उसने कहा था कहानी का सारांश | चंद्रधर शर्मा गुलेरी

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उसने कहा था कहानी का सारांश चंद्रधर शर्मा गुलेरी usne kaha tha kahani ka saransh usne kaha tha kahani ka prakashan varsh उसने कहा था' कहानी 1915 में

उसने कहा था कहानी का सारांश | चंद्रधर शर्मा गुलेरी


चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी "उसने कहा था" हिंदी साहित्य की एक अमर रचना है। यह कहानी प्रेम के एक अनोखे आयाम को उजागर करती है जो किसी भी वादे या कसम के बंधन में रहते हुए अपने वादे को पूरा करता है । 

श्री चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' द्वारा रचित कहानी 'उसने कहा था' हिन्दी कथा-साहित्य में शिल्प-विधान तथा विषय-वस्तु के विकास की दृष्टि से 'मील का पत्थर' मानी जाती है। यह प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर रची गई एक प्रेम-प्रधान है। उसने कहा था कहानी का प्रकाशन वर्ष 1915 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी । इस कहानी में लेखक ने प्रेम और कर्त्तव्य के महत्व का समान रूप से बड़ी कुशलता से प्रतिपादन व रक्षण किया है तथा दोनों का व्यक्ति के जीवन में समान महत्व बताया है। साथ ही युद्ध-काल में सैनिकों की स्थितियों, मनोवृत्तियों आदि का बड़े कलात्मक तथा मनोरंजक ढंग से उद्घाटन किया है। कहानी का सार निम्न प्रकार है-
 

अमृतसर की सड़कों का दृश्य

अमृतसर के बाजार में चहल-पहल है, बम्बूकार्ट वालों की मधुर बोली अन्य बड़े शहरों के इक्के गाड़ी वालों की बोली की तुलना में मिठास से भरी हुई है। प्रायः बड़े-बड़े शहरों की सड़कों पर दौड़ते हुए इक्के ताँगों के घोड़ों की पीठ कोचवानों द्वारा बरसाये जाने वाले कोड़ों से छिल जाती है। इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की असावधानी पर कोचवान आँखें दिखा देते हैं, लेकिन अमृतसर की सड़कों पर बम्बूकार्ट वाले तंग चक्करदार गलियों में प्रत्येक लड्डीवाले के लिये ठहरकर, सब का समुद्र उमड़ाकर 'बचो खालसा जी !' 'हटो भाई जी' 'ठहरना भाई।' 'आने दो लालाजी'। 'हटो बाछा!' जैसे मधुर शब्दों का प्रयोग करते दिखायी देते हैं। उनके मुख से निकलने वाले 'जी' और साहब शब्दों में इतनी मधुरता होती है कि पैदल चलने वाले स्वतः ही उनके लिये रास्ता छोड़ देते हैं। यह बात नहीं है कि उनकी जीभ चलती ही नहीं है, लेकिन मीठी छुरी की तरह महीन मार करती है।
 

सिक्ख लड़के व लड़की का मिलन

इन बम्बूकार्ट बालों के बीच में होकर एक सिक्ख लड़की चौक की एक दुकान पर आकर प्रथम बार मिलते हैं। लड़का अपने मामा के केश धोने के लिये दही लेने आया था और लड़की रसोई के लिये बड़ियाँ लेने आयी थी। दोनों एक-दूसरे के बारे में सामान्य जानकारियाँ प्राप्त करते हैं। लड़का लड़की से पूछता है-'तेरा घर कहाँ है ?' 'ममरे में, और तेरा ?' 'माँझे में'–'यहाँ कहाँ रहती है ?', 'अतरसिंह की बैठक में, वे मेरे मामा हैं।' मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरु बाजार में है।'
 
दुकानदार से सौदा लेकर दोनों साथ-साथ वले। कुछ दूर जाकर लड़के ने मुस्करा कर पूछा- 'तेरी कुड़माई हो गयी ?' इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ाकर 'धत्' कहकर भाग गयी, लड़का मुँह देखता रहा गया।
 

