काव्य में प्रतीक का अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषता और महत्व

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काव्य में प्रतीक का अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषता और महत्व प्रतीक काव्य का एक महत्वपूर्ण अंग है जो कवि को अपने विचारों को अधिक गहरा और प्रभावी ढंग से

काव्य में प्रतीक का अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषता और महत्व


प्रतीक काव्य का एक महत्वपूर्ण अंग है जो कवि को अपने विचारों को अधिक गहरा और प्रभावी ढंग से व्यक्त करने में मदद करता है। यह एक ऐसी साहित्यिक युक्ति है जिसके माध्यम से कवि किसी वस्तु, व्यक्ति या घटना को उसके वास्तविक अर्थ से परे किसी अन्य अर्थ के लिए प्रस्तुत करता है।

पाश्चात्य जगत् में सन् 1870 ई. तथा सन् 1885 ई. के मध्य कला और साहित्य के क्षेत्र में प्रतीकवादी आन्दोलन का जन्म हुआ, जिससे प्रतीकवाद नामक विशिष्ट प्रवृत्ति सामने आयी । परिणामतः कवियों एवं चित्रकारों ने बाह्य जगत् और जीवन का वास्तविक चित्रण छोड़कर प्रतीकात्मक सन्दर्भों द्वारा अपने काल्पनिक आदर्शों को व्यक्त करना प्रारम्भ कर दिया। रहस्यवादी एवं आदर्शवादी चिन्तकों ने भी इससे प्रेरणा ली। कॉलरिज तथा इमर्सन प्रतीकवादी चिन्तन के मूलाधार माने जाते हैं। इमर्सन ने प्रतीक के संदर्भ में लिखा है कि "हम स्वयं प्रतीक हैं और प्रतीकों के उत्पादक भी।" जीन मोरे आस ने कहा है कि प्रतीकवाद ही ऐसा शब्द है, जो कला की सर्जनात्मक प्रवृत्ति को व्यक्त करता है। अलबर्ट ओरिएंट ने प्रतीकवाद को स्पष्ट करते हुए कहा है कि किसी भी कृति के आवश्यक तत्त्वों में प्रतीकात्मकता का होना आवश्यक है। 

प्रतीकवादी आलोचना के प्रमुख समर्थकों में एडगर एलन पो, बादलेयर, मलार्मे, रिम्बो आदि का नाम लिया जाता है। प्रतीकवाद का प्रभाव विश्व के विभिन्न देशों में रहा। भारतीय वाङ्मय के सभी भाषाओं के कवियों एवं साहित्यकारों ने प्रतीकों का भरपूर प्रयोग किया है।
 

प्रतीक का स्वरूप

प्रतीक-पद्धति का सर्वप्रथम दर्शन मिस्र की लिपियों में प्र होता है। प्रतीक से अभिप्राय किसी वस्तु की ओर इंगित करने वाला न तो संकेत मात्र है और न ही उसका स्मरण दिलाने वाला ही है, बल्कि यह उसका चित्र या प्रतिरूप ही है अथवा प्रतीक किसी वस्तु का जीता-जागता एवं पूर्ण क्रियाशील प्रतिनिधि है। प्रतीक के माध्यम से संदर्भित वस्तु के भावों को सरलतापूर्वक व्यक्त किया जा सकता है। प्रतीक के रूप को स्पष्ट करने के लिए आलोचकों ने वैदिक परम्परा से लेकर आज तक की विविध धारणाओं को संयोजित किया है। प्रतीक अपने रूप में अप्रस्तुत का संकेत है, जिसमें प्रस्तुत के माध्यम से अधिक अर्थ और संस्कृति का संकेत अन्तर्निहित है। संस्कृति की परम्परा जिस प्रकार आगे की ओर अग्रसर होती रहती है, प्रतीकों का रूढ़त्व भी उतना ही प्रौढ़ होता रहता है। ज्यों-ज्यों साहित्य विकास की दिशा में आगे बढ़ता है त्यों-त्यों प्रतीक भी अपने नये-नये रूप का विकास करता रहता है।
 
