बादलों के घेरे कहानी की तात्विक समीक्षा | कृष्णा सोबती

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बादलों के घेरे कहानी की तात्विक समीक्षा कृष्णा सोबती बादलों के घेरे मनोवैज्ञानिक गहराई और सामाजिक यथार्थवाद से भरपूर एक उत्कृष्ट कृति है। यह कहानी पाठ

बादलों के घेरे कहानी की तात्विक समीक्षा | कृष्णा सोबती


कृष्णा सोबती की कहानी बादलों के घेरे मनोवैज्ञानिक गहराई और सामाजिक यथार्थवाद से भरपूर एक उत्कृष्ट कृति है। यह कहानी पाठकों को जीवन के अस्तित्ववादी सवालों और मानवीय रिश्तों की जटिलताओं से रूबरू कराती है।

भारत विभाजन के समय पंजाब से ये लोग दिल्ली आये थे, उनमें कृष्णा सोबती भी थीं। बहुत जल्दी दिल्ली में उनकी पहचान एक सशक्त कथाकार के रूप में हो गयी। उनके अनेक उपन्यासों एवं कहानियों के प्रकाशन ने उन्हें विशेष स्थान प्रदान किया।अब वे गुमनाम हैं, पर उनके प्राचीन पाठक उन्हें अब भी आदर से स्मरण करते हैं। कृष्णा सोबती की बादलों के घेरे कहानी आत्मकथा अथवा आत्मचिन्तन शैली में विरचित है। कहानी इस प्रकार धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है, जैसे कोई टी. बी. अर्थात् राजयक्ष्मा का रोगी मृत्यु की ओर सरक रहा हो।

आचार्यों, आलोचकों अथवा समीक्षकों ने कहानी के निम्नलिखित छः तत्त्व निश्चित किये हैं- 
  • कथानक अथवा कथावस्तु, 
  • पात्र और उनका चरित्र-चित्रण, 
  • कथोपकथन अथवा संवाद, 
  • भाषा शैली, 
  • देशकाल और वातावरण तथा 
  • उद्देश्य ।
 
कुछ विचारक एक सातवाँ तत्त्व भी स्वीकार करते हैं - शीर्षक। 

इन्हीं तत्त्वों के आधार पर कृष्णा सोबती की कहानी 'बादलों के घेरे' की समीक्षा प्रस्तुत है

कथानक अथवा कथावस्तु

बादलों के घेरे कहानी बहुत लम्बी है-19 पृष्ठों में फैली हुई, पर इसका कथानक संक्षिप्त है। नवयुवक रवि अपनी बुआ के यहाँ आया है। यहाँ उसे मन्नो नाम की अविवाहित युवती मिलती है जो राजयक्ष्मा की रोगिणी है और भुवाली के पर्वतीय एवं स्वास्थ्यप्रद वातावरण में धीरे-धीरे मृत्यु की ओर बढ़ रही है। जिस समय रवि अपनी बुआ के घर पहुँचा था, उस समय उसकी बुआ अपने बच्चों के साथ घर पर ही थी। बुआ किसी काम से भीतर थीं। रवि और बच्चे बाहर थे। सहसा एक दुबली-पतली लड़की मन्नो आयी। बच्चे उसके गर्म शाल को पकड़कर लिपट गये। स्पष्ट है कि बच्चे मन्नो से सुपरिचित थे। बुआ ने बाहर आते ही बच्चों को डाँटा और मन्नो को उनसे दूर करने के उद्देश्य से उसे कहीं घूम आने का आदेशात्मक परामर्श दिया। रवि को बुआ का यह व्यवहार बहुत बुरा लगा। मन्नो उसे बहुत प्यारी लगी और उसके मन में मन्नो को अपनी बनाने का भाव जाग्रत हुआ ।
 
बादलों के घेरे कहानी की तात्विक समीक्षा | कृष्णा सोबती
बाद में रवि को मालूम हुआ कि मन्नो क्षय की रोगिनी है और भुवाली के सेनीटोरियम से दो दिन के लिये अपनी बुआ के पास आयी है। बुआ के व्यवहार से दुःखी मन्नो उसी दिन भुवाली चली गयी। बुआ ने मन्नो के प्रति रवि का प्रेम भाँप लिया और केवल इतना कहा - "रवि ! अब उस लड़की के लिये कुछ मत सोचो, उसे रहना नहीं है।" बुआ को लगा कि रवि पर उनकी बात का प्रभाव नहीं हुआ तो बाद में उन्होंने चेतावनी दी–‘“रवि ! कुछ हाथ नहीं लगेगा। " 