दोनों का नित्य मिलना

उसने कहा था कहानी का सारांश | चंद्रधर शर्मा गुलेरी
दोनों में एक-दूसरे के प्रति प्रेम बढ़ने लगता है. दोनों का किसी-न-किसी दुकान पर मिलना नित्य-प्रतिदिन हो गया था। कभी सब्जी वाले के यहाँ, तो कभी दूध वाले के यहाँ, प्रायः दोनों मिलते ही रहते। लड़का लड़की से उसकी कुड़माई (सगाई) के विषय में पूछता है। लड़की धत् कहकर चली जाती है। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिये पूछा तो लड़की अपना रेशमी सालू दिखाकर कह देती है कि ‘हाँ हो गई' और इतना कहकर लड़की भाग जाती है। लड़का आशा के विपरीत यह उत्तर सुनकर भौंचक्का रह जाता है। वह रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेलता हुआ, छावड़ी वाले को ढोकर मारता हुआ, कुत्ते को पत्थर मारता हुआ, एक गोभी वाले में दूध उड़ेलता हुआ और नहाकर आती हुई वैष्णवी से टकराकर अन्धे की उपाधि पाकर घर आ जाता है। इसके पश्चात् दोनों एक-दूसरे से बिछुड़ जाते हैं। 

पच्चीस वर्ष पश्चात्

इसके बाद अनेक वर्ष व्यतीत हो जाते हैं। सिक्ख बालक लहनासिंह जवान होकर फौज में दाखिल हो जाता है और तरक्की करते हुए जमादार (नायब सूबेदार) बन जाता है। पच्चीस वर्ष पश्चात् 77 राइफल्स का जमादार लहनासिंह सात दिन की छुट्टी लेकर एक जमीन के मुकदमे के सम्बन्ध में घर आता है। किन्तु रेजीमेन्ट के अफसर की शीघ्र ही वापिस लौटने की चिट्ठी प्राप्त होती हैं साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी भी मिलती है कि लौटते हुए हमारे घर होते हुए जाना । हम भी साथ चलेंगे । लहनासिंह सूबेदार के घर पहुँचता है।
 
जब चलने लगे, तब सूबेदार बेढ़े में से निकलकर आता है और कहता है, ' लहना, सूबेदार तुझको जानती है, बुलाती है। जा मिल आ।' लहनासिंह अन्दर पहुँचता है। वहाँ उसे ज्ञात होता है कि सूबेदारनी वही लड़की है, जो बचपन में अमृतसर में मिली थी और एक दिन यह पूछने पर कि, तेरी कुड़माई हो गयी — 'धत्'–कल हो गयी-देखते नहीं, यह रेशमी बूटों वाला सालू। यह कहकर भाग गई थी।
 
सूबेदारनी लहनासिंह को याद दिलाते हुए कहती है कि एक दिन ताँगे वाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन प्राण बचाये थे। आप घोड़े की लातों में चले गये थे और मुझे उठाकर दुकानदार के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। तुम जानते हो कि तुम्हारे सूबेदार मेरे पति और बोधासिंह मेरा पुत्र है। दोनों तुम्हारे साथ युद्ध में जायेंगे। तुमसे मेरी अन्तिम प्रार्थना है कि जिस प्रकार तुमने मेरी रक्षा की थी उसी प्रकार संकट काल में इन दोनों की रक्षा करना। यह कहकर वह अन्दर चली गई और लहनासिंह बाहर निकल आया ।
 

युद्ध की शुरूआत

इधर फ्रांस और बेल्जियम के मैदानों में जर्मनी से भयंकर युद्ध प्रारम्भ हो जाता । जिस समय युद्ध चल रहा था, उस समय बोधासिंह और हजारासिंह लहनासिंह के साथ ही थे। वह सूबेदारनी की प्रार्थना को भूला नहीं था। वह चाहता था कि समय आने पर प्राणों पर खेलकर भी इन दोनों की सहायता कर सके।
 

