भारतीय काव्यशास्त्र का उद्भव और विकास

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भारतीय काव्यशास्त्र का उद्भव और विकास भारतवर्ष में काव्यशास्त्र की उत्पत्ति विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा पहले हुई। काव्य की समीक्षा अत्यन्त प्राचीन

भारतीय काव्यशास्त्र का उद्भव और विकास


भारतवर्ष में काव्यशास्त्र की उत्पत्ति विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा पहले हुई। काव्य की समीक्षा अत्यन्त प्राचीन काल से होती रही है, किन्तु इसका प्रारम्भ कब हुआ, इस विषय से सम्बन्धित न तो कोई प्रमाण उपलब्ध होता है और न ही विद्वान् इस संदर्भ में एकमत ही हैं। फिर भी अधिकांश विद्वानों का मानना है कि भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा कम-से-कम ढाई हजार वर्ष पुरानी है। इसकी सर्वप्रथम प्राचीन उपलब्ध रचना आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र को माना जाता है। "राजशेखर ने अपने ग्रन्थ 'काव्य-मीमांसा' के आरम्भ में इसके उदय की चर्चा की है। उसके पूर्व इसकी कहीं चर्चा नहीं है। 'काव्य-मीमांसा' के अनुसार “भगवान् कृष्ण ने इसका उपदेश ब्रह्मा, विष्णु आदि अपने चौंसठ शिष्यों को दिया और ब्रह्मा ने इसका उपदेश अपने मानस-जन्मा विद्यार्थियों को दिया। इसमें सर्वप्रथम शास्त्रवेत्ता सरस्वती पुत्र सारस्वतेय थे । प्रजापति ने प्रजा की हित-कामना से उन्हें काव्य-विद्या की प्रवर्तना के लिए नियुक्त किया। उन्होंने इस विद्या को अट्ठारह भागों में विभक्त कर अपने अट्ठारह शिष्यों को पढ़ाया-- इन्हीं शिष्यों में भरतमुनि का नाम भी आता है।" भरतमुनि कृत नाट्यशास्त्र की रचना ईसा पूर्व पाँचवीं, छठीं शताब्दी की मानी जाती है। “डॉ. बलदेव उपाध्याय ने इसका काल विक्रम पूर्व द्वितीय शतक से लेकर द्वितीय शतक विक्रमी तक माना है।" नाट्यशास्त्र पर अनेक व्याख्याएँ हुई हैं। व्याख्याकारों में उद्भट, भट्टलोल्लट, आचार्य शंकुक, भट्टनायक, राहुल, भट्टतौत, अभिनवगुप्त, कीर्तिधर आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 

भारतीय काव्यशास्त्र विकास क्रम

भारतीय काव्यशास्त्र की उपलब्ध परम्परा में सर्वप्रथम सर्वांगपूर्ण ग्रन्थ आचार्य भरतमुनि का नाट्यशास्त्र है। तब से लेकर आज तक अधिकांश आचार्य एवं विद्वान् हुए, जिन्होंने इसकी परम्परा को आगे बढ़ाने का स्तुत्य कार्य किया। "भरतमुनि द्वारा उद्भावित, भामह, दण्डी व वामन द्वारा अंशत: स्वीकृत एवं आनन्दवर्धन और अभिनवगुप्त द्वारा पूर्ण तथा प्रतिष्ठित भारतीय काव्यशास्त्र का आज विश्व काव्यशास्त्र में गौरवपूर्ण स्थान है।" भारतीय काव्यशास्त्र के इस ऐतिहासिक विकासक्रम के विद्वानों ने इसे विविध ढंग से अध्ययनोपयोगी बनाया है। यहाँ पर हम अध्ययन की सरलता की दृष्टि से डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त द्वारा किया काल-विभाजन प्रस्तुत कर रहे हैं। डॉ. गुप्त ने भारतीय काव्यशास्त्र को प्रारम्भ से लेकर अब तक के कालक्रमानुसार पाँच भागों में बाँटा है। उन्होंने अपनी पुस्तक 'भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य- सिद्धान्त' में उन कालों का नामकरण निम्नवत् ढंग से किया है-
  • स्थापना काल- पाँचवीं सदी के अन्त तक 
  • नव अन्वेषण काल- छठीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक 
  • संशोधन काल- बारहवीं सदी से सत्रहवीं सदी तक 
  • पद्यानुवाद काल- सत्रहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी के मध्य तक 
  • नवोत्थान काल- उन्नीसवीं सदी के अंतिम चरण से अब तक 