रवि पर बुआ की चेतावनी का कोई प्रभाव नहीं हुआ। वह मन्नो के प्रेम में रहा और भुवाली में उससे जाकर मिला। मन्नो अपना भविष्य जानती थी, इसलिये वह रवि की ओर नहीं बढ़ी।मन्नो की मृत्यु हो गयी। रवि ने मीरा से विवाह कर लिया। घर में दो प्यारे बच्चे मुन्ना और रानी आ गये। खुशियों का ठिकाना नहीं था। पता नहीं कब रवि को यक्ष्मा (टी. बी.) रोग ने अपने घेरे में ले लिया। मन्नो के समान उसे भी भुवाली सेनीटोरियम में रखा गया और रवि भी मन्नो के समान धीरे-धीरे मृत्यु की ओर खिसकने के लिये विवश था। एक बार रवि की पत्नी मीरा अपने दोनों बच्चों के साथ रवि को देखने आयी और दोनों बच्चों को उससे दूर ही रखा। एक घण्टे बाद मीरा चली गयी। पत्नी मीरा के चले जाने के पश्चात् रवि ने जो सोचा, वही इस कहानी में साकार हुआ है।

यह कहानी उस समय की रचना है, जब यक्ष्मा (टी.बी.) असाध्य रोग समझा जाता था और इस रोग के रोगी से आत्मीय जन भी दूर ही रहते थे। आज तो टी. बी. साध्य रोग है तथा उसकी समाप्ति की तैयारियाँ हैं ।
 

पात्र एवं चरित्र चित्रण

बादलों के घेरे कहानी में बहुत से पात्र हैं - मन्नो, रवि, रवि की बुआ, बुआ के बच्चे, रवि की माँ, रवि की पत्नी मीरा, रवि के बच्चे - मुन्ना और रानी। इनके अतिरिक्त भी अनेक पात्र हैं-कुली, घोड़े वाला पहाड़ी, सेनीटोरियम के कमरे में मन्नो की देखभाल करने वाले पहाड़ी दम्पति तथा कार का ड्राइवर आदि । इनमें विशेष पात्र हैं-मन्नो, रवि, रवि की बुआ और रवि की पत्नी मीरा । रवि इस कहानी का नायक है और मीरा इसकी नायिका है। प्यार-मोहब्बत की कहानियों में प्रेमी और प्रेयसी, पति-पत्नी ही हों, यह आवश्यक नहीं है। बुआ और मीरा का चरित्र लगभग समान है। दोनों ही यक्ष्मा (टी. बी.) के मरीजों से अपने बच्चों को दूर रखती हैं। बुआ मन्नो से और मीरा रवि से। इन चार पात्रों का चरित्र संक्षेप में इस प्रकार है-
 
बुआ व्यवहार कुशल है । मन्नो सहृदय और सहनशील है। समझती अधिक है, कहती कम है। रवि प्यार का भूखा युवक है। मन्नो को चाहता है, पर प्राप्त नहीं कर पाता। मन्नो के समान मृत्यु की प्रतीक्षा करके मन्नो की पीड़ा को समझ पाता है। मीरा पति से प्रेम करती है, पर व्यवहार कुशल है। वह यक्ष्मा (टी.बी.) रोग से ग्रसित पति के पास बच्चों को जाने नहीं देती। घुट-घुटकर मरने वाला रवि मन्नो की पीड़ा तथा विवशता का अनुभव कर रहा है। नायक और नायिका दोनों ही यक्ष्मा (टी.बी.) के रोगी हैं। मन्नो बड़ी समझदार, शान्त तथा व्यवहार कुशल लड़की है। रवि ने अपना प्यार प्रकट करने के लिये झील की हवा में फहराते घुँघराले बालों पर झुककर बाँह से घेरते हुए कहा- "मन्नो!" मन्नो चौंकी नहीं, कँधे पर पड़ा हाथ धीरे से अलग कर दिया और समूची आँखों से देखते हुए बोली - "रवि ! जिसे तुम झेल नहीं सकते, उसके लिये हाथ नहीं बढ़ाओ ।"
 