हजारासिंह व लहनासिंह का वार्तालाप

युद्ध के दौरान दिन-रात खन्दकों में बैठे-बैठे हड्डियाँ अकड गयी। भीषण जाड़ा, ऊपर से बर्फ तथा पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे कई दिन हो जाते हैं। खन्दक के बाहर शरीर का अंग निकलते ही गोलियों की बौछार होती है।
 
सूबेदार हजारासिंह लहनासिंह से कहता है, मुझे संगीन चढ़ाकर मार्च का हुक्म मिल जाये तो सात जर्मनों को अकेला मारकर ही लौटूंगा। उस दिन चार-मील तक एक जर्मन को नहीं छोड़ा था। तभी लहनासिंह कहता है—“सच है हड्डियों-हड्डियों में जाड़ा घमस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाये तो गर्मी आ जाये।"
 

अस्वस्थ बोधासिंह की देखभाल

युद्ध क्षेत्र में बोधासिंह के अस्वस्थ हो जाने पर लहनासिंह उसकी पूरी तरह से देखभाल करता है। सर्दी से काँपने पर वह उसे अपने दोनों कम्बल ओढ़ा देता है। इस पर भी जब उसकी कंपकंपी नहीं रुकती तो वह उसे अपनी जरसी भी उतार कर पहना देता है तथा स्वयं सिगड़ी के पास बैठकर अपनी सर्दी का बचाव करता है। उसकी दृष्टि दोनों ओर रहती है—खाई की ओर भी कि कही दुश्मन आक्रमण न कर दे तथा बोधासिंह की ओर भी कि कहीं उसकी तबियत ज्यादा न बिगड़ जाये।
 

युद्ध क्षेत्र में लहना की बुद्धिमता एवं साहस

एक रात एक जर्मन छद्म वेश में (लपटन साहब की पोशाक पहनकर) आकर सूबेदार हजारासिंह को आदेश देकर धोखे से फौज की टुकड़ी सहित दूर भेज देता है। जब बोधासिंह भी उनके साथ जाने को तैयार होता है तो लहनासिंह उसे रोक लेता है। सूबेदार उसे और उसकी देखभाल के लिये लहनासिंह को कुछ साथियों सहित छोड़ देता है। छद्म वेशधारी जर्मन मुँह फेरकर खड़ा हो जाता है और सिगरेट सुलगाने लगता है। वह हाथ बढ़ाकर लहना को भी सिगरेट देता है तभी है सिगड़ी के उजाले में उसका मुँह देखकर लहना पहचान जाता है कि यह उसका अफसर नहीं है। बल्कि लपटन साहब की पोशाक में कोई जर्मन धोखा देने आया है । अपनी प्रत्युत्पन्न गति से वह दियासलाई लाने का 'बहाना कर खाई में घुसता है और बुद्धिमता एवं बहादुरी के साथ खाई की दीवार से चिपक कर खड़ा हो जैसे वह जाता । वह गुप्त तरीके से उस छद्म वेशधारी को खाई में तीन बम लगाते हुए देख लेता है, दियासलाई से उन्हें सुलगाना चाहता है, लहना बिजली की तरह तुरन्त अपनी उल्टी बन्दूक को उठाकर जोरदारी से उसकी कुहनी पर प्रहार कर उसे मूर्च्छित कर देता है। वह उसकी जेबों की तलाशी लेकर उसमें से तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकालकर अपनी जेब में रख लेता है।
 

सूबेदार को वापिस बुलाने हेतु सूचना भेजना

छद्म वेशधारी जर्मन को पहचानते ही लहना वजीरासिंह को आदेश देता है कि हमारे साथ धोखा हुआ है। तुम पलटन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ कर जाओ ओर सूबेदार हजारासिंह को वापिस बुला लाओ नहीं तो जर्मन उन पर धावा बोल देंगे। मैं यहाँ का मोर्चा सँभालता हूँ। वजीरा के यह कहने पर कि, यहाँ पर भी तो तुम आठ ही हो। लहना उत्तर देता है, आठ नहीं दस लाख। एक-एक अकाली सिख सवा लाख के बराबर होता है। तुम तुरन्त जाओ और सूबेदार को वापिस बुला कर लाओ ।
 

