उषा प्रियंवदा की कहानी कला की विशेषताएं

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उषा प्रियंवदा की कहानी कला की विशेषताएं उषा प्रियंवदा हिंदी साहित्य की एक प्रमुख कहानीकार हैं, जिन्होंने नई कहानी आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया ह

उषा प्रियंवदा की कहानी कला की विशेषताएं


षा प्रियंवदा हिंदी साहित्य की एक प्रमुख कहानीकार हैं, जिन्होंने नई कहानी आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनकी कहानियों में जीवन की यथार्थवादी तस्वीर उभरती है, जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों की समस्याएं और संघर्ष बड़े ही संवेदनशील ढंग से चित्रित किए जाते हैं।

उषा प्रियंवदा स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी कहानी क्षेत्र में उदित एक प्रमुख कहानीकार हैं हिन्दी कहानी के वर्ग विभाजन की दृष्टि से “नई कहानी” लेखक हैं। इनकी कहानियाँ गहन यथार्थ बोध की परिचायिक हैं। जिनमें सामाजिक, रूढ़ियों, मृत परम्पराओं, जड़ मान्यताओं पर मीठे-मीठे व्यंग्य हैं। उनमें जीवन की ऊब और उदासी उभरी है। आत्मीयता और करुणा के स्वर फूटे हैं और तटस्थ दृष्टि, गहन चिन्तन के साथ व्यंग्य और कलात्मक संयम का सुन्दर समन्वय हुआ है। 

इनकी कहानियों में भारतीय पारिवारिक परिवेश यथार्थ के साथ उभरा है जिसमें आधुनिक जीवन का अकेलापन प्रभावपूर्ण ढंग से उभरा है। कथन-शैली में भावुकता है । अलंकरण और चमत्कार-प्रदर्शन इनकी कहानियों में प्रायः नहीं है। विषय वस्तु के प्रति तटस्थता इनकी कहानी कला की एक महत्वपूर्ण विशेषता है और इसी में उनकी कला का मूल सौन्दर्य छिपा दिखाई देता है । 

उषा प्रियंवदा का कथा साहित्य

आपके कथा संग्रह हैं-'जिन्दगी और गुलाब', 'बसन्त फिर आयेगा', 'एक कोई दूसरा', 'मेरी प्रिय कहानियाँ', इनकी लगभग 100 कहानियों में कुछ तो बहुत ही चर्चित कहानियाँ हैं जिनमें से कुछ हैं—'मछलियाँ', 'जिन्दगी और गुलाब के फूल', 'मोहबन्ध', 'जाले', 'कच्चे धागे' आदि।

उनकी कहानी कला की कुछ प्रमुख विशेषताओं पर नजर डालते हैं:

विषय या कथ्य

कहानी में कथ्य का विशेष महत्व है। ऊषा प्रियम्वदा कथ्य (विषय वस्तु) के प्रति तटस्थ है और इसी में उनकी
उषा प्रियंवदा की कहानी कला की विशेषताएं
कहानी-कला का मूल सौन्दर्य छिपा दिखायी देता है। एक विद्वान, समीक्षक के अनुसार उनकी विदेश प्रवास की कहानियों के कथानक भारतीय और पाश्चात्य जीवन में सामंजस्य स्थापित करने वाले वातावरण से ओत-प्रोत हैं। भारत में रहकर अनेक छात्र और बुद्धिजीवी विदेशों की एक अत्यन्त मोहक कल्पना करते हैं। यह कल्पना उनमें कैसे द्वन्द्व की सृष्टि करती है, इन द्वन्द्वों को लेखिका ने कितना बड़ा झूठ' की कहानियों का विषय बनाया है। वस्तुतः उनकी अधिकांश कहानियों में रूढ़ियों, भूत-परम्पराओं और जड़-मान्यताओं पर मीठी चोटों की झंकार निकलती है।' 

डॉ. पाण्डेय शशिभूषण 'शीतांशु' ने लिखा है कि- “ ऊषा प्रियम्वदा ने तो धीरे-धीरे मरने वाले प्रेम को जबर्दस्त गवाही दे सकने वाली भाषा के सहारे भी प्रेम सम्बन्धी कहानियों की ही खोज की है। यहाँ पर प्रेम के बाद भी भिहंग रह जाते हैं। पारदर्शिता के रहते हुए भी उनकी बीचों-बीच जैसे काँचिया भित्ति स्थिर खड़ी है। प्रेम का यह यथार्थ चित्रण पारस्परिक ठण्डेपन और बेगानेपर का व्यक्तिकरण है। इसके मूल में पश्चिमी जीवन की उन्मुक्त, खुली, काम-कुण्ठा ज्य प्रतिक्रिया भी स्वीकृत है, जिसे उपेक्षित नहीं किया जा सकता। प्रेम के यथार्थ चित्रणात्मक प्रयोग की ये कहानियाँ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संक्रमण के रूप में अर्जित हुई हैं।
 