उपर्युक्त पाँचों कालों का संक्षिप्त विवेचन निम्नवत है- 

स्थापनाकाल

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने भारतीय काव्यशास्त्र के ऐतिहासिक विकास क्रम के प्रथम काल को स्थापनाकाल कहा है। इस काल के सदर्भित ग्रंथों में मात्र भरतमुनि के नाट्यशास्त्र का नाम आता है। अधिकांश विद्वानों ने इस बात को स्वीकार भी किया है कि अध्य भरतमुनि के पूर्व इस परम्परा का कोई प्रमाण नहीं मिलता, इसलिए सर्वप्रथम प्राचीन उपलब्ध रचना भरतमुनि का नाट्यशास्त्र ही माना जायेगा। भारतीय काव्यशास्त्र की स्थापना का श्रेय आचार्य भरतमुनि को ही है। उन्होंने अपने नाट्यशास्त्र में नाट्यकला एवं उससे सम्बन्धित अन्य कलाओं के विभिन्न तत्त्वों पर प्रकाश डाला है। भारतीय काव्यशास्त्र के लिए उनकी सबसे बड़ी देन रससिद्धान्त है। इसके लिए उन्होंने कहा है कि "विभावानुभाव-व्यभिचारि-संयोगाद्रस- निष्पत्तिः।" अर्थात् विभाव, अनुभाव एवं व्याभिचारी भावों के संयोग से ही रस-निष्पति होती है। 

भरतमुनि के परवर्ती व्याख्याकारों ने इस सूत्र वाक्य का अपने-अपने ढंग से पृथक्-पृथक् विवेचन प्रस्तुत किया है। भट्टलोल्लट, भट्टनायक, आचार्य शंकुक एवं अभिनवगुप्त का नाम इस संदर्भ में विशेष रूप से लिया जाता है। यद्यपि उपर्युक्त पंक्तियों में भरतमुनि ने मात्र विभाव, अनुभाव एवं व्याभिचारिभाव का ही उल्लेख किया है, किन्तु अन्यत्र उन्होंने स्थायी भाव को ही रस की संज्ञा प्रदान की है। उन्होंने पुनः लिखा है कि- “नानाभावोपहिता अपि स्थायिनो भावा रसत्व- माप्नुवन्ति विभावानुभावव्यभिचारिपरिवृतः स्थायीभावो रसं लभते नरेन्द्रवत्। " अर्थात् अनेक भावों से युक्त स्थायीभाव ही रसावस्था को प्राप्त होते हैं। इस तरह आचार्य भरत ने रससिद्धान्त के अन्तर्गत नाट्यरस का ही विशिष्ट विवेचन प्रस्तुत किया है। समयान्तर में भरत के इस रस-सूत्र पर विस्तारपूर्वक विचार हुआ तथा समालोचकों के मध्य विवाद का विषय बना रहा, फिर भी काव्यशास्त्र के आधारस्तम्भ आचार्य भरतमुनि ने रस-सिद्धान्त के रूप में जिस महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त को प्रस्तुत किया वह आज भी प्रचलित एवं सर्वमान्य है।
 

नव अन्वेषणकाल

भारतीय काव्यशास्त्र की आधारशिला भले ही पाँचवीं शताब्दी के पूर्व आचार्य भरत द्वारा स्थापित कर दी गयी थी, किन्तु उसका सर्वतोमुखी विकास छठीं शती से ग्यारहवीं शती तक हुआ। इस काल को डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने अन्वेषणकाल की संज्ञा दी है। उन्होंने बलदेव उपाध्याय के भारतीय साहित्यशास्त्र के आधार पर लिखा भी है कि - "इसी काल में एक ओर भामह (छठी शती), दंडी (सातवीं शती), वामन (आठवीं शती), आनन्दवर्द्धनाचार्य (दसवीं शती) एवं क्षेमेन्द्र (ग्यारहवीं शती) जैसे मौलिक चिन्तक उत्पन्न हुए, जिन्होंने साहित्य के नये-नये तत्त्वों का अन्वेषण करते हुए अनेक नवीन सिद्धान्तों की स्थापना की, तो दूसरी ओर भट्टलोल्लट (आठवीं-नवीं शती) शंकुक (नवीं शती), भट्टनायक (नवीं-दसवीं शती), अभिनवगुप्त (दसवीं-ग्यारहवीं शती) और भोजराज (ग्यारहवीं शती) जैसे प्रतिभाशाली व्याख्याताओं का आविर्भाव हुआ जिन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों की स्थापनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण एवं तीक्ष्ण खण्डन-मण्डन करते हुए भारतीय साहित्य को व्यापक एवं गम्भीर रूप प्रदान किया।"
 