लहना का त्याग

लहना जर्मन द्वारा लगाये गये तीनों गोलों को निकालकर खाई के बाहर फेंक देता है। जब छद्म वेशधारी उस जर्मन की मूर्च्छा हटी। लहनासिंह हँसकर बोला—क्यों लपटन साहब ? मिजाज कैसा है ? लहना एक चूक कर देता है, वह तलाशी लेते समय उसकी पतलून की तलाशी नहीं लेता है। तभी जर्मन अपनी जेब में रखी पिस्तौल से लहनासिंह पर गोली चला देता है जो उसकी जाँघ में लगती है। इधर लहनासिंह भी दो फायर कर जर्मन साहब को मौत की नींद सुला देता है । लहना अपना साफा फाड़कर घाव पर कसकर पट्टियाँ बाँध लेता है जिससे खून निकलना बन्द हो जाता है। 

इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़ते हैं। लहनासिंह अपने साथियों के साथ उनका जमकर मुकाबला करता है। तभी पीछे से सूबेदार हजारासिंह अपने साथियों सहित धड़ाधड़ गोलियाँ चलाते हुए आगे बढ़ता है। ऐन मौके पर जर्मन दल दो चक्की के पाटों के बीच फँस जाता है। इस मुकाबले में तिरसठ जर्मन सैनिक मारे जाते हैं या फरार रहे होते हैं। सिक्खों में से पन्द्रह को वीरगति प्राप्त होती है। इस प्रकार लहनासिंह की प्रत्युत्पन्न बुद्धि से खाई की रक्षा हो जाती है और पूरी सैनिक टुकड़ी भी नष्ट होने से बच जाती है लहनासिंह की पसली में भी एक और गोली लगती है, लेकिन लहनासिंह किसी को भी इसकी खबर नहीं लगने देता है कि दूसरा घाव भारी घाव है। इस प्रकार लहनासिंह मर्माहत रूप से घायल होकर भी सूबेदार और उनके पुत्र बोधासिंह के प्राणों की रक्षा करता है। डेढ़ घण्टे बाद बीमारों एवं घायलों को लेने के लिये दो गाड़ियाँ आती हैं। लहनासिंह सूबेदार व उनके पुत्र बोधासिंह को गाड़ी में बैठाकर जाने के लिये कहता है। सूबेदार लहना को छोड़कर जाने से इन्कार करता है तो वह उन्हें बोधा व सूबेदारनी की सौगन्ध देकर जाने को मजबूर कर देता है। चलते समय वह सूबेदार हजारासिंह से कहता है कि, “सूबेदारनी होरा को मेरी ओर से मत्था टेकना कहना और कहना कि मुझसे जो उसने कहा था, वह मैंने कर दिया।” 

लहना का आत्मोत्सर्ग

गाड़ी के चले जाने के बाद लहना लेट जाता है, वह अपना कमरबन्द खुलवा देता है जो खून से तर हो जाता है। फिर वह पूर्व की स्मृति में खो जाता है। वह अपने बचपन के प्रेम से लेकर सूबेदारनी द्वारा कहे गये शब्दों को याद करने लगता है। वजीरासिंह की गोद में सिर रखे बार-बार पानी पीते हुए लहनासिंह के प्राणपखेरू उड़ जाते हैं, इस प्रकार वह अपना बलिदान देकर उस वचन को पूरा करता है जो उसने सूबेदारनी (बचपन की परिचित बालिका) को दिया था। इसी के साथ कहानी समाप्त हो जाती है। इस प्रकार यहाँ कहानी के शीर्षक 'उसने कहा था' की सार्थकता भी स्पष्ट हो जाती है।

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