डॉ. लक्ष्मीनारायण सुधांशु ने अपनी पुस्तक 'काव्य में अभिव्यंजनावाद' में प्रतीक के संदर्भ में लिखा है कि-“प्रत्येक भाषा का अपना अलग-अलग प्रतीक-विधान होता है। प्रत्येक भाषा में कुछ ऐसे शब्द होते हैं, जिनसे केवल अर्थ की अभिव्यक्ति ही नहीं होती, वरन् भावनाओं का उद्बोधन भी होता है। जिन वस्तुओं में तनिक निजी विशेषता का आकर्षण तथा जिन पर सांस्कृतिक वासना का प्रभाव पड़ा है, वे शब्द हमारे काव्य में प्रतीक का काम करते हैं। प्रतीकों के स्वरूप में कुछ-न-कुछ ऐसी व्यंजना रहती है, जिससे भावनाओं के विकास के संकेत मिलते हैं। ऐसे प्रतीक मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं- भावोत्पादक तथा विचारोत्पादक ।"
 
संस्कृत के वैदिक वाङ्मय से लेकर आज की आधुनिक भाषाओं तक में प्रतीक के नये-नये रूपों का प्रयोग साहित्यकारों ने अपने काव्य में कथ्य को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए किया है, फिर भी अधिकांश आलोचकों का मानना है कि प्रतीक-विधान पाश्चात्य आलोचना की देन है। यह बात और है कि प्रतीक को हिन्दी एवं अँगरेज़ी साहित्य के अधिकांश विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है। 

प्रतीक की परिभाषा

प्रतीक के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत व्यक्त किये हैं - 
  • डॉ. नगेन्द्र- प्रतीक एक प्रकार से रूढ़ उपमान का ही दूसरा नाम है। जब उपमान स्वतंत्र न रहकर पदार्थ विशेष के लिए रूढ़ हो जाता है, तो वह प्रतीक बन जाता है। 
  • हिन्दी - साहित्य-कोश - "प्रतीक शब्द का प्रयोग उस दृश्य वस्तु के लिए किया जाता है, जो किसी अदृश्य, अगोचर या अप्रस्तुत विषय का प्रतिनिधित्व उसके साथ अपने साहचर्य के कारण करती है अथवा कहा जा सकता है कि किसी अन्य स्तर की समानरूप वस्तु द्वारा किसी अन्य स्तर के विषय का प्रतिनिधित्व करने वाली वस्तु प्रतीक है।" 
  • डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त-"किसी भी शब्द के प्रचलित अभिधेय अर्थ को ग्रहण करते भी जब उसके द्वारा किसी अन्य अर्थ की सूचना दी जाय, तो उसे प्रतीक कहते हैं। 
  • आर्थर सिमन्स-"प्रतीकवाद के विना साहित्य. नहीं होता, निश्चय ही भाषा भी नहीं होती। शब्द अपने आपमें प्रतीक ही तो है।" 
  • रजनीशप्रकाश तिवारी-"अपने रूप, गुण, कार्य या विशेषताओं की समानता या प्रत्यक्षता के आधार पर जब कोई वस्तु या कार्य अप्रस्तुत, वस्तु, भाव-विचार, क्रिया-कलाप, जाति, संस्कृति आदि का संकेत करता हुआ प्रकट किया जाता है, तब वह प्रतीक कहलाता है।" 
  • डॉ. देवीशरण रस्तोगी - "किसी देवता का प्रतीक सामने आने पर जिस प्रकार उसकी स्वरूप और उसके विभूति की भावना मन में आ जाती है, उसी प्रकार काव्य में आयी हुई वस्तुएँ विशेष मनोविकारों या भावनाओं को जागृत कर देती हैं, जैसे कमल माधुर्यपूर्ण कोमल सौन्दर्य की भावना जागृत कर देता है। " 


उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रतीक एक ऐसा शब्द-चिह्न है, जो किसी सूक्ष्म वस्तु या विचार को साकार करने के लिए प्रयुक्त होता है। प्रतीक शब्द का अर्थ, संकेत, चिह्न, प्रतिरूप आदि होता है। हमारे जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रतीकों का प्रयोग विभिन्न संदर्भों में होता है, यथा- राष्ट्र के लिए ध्वजा-पताका, धार्मिक क्षेत्र में मूर्तियाँ आदि ये सभी प्रतीक चिह्न हैं, बैल को धर्म को प्रतीक माना जाता है, गाय को पृथ्वी का । साहित्य-क्षेत्र में भी भावों एवं विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतीकार्थक शब्द इसी प्रकार हैं। यदि किसी मृत शरीर को देखकर यह कहा जाय कि 'पक्षी उड़ गया, पिंजड़ा खाली पड़ा है', तो यहाँ पक्षी प्राण तथा पिजड़ा शरीर का प्रतीक है। 

काव्य में प्रतीकों का प्रयोग

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने बतलाया है कि प्रतीकों का प्रयोग निम्नवत् लक्ष्यों की पूर्ति के लिए होता है, यथा- 
1. सूक्ष्म भाव, विचार या कल्पना को स्थूल रूप में प्रस्तुत करना। 
2. अपरिचित वस्तु का परिचय किसी परिचित आधार पर देना । 
3. अप्रस्तुत का वर्णन करके पाठक के हृदय में प्रस्तुत विषय में जिज्ञासा जागृत करना । 
4. विषय-वस्तु की व्यंजना अभिधा में न करके ध्वनि या व्यंग्य रूप में करना। 
5. एक ही शब्द, वाक्य, प्रसंग, कहानी या काव्य के द्वारा दो विषयों का प्रतिपादन एक साथ करना।
 
कुछ आलोचकों का कहना है कि कवि या साहित्यकार की भावाभिव्यक्ति या भाषा की अभिधा शक्ति पूर्णतया कुंठित हो जाती है तभी प्रतीकों का प्रयोग करता है, जबकि सर्वत्र ऐसा नहीं है। भावाभिव्यक्ति को और भी अधिक सबल बनाने के लिए ही प्रतीकों का प्रयोग होता है, लेकिन प्रतीकों का अधिक प्रयोग भावाभिव्यक्ति को अवरुद्ध अवश्य कर देता है।
 

काव्य में प्रतीकों का महत्त्व

भारतीय काव्य में प्रतीक का प्रयोग चिरकाल से होता आ रहा है, यथा वैदिक साहित्य से लेकर अब तक जीव और
काव्य में प्रतीक का अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषता और महत्व
ब्रह्म को विविध प्रतीकों के माध्यम से समझाने का प्रयास साहित्यकारों ने किया है। कबीर की उलटबांसियों, सूरदास के कूट पदों में प्रतीकों का प्रयोग अपने आप में विशेष है। प्रेमाख्यानक कवियों का पूरा काव्य ही प्रतीकार्थक बना हुआ है, यथा- पदमावत में रत्नसेन, पदमावती क्रमशः जीव एवं ब्रह्म के प्रतीक हैं। इसी तरह रीतिकाल एवं आधुनिक काल के प्रायः सभी कवियों ने अपने काव्य में अवसरानुकूल विविध प्रतीकों का प्रयोग कर हृदयग्राही बनाने का प्रयास किया है। आधुनिक काल के छायावादी एवं प्रयोगवादी कवियों ने अपने काव्य में प्रतीकों का प्रयोग इतना अधिक किया है कि उन्हें प्रतीकवाद की भी संज्ञा दी जा सकती है। छायावादी कविताओं से कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं-
 
अबे अबे सुन बे गुलाब, 
भूल मत गर पायी तूने खुशबू रंगो आब । 
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट । 
डाल पर इतरा रहा कैपिटलिस्ट।
 
X X X X 
झंझा झकोर गर्जन है बिजली है नीरदमाला । 
पाकर इस शून्य हृदय को, सबने आ घेरा डाला।
 