भारतीय काव्यशास्त्र का उद्भव और विकास
भारतीय काव्यशास्त्र के इस नव-अन्वेषणकाल में साहित्य-सम्बन्धी नवीन सिद्धान्तों के आविष्कार के साथ-साथ परम्परागत मतों की नवीन व्याख्याएँ भी प्रस्तुत हुईं। साहित्य-सम्बन्धी नवीन सिद्धान्तों में पाँच सिद्धान्त सामने आये, यथा- अलंकार सिद्धान्त, रीति सिद्धान्त, ध्वनि सिद्धान्त, वक्रोक्ति सिद्धान्त तथा औचित्य सिद्धान्त। “यद्यपि ये सिद्धान्त पर्याप्त मौलिक हैं, किन्तु हमें यहाँ इस तथ्य को न भूलना चाहिए कि इनमें से अधिकांश का प्रेरणा-स्रोत भरतमुनि का नाट्यशास्त्र ही है। अलंकार सिद्धान्त के प्रणेता आचार्य भामह है। इन्होंने “ने कान्तमपि निर्भूष विभाति वनितामुखम्" के आधार पर काव्य में अलंकार की महत्ता घोषित की। रीति-सिद्धान्त के प्रणेता वामन ने 'रीतिरात्मा काव्यस्य' कहकर साहित्यशास्त्र में एक नूतन सम्प्रदाय की स्थापना की। ध्वनि सिद्धान्त के प्रवर्तक आचार्य आनन्दवर्धन हैं। इनके अनुसार जहाँ काव्य में वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ से अधिक रमणीय और चमत्कारपूर्ण अर्थ व्यंजित हो वहाँ ध्वनि की सत्ता मान्य है। 'वक्रोक्तिः काव्यस्य जीवितम्' कहकर आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति-सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की। इसी तरह आचार्य क्षेमेन्द्र ने औचित्य को रस का मूल आधार मानते हुए उसे ही सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया। इस पाँचों सिद्धान्तों के माध्यम से आचार्यों ने काव्य के पाँच पक्षों पर बल दिया है। 

“अलंकार में काव्य-शैली की बाह्य साज-सज्जा पर, रीति में काव्य के स्वाभाविक गुणों, जैसे- शुद्धता, संक्षिप्तता, स्पष्टता, नादसौन्दर्य आदि पर, ध्वनि में उसके अर्थ की व्यंग्यात्मकता पर, वक्रोक्ति में अर्थ की लाक्षणिकता पर और औचित्य में विषय और शैली के पारस्परिक संतुलन पर सर्वाधिक बल दिया गया है। इस दृष्टि से प्रथम चार सिद्धान्तों को रूपवादी तथा अन्तिम को वस्तुवादी कहा जा सकता है।"
 
इसी काल में आचार्य भट्टलोल्लट, शंकुक, भट्टनायक तथा अभिनवगुप्त ने आचार्य भरतमुनि द्वारा प्रतिपादित रससिद्धान्त की पृथक्-पृथक् नवीन व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं। परिणामस्वरूप इन आचार्यों ने भरतमुनि के रससूत्रवाक्य "विभावानुभावव्यभिचारि-संयोगाद्रस-निष्पत्ति:" के आधार पर क्रमशः उत्पत्तिवाद, अनुमितिवाद, भुक्तिवाद एवं अभिव्यक्तिवाद की स्थापना की। इस प्रकार इस काल में भामह आदि आचार्यों द्वारा भरत के रस-सूत्र वाक्य की नवीन व्याख्या प्रस्तुत हुई, जो कि इस काल का महत्त्वपूर्ण कार्य है। इस आधार पर यदि हम इस काल को भारतीय साहित्यशास्त्र का स्वर्णकाल कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। 