रवि की विवशता इन सीमित शब्दों में समझी जा सकती है-"जिस दुर्बलता से कायर बनकर डरा था, वह आज अपने पर ही बीत रही है। आज अपने लिये, मन्नो के लिये उस कायरता को कोसता हूँ।"
 
कहानी जिस प्रकार धीमी गति से सरकती रही है, उसी प्रकार कहानी के चरित्रों पर भी धीमी गति से प्रकाश डाला गया है। सभी पात्र अपनी सीमा में रहने को विवश हैं। वात्सल्य से पूर्ण दो माताएँ-बुआ और मीरा यक्ष्मा (टी. बी.) के रोगी के प्रति आत्मीयता होते हुए भी अपने बच्चों को उनके स्पर्श से बचाती हैं।
 

कथोपकथन अथवा संवाद

संवाद कहानी का आवश्यक तत्त्व नहीं है। कहानी लेखक नाटककार के समान कथानक को प्रदर्शित नहीं करता, सुनाता अथवा कहता है। वह पात्रों, वातावरण तथा घटनाओं का वर्णन करता है। कुछ आत्म कथात्मक कहानियों का कथानक किसी पात्र के द्वारा कहलवाया जाता है। 'बादलों के घेरे' कहानी इसी प्रकार की है, फिर भी इसमें नाटक अथवा एकांकी के समान कथोपकथनों अथवा संवादों को स्थान दिया गया है। सभी कहानी लेखक ऐसा करते हैं। आपस में बात-चीत करते हुए अथवा संवाद बोलते हुए पात्र जीवन्त प्रतीत होते हैं। इस प्रकार के पात्र पाठक अथवा श्रोता को अधिक प्रभावित करते हैं। वे ऐसे पात्रों को अपने समान जीवन्त अनुभव करते हैं। कृष्णा सोबती की इस कहानी में संवाद बहुत हैं, पर छोटे-छोटे हैं। संवादों के साथ लगे स्पष्टीकरण ने उन्हें अलग-अलग कर दिया है। उदाहरण के रूप में सरल, सुबोध तथा खड़ी बोली में रचित संवादों का एक स्थल प्रस्तुत है-
 
"बाबा! बूढ़ा नौकर लपककर घोड़े के पास आया और लड़की से बोला- “उतरो बिटिया ! बहुत देर कर दी।" और हाथ आगे बढ़ा दिया। 
मन्नो सहारा लेकर नीचे उतरी। "तनिक अम्मा को तो बुलाओ बाबा! मेरा जी अच्छा नहीं।" 
"सुख तो है बिटिया !" 
चिन्ता का यह स्वर सुनकर बिटिया जरा-सा हँस दी। फिर रुककर, लम्बी साँस भरकर बोली- “अच्छी भली हूँ बाबा! बड़ी अम्मा से कहो, बिछौना लगा दें।" 
बाबा ने बिटिया के लिये कुर्सी खींच दी। फिर सहम कर पूछा- “बिटिया ! लेटोगी।" 
"हाँ बाबा !" 
इस बार मन्नो ने बाबा की ओर देखा नहीं। जैसे कोई अपराध बन आया हो। फिर मेरी ओर झुककर कहा - "क्या बहुत देर हुई?" 
"नहीं!" मैं सिर हिलाता हूँ, पर आँखें नहीं। 
इस बार झिझक से नहीं, अधिकार से पूछता हूँ-"क्या जी अच्छा नहीं ?" 

भाषा शैली

बादलों के घेरे कहानी की भाषा इतनी अधिक सरल तथा लोक प्रचलित खड़ी बोली है कि सामान्य शिक्षित भी इसे समझ सकता है। रवि पढ़ा-लिखा युवक है, पर उसका चिन्तन सरल भाषा में है। इस कहानी की शैली आत्मकथात्मक है, पर भाषा की शैली में शिथिलता है। क्षय रोग के रोगी की साँसों के समान शैली भी शिथिल और थकित है। उदाहरण के रूप में भाषा शैली का एक स्थल प्रस्तुत है -

