 
'निर्मला' उपन्यास की नायिका निर्मला के समक्ष वृद्ध विवाह की समस्या है। उसका विवाह अपने से बड़े पुरुष के साथ हो जाता है। उस पुरुष के निर्मला की उम्र के बराबर तीन पुत्र पहले से ही थे। अपनी परिस्थिति से समझौता करते हुए निर्मला कहती है- "मैं इनकी सेवा कर सकती हूँ, सम्मान कर सकती हूँ, अपना जीवन इनके चरणों पर अर्पण कर सकती हूँ लेकिन वह नहीं कर सकती जो मेरे किये नहीं हो सकता । अवस्था का भेद मिटाना मेरे वश की बात नहीं।" इस प्रकार निर्मला अपने नारी धर्म का पालन करती है। डॉ० भुवन मोहन सिन्हा द्वारा जब उसके समक्ष प्रेम प्रस्ताव रखा जाता है तब वह ग्लानि से भर जाती है और उनके प्रस्ताव को ठुकराकर अपने चारित्रिक औदात्य का परिचय देती है।
 
'गबन' उपन्यास की जालपा का व्यक्तित्व प्रेम के तंतुओं से निर्मित है। इस प्रेम का स्वरूप उसके जीवन में समय के साथ परिवर्तित होता रहा है। चन्द्रहार के संकीर्ण आकर्षण के घेरे से मुक्त होकर वह देश प्रेम और मानव प्रेम के विशाल धरातल पर अवस्थित हो जाती है। जालपा को आभूषण प्रिय थे किन्तु समय के परिवर्तन से आभूषणों के लिए हठ करने वाली जालपा गांभीर्य को प्राप्त होती है। जालपा के चरित्र का यह परिवर्तन स्वयं जालपा की व्यक्तिगत मनुष्यता एवं महानता के कारण है। जालपा के चरित्र में स्वतंत्र आत्मा के तत्व हैं। इसी कारण इतना बड़ा विरोध अपने प्राणों पर झेलकर अनेक बाधाओं का सामना करते हुए अडिग रहने की क्षमता उसमें आ सकी है। जालपा प्रेमचन्द की प्रथम स्वस्थ चेतना सम्पन्न नारी है। 'गबन' की रतन दूसरी नारी है जो निर्मला की तरह अनमेल विवाह के अभिशाप से ग्रस्त जीवन जीने को विवश है। रतन के पति की मृत्यु के बाद समस्त पूँजी उसके हाथ से निकल जाती है और रतन को जालपा के आश्रय में रहना पड़ता है। प्रेमचन्द ने रतन की स्थिति को इस प्रकार स्पष्ट किया है- "जालपा अपने को दुखिनी समझती थी लेकिन रतन की मनोव्यथा तो जालपा से भी कहीं अधिक हृदय विदारक थी। जालपा को पति के लौट आने की आशा अभी थी। वह जवान है, उसके आते ही जालपा को यह बुरे दिन भूल जायेंगे। इसकी आशाओं का सूर्य फिर उदय होगा, उसकी इच्छायें फिर फूलेंगी। भविष्य अपनी सारी आशाओं, आकांक्षाओं के साथ उसके सामने था विशाल, उज्ज्वल, रमणीक । रतन का भविष्य क्या था? कुछ नहीं शून्य, अंधकार।" जालपा के पास रहते हुए अंत में रतन की मृत्यु हो जाती है।
 
डॉ० सरोजनी कुलश्रेष्ठ के अनुसार - "प्रेमचन्द जी द्वारा चित्रित बाबू वर्ग की ये नारियाँ बड़ी स्वाभिमानी एवं विद्रोहिणी हैं। परिस्थितियों ने इन्हें जकड़ लिया है, इसलिए उनका विद्रोह अन्त तक टिक नहीं पाता।वे सामाजिक कुरीतियों एवं शोषण के विरुद्ध संघर्ष भी करती हैं किन्तु यह संघर्ष ऊँचे स्तर तक पहुँच नहीं पाता है।"
 