चरित्रांकन

कहानी में पात्रों का सही चयन और उनका सही चित्रांकन अति आवश्यक है क्योंकि कहानी एक वनस्थली नहीं एक गुलदस्ता है और इसमें चरित्रांकन को अधिक अवकाश नहीं होता और न ही अधिक पात्र खप सकते हैं। इनकी कहानियों के पात्र जीवन से चुने गये हैं जिनमें नारी पात्रों की अधिकता है। अपने पात्रों की विभिन्न परिस्थितियों, समस्याओं की पैनी पकड़ ऊषा प्रियम्वदा में है। इसलिए इन्होंने बदलती हुई परिस्थितियों, समस्याओं और भावनाओं को अन्तर्द्वन्द्व के माध्यम से अपने पात्रों में उभारा है पात्रों का चरित्र-चित्रण भी इन्होंने बड़े मनोयोग से किया है। पात्र स्वाभाविक है, हमारे आस-पास के जीवन में छितराये हुए दिखायी देते हैं। विदेशी प्रभाव की कुछ संस्कारगत वर्जनाओं को तोड़ सैक्स की स्वीकृति देने वाली कहानियाँ भले ही इसके अपवाद हों। 

सम्वाद या कथोपकथन

कथोपकथन की आवश्यकता कहानियों में सजीवता और यथार्थता को उभारने के लिए पड़ती है। कथोपकथन कहानी की जान हैं। इसके पात्र और प्लान्ट दोनों का सुन्दर विकास होता है। परन्तु कथोपकथन स्वाभाविक होना चाहिए। ऊषा जी की कहानियाँ सम्वाद की दृष्टि से पूर्णतः सफल है। उनकी कहानियों के सम्वाद प्रायः संक्षिप्त, मार्मिक तथा भावाभिव्यंजक है। वे पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं के उद्घाटन में भी पूर्ण सक्षम रहे हैं। 'वापसी' कहानी का यह सम्वाद गजाधर बाबू की विवशता का सही चित्र उभार देता है-

“बि ही, चाय तो फीकी है। 
'लाइए चीनी और डाल दूँ।' बसन्ती बोली ! 
“रहने दो, तुम्हारी अम्मा जब आयेगी, तभी पी लूँगा।" 

देशकाल वातावरण

कहानी में वातावरण इस प्रकार उभरना चाहिए कि कथानक के स्वाभाविक विकास में बाधा न पड़े, साथ ही उसका वर्णन भी आवश्यकता से अधिक न हो कि मुख्य कथा से ही ध्यान हट जाय। कहानी में लम्बे प्रकृति-वर्णन तथा किसी वातावरण (स्थल आदि का) सविस्तार वर्णन अनावश्यक है। इससे कहानी का कलात्मक सौन्दर्य बाधित हो जाता है। ऊषा प्रियम्वदा की कहानियों में देशकाल तथा वातावरण की अनुपम सृष्टि हुई है। एक समीक्षक का कथन है- “ आज के पारिवारिक वातावरण की यथार्थ अभिव्यक्ति करने में ऊषा जी का कोई प्रतिद्वन्द्वी ही नहीं है। वस्तुतः यथार्थ की पकड़ तो उनकी गहरी है ही, पारिवारिक जीवन में नित्य होने वाले परिवर्तनों, रूढ़ियों के तिरस्कार एवं नवीन मूल्यों में प्रवेश को उन्होंने अत्यन्त जागरुक खुली दृष्टि से देखा परखा है, जो कहानी में पूर्ण लेखकीय संवेदना के साथ उभवा है। डॉ. छविनाथ त्रिपाठी के अनुसार — “कहानियों की समस्यायें ज के मानसिक और बाध्य जीवन से सम्बन्ध रखती हैं और जीवित रूप में उपस्थित की गई है। एक सहज और स्वाभाविक नारी-सुलभ मर्यादा के कारण, दृष्टिकोण और उसकी कलात्मक, अभिव्यक्ति पर जो प्रभाव पड़ना चाहिए, उसका भी दर्शन होता है।
 