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि- हिन्दी में छायावाद शब्द का जो व्यापक अर्थ रहस्यवादी रचनाओं के अतिरिक्त और प्रकार की रचनाओं के सम्बन्ध में भी ग्रहण हुआ है वह इसी प्रतीक शैली के अर्थ में। छायावाद का सामान्यतः अर्थ हुआ- “प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन।" हिन्दी साहित्य प्रतीकों से भरा हुआ है। प्राय: प्रत्येक शब्द दूसरे के लिए प्रतीक के अर्थ में प्रयुक्त किया जा सकता है, यथा कुम्भकर्ण बहुत सोने वाले के अर्थ में, रावण या कंस क्रूर व्यक्ति के अर्थ में प्रतीक रूप लिये जा सकते हैं। इसी तरह से चन्द्रमा, कमल, उषा, सायं, रजनी, बादल, तारे, सिंह, गीदड़ आदि विविध प्रतीक विविध स्थानों पर आवश्यकतानुसार प्रयुक्त होते हैं। स्पष्ट है कि हिन्दी काव्य के लिए प्रतीकों का महत्त्व अक्षुण्ण है। प्रतीक और काव्य परस्पर इतने समाविष्ट हो गये हैं कि पृथक् कर पाना संभव नहीं। 

डॉ. देवीशरण रस्तोगी ने अपने मतानुसार काव्य में प्रतीकों के महत्त्व पर प्रकाश डाला है, यथा- प्रतीकों के माध्यम से काव्य का प्रतिपाद्य विषय सरल, सहज, बोधगम्य बन जाता है। भक्तिकालीन संतकवियों से लेकर आधुनिककाल के कवियों के काव्य इस बात के प्रमाण हैं। विषय की व्याख्या प्रतीकों के माध्यम से अधिक सहजता से हो जाती है, यथा- इस संसार में रह रहे जीव की आकुलता, विवशता, मलीनता आदि को देखकर कबीर ने लिखा कि 'काहे रे नलिनी तू कुम्हिलानी।' में नलिनी जीव का ही प्रतीक है। प्रतीकों के द्वारा ही प्रतिपाद्य विषय स्वीकृति के योग्य बनता है। कवि प्रतीकों का प्रयोग करके अपनी बात को प्रामाणिक बनाने का प्रयास करता है। प्रगतिवादी, प्रयोगवादी काव्य इसके उदाहरण हैं। हिन्दी के छायावादी कवियों में पलायनवादिता अधिक पायी जाती है, उन्होंने अपनी भावाभिव्यक्ति प्रतीकों के माध्यम से ही की है। कभी-कभी कवि प्रतीकों के माध्यम से ही अपनी मनोगत सुषुप्त भावनाओं की अभिव्यक्ति करता है। साथ ही प्रतीकों के आधार पर मनोहर रूपक-विधान भी करता है। रामचरितमानस, पद्मावत, कामायनी आदि इसके प्रमाण है। अन्ततः कहा जा सकता है कि प्रतीक-विधान काव्यों में प्रयुक्त किया जाने वाला वह तत्त्व है, जो काव्य को सजाने-सँवारने के साथ-साथ दुरूह भावों को सहृदय पाठकों के लिए बोधगम्य बना देता है। स्पष्ट है कि प्रतीक का प्रयोग काव्य-रचना के क्षेत्र में अर्थ-संदर्भों की व्यंजना के लिए किया जाता है। वह काव्य के शिल्प-पक्ष को समृद्ध करता है और प्रासंगिक माना जाता है। काव्य में प्रतीकों का महत्त्व अक्षुण्ण है। 

उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि वैदिक काल से लेकर आज आधुनिक काल तक के कवियों एवं साहित्यकारों ने अपनी कृतियों में किसी-न-किसी रूप में प्रतीकों का प्रयोग किया है। प्रतीक संक्षिप्त एवं सांकेतिक होने के साथ-साथ सदैव विशिष्ट वस्तुओं का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका अर्थ परम्परामूलक होने के कारण सबके लिए समान होता है। प्रतीक परम्परा-सापेक्ष एवं एकार्थ-व्यंजक होते हैं। डॉ. नगेन्द्र ने प्रतीक के संदर्भ में लिखा है कि प्रतीक एक प्रकार का अचल बिम्ब है, जिसके आयाम सिमटकर अपने भीतर बन्द हो जाते हैं।

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