"सच ही सब चले गये हैं। इसलिये नहीं कि उन्हें जाना था, इसलिये कि मैं चला जा रहा हूँ। ऐसे ही एक दिन मन्नो के जाने को भाँपकर मैं उत्तराई से उतरता चला गया था। मेरी ही तरह अकेले में मन्नो रोई थी। अब जान पाया हूँ कि हाथों में मुँह छिपाकर वह रोना कितना अकेला था। पर इस बार जाकर बरसों मन्नो की सुधि नहीं ली। जब कभी नींद में देखता, वह दुबली देह, बड़ी-बड़ी आँखें और कम्बल पर फैली पतली-पतली बाहें तो जागकर उद्वेग से मीरा की ओर बढ़ जाता ।
 

देशकाल और वातावरण

बादलों के घेरे कहानी का देश अर्थात् स्थान एक नहीं है। यह कहानी अनेक स्थानों अर्थात् लखनऊ, काठगोदाम, नैनीताल, बरेली तथा भुवाली से सम्बन्धित है। इन स्थानों में प्रधानता भुवाली की है, क्योंकि इस कहानी की नायिका मन्नो यक्ष्मा अर्थात् टी. बी. रोग से ग्रसित होकर पर्याप्त समय तक भुवाली से सेनीटोरियम की कुटिया में रही। उसकी मृत्यु वहीं हुई। इस कहानी का नायक रवि मन्नो के प्रति आकर्षित होकर कई बार भुवाली गया। रवि टी. बी. अर्थात् यक्ष्मा रोग से ग्रसित होकर भुवाली के सेनीटोरियम की एक कुटिया में रहा।
 
जहाँ तक काल अर्थात् समय का प्रश्न है, यह कहानी भारत की स्वतन्त्रता के पूर्ववर्ती समय से सम्बन्धित है। अंग्रेजी राज्य में ही टी. बी. अथवा यक्ष्मा रोग को महाविनाशकांरी माना जाता था। यक्ष्मा को आयुर्वेद में राजयक्ष्मा कहा गया है। तात्पर्य यह है कि यह रोग राजाओं अथवा अत्यधिक सम्पन्न लोगों को होता था । सेनीटोरियम में रहने का खर्चा बहुत था। उसे राजा अथवा सम्पन्न लोग ही सहन कर सकते थे। नौकरों और सेवकों द्वारा मालिकों को 'हुजूर' कहने का प्रचलन भी उसी समय था। इस कहानी का निश्चित वर्ष बताना सम्भव नहीं है। 

इस कहानी में अनेक प्रकार का वातावरण है। कहानी का नायक और नायिका जहाँ-जहाँ रहे हैं, लेखिका ने वहाँ के वातावरण का विस्तार से वर्णन किया है। रवि टी.. बी. अथवा यक्ष्मा रोग से पीड़ित होकर भुवाली के सेनीटोरियम में रहता है। वहाँ के वातावरण का वर्णन उसके माध्यम से लेखिका ने इस प्रकार किया है- 

"मैं लेटा रहता हूँ और सुबह हो जाती है। मैं लेटा रहता हूँ, शाम हो जाती है। मैं लेटा रहता हूँ, रात झुक जाती है। दरवाजे और खिड़कियों पर पड़े पर्दे मेरी ही तरह दिन-रात, सुबह-शाम अकेले मौन भाव से लटकते रहते हैं। कोई उन्हें भरे-भरे हाथों से उठाकर कमरे की ओर बढ़ा नहीं आता। कोई इस देहरी पर अनायास मुसकरा कर खड़ा नहीं हो जाता। रात, सुबह तथा शाम बारी-बारी से मेरी शैय्या के पास घिर-घिर आते हैं और मैं अपनी इन फीकी आँखों से अँधेरे और उजाले को नहीं, लोहे के पलंग पर पड़े अपने आपको देखता हूँ। अपने इस छूटते-छूटते तन को देखता हूँ और देखकर रह जाता हूँ। सब अलग जा पड़ा है। अपने कन्धों से जुड़ी अपनी बाहों को देखता हूँ। मेरी बाहों में लगी वे भरी-भरी बाहें कहाँ हैं? कहाँ हैं वे सुगन्ध भरे केश जो मेरे वक्ष पर बिछ-बिछ जाते थे ? कहाँ हैं वे रस भरे अधर जो मेरे रस में भीग-भीग जाते थे ? सब था, मेरे पास सब था । बस, मैं आज-सा नहीं था। जीने का संग था और उठने का संग था। मैं धुले-धुले सिरहाने पर सिर डालकर सोता रहता और कोई हौले से चूमकर कहता- उठोगे नहीं...भोर हो गयी।"
 