भाषा शैली

भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा ही है और भावों की प्रभावपूर्ण एवं कलात्मक अभिव्यक्ति को पद्धति ही शैली है। कहानी में भाषा-शैली का विशेष महत्व है। ऊषा प्रियम्वदा की भाषा सुन्दर परिचित पारिवारिक भाषा है, वह परिनिष्ठित खड़ी बोली है। साथ ही प्रांजलता ने उसे दुरूह नहीं बनाया है। सर्वत्र एक सहज व्यावहारिकता का समावेश उनकी कहानियों की प्रमुख विशेषता रही है।
 
उनकी कहानियों का शिल्प परिपक्व है। वह भार विहीन और आकर्षक है। कहानियों को कथोपकथन शैली से विकसित करना लेखिका की कला है। जिसमें यत्र-तत्र सूक्ष्म व्यंग्य का समावेश कहानी लेखिका के बौद्धिक विकास का परिचायक है। डॉ. छविनाथ त्रिपाठी ने लिखा है कि "इनकी कहानियों की अभिव्यक्ति सहज और स्वाभाविक है तथा शैली और शिल्प की दृष्टि से उसमें किसी प्रकार की उलझन नहीं है। उन्मादपूर्ण भावुकता के अभाव में भी अनुभूति के छोटे-छोटे बिम्ब चित्र उपलब्ध होते हैं।'
 

उद्देश्य

ऊषा प्रियम्वदा की कहानियों का उद्देश्य नारी मनोविज्ञान का चित्रण है। इसका विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है- 
  • नयी नारी - ऊषा प्रियम्वदा की अधिकांश कहानियों का विषय आधुनिक परिवेश में उगती नयी नारी है-ऐसी नारी जो शिक्षित है, प्रबुद्ध है और अपने अधिकारों को पहचान रही है। इन्होंने प्रायः स्कूल-कॉलेज की अध्यापिकाओं को अपनी कहानी का केन्द्र बनाया है, क्योंकि उसके माध्यम से ये आज की नारी की बहुत सी समस्याओं को हमारे सामने रख सकती हैं। हो सकता है कि इस दिशा में इनका ज्ञान अधिक हो; पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि आधुनिक नारी की सभी प्रकार की कुण्ठाओं का विश्लेषण लेखिका ने बिना किसी प्रकार की झिझक के किया है। 
  • जटिल स्वभाव का चित्रण - अपनी रोमांटिक कहानियों में नारी के अत्यन्त जटिल स्वभाव का विश्लेषण करते हुए उन्होंने उसके अकेलेपन को पकड़ने का सफल प्रयास किया है। इनके कोई पुरुष पात्र भी प्रेम की मनोग्रन्थि के कारण अजनबीपन, अलगाव और सूनेपन की भावना से ग्रस्त और पस्त हैं। इनके अनुसार भोग जीवन की वेदना को भुलाने का को उपचार नहीं है। सुख के चरम क्षण के भीतर भी असफल प्रेम की स्मृति का स्पन्दन बराबर बना रहता है। इस प्रकार की रचनाओं में 'कितना बड़ा झूठ', 'मोहबन्ध', 'पिघलती हुई बर्फ', 'टूटे हुये' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। देशी-विदेशी वातावरण में प्रस्तुत की गयी ये कहानियाँ आज के प्राणी के मनोविज्ञान को गहराई से रेखांकित करती हैं। 
  • निगूढ़तम सत्य का उद्घाटन - ऊषा प्रियम्वदा ने नारी हृदय के निगूढ़तम सत्य को सहज रूप से ग्रहण कर से स्वाभाविक अभिव्यक्ति दी है। इनकी कहानियाँ केवल वही कम प्रभावशीलता हुई हैं जहाँ वे एक रेखाचित्र का रूप धारण कर लेती हैं पर जहाँ मूल संवेदना सशक्त है और ठीक से निर्मित हो पायी है वहाँ इनकी कहानी अलग चमक उठी है। इन कहानियों में 'वापसी' तो ऐसी है जो इन्हें सम-सामयिक साहित्य में सफलतम कहानीकारों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा रख सकेगी। 

उपसंहार 

इस संक्षिप्त विवेचन के बाद संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि कोमल संवेदनाओं की व्यंजना के लिए रम्य प्राकृतिक दृश्यों, रंग गद्य के प्रसाधनों तथा उपयुक्त प्रतीकों का गुंफन, इनकी कला को दीप्ति प्रदान करता है।उषा प्रियंवदा की कहानियां समकालीन हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। उनकी कहानियों ने महिलाओं के लेखन को एक नई दिशा दी है और समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई है।

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