कृषक वर्ग से सम्बन्धित नारियाँ

प्रेमचन्द के उपन्यासों में किसान वर्ग की नारियाँ बड़ी परिश्रमी हैं। इस वर्ग की नारियों में धनिया, सिलिया, सोना, मुन्नी, सलोनी, पुनिया आदि हैं। धनिया प्रेमचन्द द्वारा चित्रित सर्वाधिक सशक्त नारी पात्र है। उसके जीवन का प्रत्येक भाग विद्रोह कीं तेजस्विता से भरा हुआ है। वह सोचती है कि हमने जमींदार के खेत जोते हैं तो वह अपना लगान भी तो लेगा। उसकी खुशामद हम क्यों करें ? उसके तलवे क्यों सहलायें ? धनिया की यह स्पष्टवादिता संपूर्ण वर्ग की स्पष्टवादिता है। वक्त पड़ने पर धनिया होरी को भी खरी-खरी सुनाने से नहीं चूकती। धनिया अन्त तक होरी का साथ देती है। होरी की मृत्यु पर जब गोदान का प्रश्न उठता है तो बीस आने पैसों में उनके जीवन का सारा संघर्ष एक करुणापूर्ण रुदन करने लगता है। होरी की मृत्यु के समय जब गोदान का प्रश्न उठा तो धनिया यंत्र की भाँति उठी, आज जो सुतली बेची थी उसके बीस आने पैसे लायी और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली - "महाराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं यही उनका गोदान है।" और पछाड़ खाकर गिर पड़ी। धनिया क्रोध आने पर जो मुँह में आता है बक जाती है किन्तु उसके हृदय की कोमलता क्षण भर में ही प्रकट हो जाती है। झुनिया को घर में आश्रय देना, सिलिया को भी सहारा लगाना उसके हृदय की उदारता के ही सूचक हैं। प्रेमचन्द के नारी पात्रों में धनिया अप्रतिम है।
 
झुनिया, सिलिया और सोना भी कृषक वर्ग की उल्लेखनीय युवतियाँ हैं। झुनिया समाज की दुर्व्यवस्था का शिकार, सिलिया जाति की हरिजन होने पर भी आदर्श स्त्री, सोना चौधरी जाति की किसान बालिका साँवली, सुडौल और प्रसन्न रहने वाली है। झुनिया अहीर परिवार की विधवा युवती है। वह गोबर से सच्चा प्रेम करती है। सिलिया अपने मन की रानी है। उसकी दृष्टि में माता-पिता, समाज, मान-प्रतिष्ठा, मरजाद कुछ भी महत्व हीं रखते।
 
'कर्मभूमि' की सलोनी गाँव की काकी है। भूख, दरिद्रता आदि अभावों से उसकी कमर टूट जाती है, किन्तु उसका हृदय विशाल है। ग्रामीण स्त्रियो की तरह उसमें आतिथ्य की भावना है। यह अमरकान्त को गेहूँ की रोटी खिलाती है और स्वयं बाजरे की रोटी से ही संतोष कर लेती है। जमीन के लगान के लिए वह लड़ाई के मैदान में उतर आती है। संघर्ष की भावनायें सलोनी के जीवन में अभूतपूर्व गति उत्पन्न करती हैं।
 
किसान वर्ग की नारियों के अतिरिक्त कायाकल्प की लौंगी एक रखैल होते हुए भी उच्च प्रेम का आदर्श प्रस्तुत करती है।लौंगी के चरित्र में कर्तव्यपरायणता, त्याग, स्नेह, सेवा भाव, उदारता आदि भावनाओं का चित्रण मुंशी जी द्वारा किया गया है।
 