कहानी लेखिका ने कहानी के नायक रवि के माध्यम से पर्वतीय वातावरण का कितना लुभावना वातावरण अंकित किया है-बस से उतरा। अड्डे पर रामगढ़ के लाल-लाल सेबों के ढेर देखकर यह नहीं लगा कि यही भुवाली है। बस में सोचता आया था कि वहाँ घुटन होगी, पर चीड़ के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से लहराती हवाएँ बह-बह आती थी । छाँहें ऊपर उठती हैं, धूप नीचे उतरती है और भुवाली मन को अच्छी लगती है। चौराहे से होकर पोस्टऑफिस पहुँचा। कॉटेज का पता लिया। खुली चौड़ी सड़क के मोड़ से पहाड़ी बाजार में होता हुआ पाइन्स की ओर हो लिया। खुली चौड़ी सड़क के मोड़ से अच्छी-सी पतली राह कॉटेज की ओर जाती थी। जंगले के नीचे देखा, अलग-अलग खड़े पहाड़ों के बीच की जगह पर एक खुली-चौड़ी घाटी बिछी थी । तिरछे-सीधे छोटे-छोटे खेत किसी से घुटने पर रखे कसीदे के कपड़े की तरह धरती पर फैले थे। दूर सामने दक्खिन की ओर पानी का ताल धूप में चाँदी के थाल की तरह चहकता था ।
 
स्पष्ट है कि कहानी लेखिका में वातावरण को शब्दों के माध्यम से चित्रित करने की विचित्र क्षमता है। इस कहानी में देश, काल और वातावरण का निर्वाह पूर्ण रूप से हुआ है।

उद्देश्य

साहित्य रचना ही नहीं, कोई भी कार्य निरुउद्देश्य नहीं होता। संस्कृत की एक कहावत है- प्रयोजनं विना मूर्खोऽपि न प्रवर्तते।(प्रयोजन अथवा उद्देश्य के बिना मूर्ख भी कोई कार्य नहीं साहित्यकार मनीषी होता है, प्रबुद्ध होता है तथा प्रतिभा का धनी होता है। स्पष्ट है कि साहित्यकार किसी-न-किसी उद्देश्य से ही साहित्य की रचना करता है।कृष्णा सोबती प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं। उनके उपन्यासों तथा कहानियों की धूम रही है। उनकी रचना उद्देश्यविहीन तथा प्रयोजन रहित कैसे हो सकती है? इस कहानी का उद्देश्य अंग्रेजी राज्य में तथा उससे भी पहले यक्ष्मा को असाध्य रोग समझने को साकार करना है। यक्ष्मा अर्थात् टी. बी. ऐसा रोग कभी नहीं रहा कि इस रोग के रोगी के छूने से किसी को भी यह रोग अपनी जकड़ में ले लेता हो। इतना अवश्य था कि उस समय यह रोग असाध्य समझा जाता था। कहानी लेखिका का उद्देश्य जनमानस में फैली उसी भयावहता को आकार देना है। मन्नो रवि की बुआ की भतीजी है। मन्नो बड़ी प्यारी लड़की है। बुआ के बच्चे उससे लिपट जाते हैं। बुआ बाहर से आकर जब यह दृश्य देखती है तथा बच्चों को मन्नो से अलग करके मन्नो को घूमने की सलाह देती है। 

शीर्षक

कहानी का शीर्षक छोटा और प्रभावशाली होना चाहिए। शीर्षक की सार्थकता भी आवश्यक है। भुवाली के सेनीटोरियम में रवि बादलों के घेरे को देखता है। इस आधार पर शीर्षक सार्थक है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि इस कहानी में कहानी के सभी तत्त्वों का निर्वाह हुआ है। 

इस प्रकार बादलों के घेरे एक ऐसी कहानी है जो पाठकों को जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहराई से सोचने के लिए मजबूर करती है। यह कहानी अस्तित्ववाद, सामाजिक यथार्थवाद, प्रकृति और मानव के संबंध जैसे विषयों को बड़ी संवेदनशीलता के साथ उठाती है। कृष्णा सोबती की यह कहानी हिंदी साहित्य का एक अनमोल रत्न है।

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