जमींदार वर्ग से सम्बन्धित नारियाँ

मुंशी प्रेमचन्द की दृष्टि में जमींदार वर्ग की नारियाँ पुरुषों की तरह विलासिनी होती हैं। इस दृष्टिकोण के बावजूद विद्या, श्रद्धा, रेणुका और इन्दु जैसी नारियों के हृदय में अपने धन के लिए किसी प्रकार का गर्व नहीं है। उनका हृदय कोमल एवं अन्याय को सहन न करने वाला है। विद्या ज्ञानशंकर की पत्नी है तथा सुन्दर, सौम्य एवं उदार विचारों वाली है। वह राय साहब से कह देती है- " मै जिस पुरुष की स्त्री हूँ उस पर संदेह करके अपना परलोक नहीं बिगाड़ सकती। वह आपके कथनानुसार कुचरित्र सही, दुरात्मा सही, कुमार्गी सही परन्तु मेरे लिए पूज्य और देवतुल्य हैं।" जब राय साहब ज्ञानशंकर का पूर्ण रहस्य खोलते हैं तो उसका हृदय ग्लानि से भर जाता है। उसके मन की शंकाएँ उग्र रूप धारण कर लेती हैं। अन्त में वह गहरी निराशा में डूब जाती है और श्रद्धा से कहती है- "बहिन मेरी नाव डूब गई, जो कुछ होना था हो चुका।" गायत्री जब विद्या के पुत्र माया को गोद लेती है तो विद्या का हृदय कातरता से भर जाता है। वह नहीं चाहती कि उसका पुत्र ज्ञानशंकर के पदचिह्नों पर चले। अंत में विद्या को ज्ञानशंकर से बड़ी घृणा हो जाती है और वह आत्महत्या कर लेती है।
 
गायत्री जमींदार वर्ग की प्रमुख नारियों में से एक है। गायत्री के चरित्र-चित्रण में मुंशी प्रेमचन्द ने इस तथ्य का आश्रय लिया है कि बड़े लोगों का जीवन पतनोन्मुख होता है । गायत्री विधवा होने पर भी ज्ञानशंकर की ओर आकर्षित होती है। वह अपने बहनोई ज्ञानशंकर के प्रति आकर्षण पर भक्ति का आवरण चढ़ाने का प्रयास करती है। अंत में उसे मृत्यु की गोद में ही शान्ति मिलती है। जमींदार वर्ग की नारियों में रेणुका, इन्दु, और सुखदा का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। 

प्रेमचन्द के उपन्यासों के कुछ पात्र ऐसे भी हैं जिन्हें किसी वर्ग विशेष में नहीं बाँधा जा सकता है। ‘कायाकल्प' की देवप्रिया और गोदान की मिस मालती ऐसी ही नारी पात्र हैं। प्रारम्भ में मालती स्वच्छन्दता को ही नारी स्वतंत्रता समझती है किन्तु मेहता के सम्पर्क में आने पर उसके विचारों में सकारात्मक परिवर्तन होता है। यह नवीन परिवर्तन उसके व्यक्तित्व को ऊँचा उठा देता है।

डॉ० सरोजनी कुलश्रेष्ठ के अनुसार- "प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में नारी का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है, उन्हें विविध समस्याओं के ताने बाने में उलझाकर सुलझाया है। उनकी नारियाँ काल्पनिक कम वास्तविक अधिक हैं। देशभक्ति में उनकी नारियों की विशेष गति है। परिवार, समाज एवं राष्ट्र का उनमें अपूर्व संगम है।" सभी वर्ग की नारियाँ पतिपरायण हैं। सारांशतः प्रेमचन्द के नारी पात्र जीवन के बहुविध आयामों को अभिव्यक्त करते हैं। उनके नारी पात्र भारतीय नारी के उदात्त रूप को प्रकट करते हैं।

इस प्रकार प्रेमचंद के उपन्यासों में स्त्री विमर्श का एक गहराई से अध्ययन हमें यह बताता है कि उन्होंने स्त्री जीवन के विभिन्न पहलुओं को बड़ी ही संवेदनशीलता से चित्रित किया है। उन्होंने स्त्री की दयनीय स्थिति को उजागर करते हुए समाज में बदलाव लाने की कोशिश की। प्रेमचंद की रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं और हमें स्त्री के अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा देती हैं।

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