संशोधनकाल

भारतीय काव्यशास्त्र के इतिहास में ग्यारहवीं शती से लेकर सत्रहवीं शती तक का काल संशोधनकाल माना जाता है। यह काल ही संशोधन एवं समन्वय का था। इस काल के आचार्यों ने किसी नये सिद्धान्त की स्थापना न करके पूर्व स्थापित सिद्धान्तों में अपने-अपने विचार से यथासम्भव संशोधन एवं समन्वय स्थापित करने का कार्य किया। इस काल के प्रमुख आचार्यों में मम्मट, रुय्यक, हेमचन्द्र, रामचन्द्र गुणचन्द्र, जयदेव, विश्वनाथ, भानुदत्त, जगन्नाथ-जैसे लोगों का नाम लिया जाता है। इनमें पूर्ववर्ती आचार्यों जैसी कट्टरधर्मिता नहीं थी और ये न ही किसी एक सिद्धान्त के पक्षधर थे, बल्कि विभिन्न सिद्धान्तों की उपलब्धियों को स्वीकार कर स्वविवेकानुसार महत्त्व सभी को दिया है। परिणामत: इनके ग्रन्थों में रस, ध्वनि, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति आदि सभी स्थान पा सके हैं। यह बात और है कि किसी को कम महत्त्व मिला है, किसी को अधिक। आचार्य मम्मटकृत काव्य-प्रकाश, आचार्य रुय्यक-कृत अलंकार-सर्वस्व, आचार्य हेमचन्द्र-कृत काव्यानुशासन, जयदेव-कृत चन्द्रालोक, विश्वनाथ-कृत सहित्यदर्पण, पंडितराज जगन्नाथ-कृत रसगंगाधर आदि इस काल के प्रमुख ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों में कृतिकारों ने जो समन्वयवादिता दिखलाने का प्रयास किया है उसमें मौलिकता का अभाव तो है ही, साथ ही विवेचन की गम्भीरता एवं विश्लेषण की सूक्ष्मता भी नहीं दिखलायी पड़ती है, फिर भी उनमें जो सरलता एवं सहजता है, वह इस काल की देन है, जिससे सामान्य पाठक भी लाभान्वित हो सके।
 

पद्यानुवादकाल

सत्रहवीं शती से लेकर उन्नीसवीं शती तक के काल को डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने भारतीय काव्यशास्त्र के इतिहास का पद्यानुवाद काल कहा है। इस काल में भारतीय काव्यशास्त्र में प्रादेशिक भाषाओं का प्रभुत्व हो गया। यह काल हिन्दी साहित्य के इतिहास का रीतिकाल था। रीतिकालीन आचार्यों ने पद्य-शैली में काव्यशास्त्र-सम्बन्धी ग्रंथों का प्रणयन किया। ऐसे आचार्यों में केशवदास, चिन्तामणि, कुलपति, सोमनाथ, भिखारीदास, प्रतापसाहि आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इसलिए हिन्दी की दृष्टि से इसे पद्यानुवादकाल कहना न्याय संगत है। जिस तरह काव्यशास्त्रीय विवेचन का कार्य पूर्व के संस्कृताचार्यों ने किया उसका इन कवियों में अभाव रहा, क्योंकि ये कवि पहले थे आचार्य बाद में। सम्भवत: इसीलिए शास्त्रीय विवेचन का कार्य ये उतनी सफलता से न कर सके जितना कि संस्कृताचार्यों ने किया था। इस सन्दर्भ में डॉ. भगीरथ मिश्र का कथन अक्षरश: सत्य प्रतीत होता है कि "यह बात स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि हिन्दी के अधिकांश लेखकों (कवियों) का लक्षण भाग अस्पष्ट अथवा अपूर्ण है।....... ये आचार्यत्व के अयोग्य थे। वे कवि ही प्रधान रूप से हैं और उनका आचार्यत्व या शास्त्रीय विवेचन का प्रयत्न बहुत सफल नहीं है।" ठीक इसी तरह डॉ. सत्यदेव चौधरी ने भी लिखा है कि “चिन्तामणि आदि आचार्यों ने भारतीय काव्यशास्त्र के विकास में कोई योगदान नहीं किया, यह स्पष्ट है। हिन्दी के वर्तमान काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों के निर्माण में भी इनका योगदान नहीं है, यह भी स्पष्ट है।" 

इस काल में हिन्दी आचार्यों के द्वारा लिखे गये लक्षण-ग्रन्थों पर दृष्टिपात करने के पश्चात् कहा जा सकता है कि वे संस्कृताचार्यों के लक्षण-ग्रन्थों के प्रतिबिम्ब मात्र हैं, मूल प्रति नहीं। इस काल के प्रमुख लक्षण-ग्रन्थों में आचार्य केशवदास कृत कविप्रिया, रसिकप्रिया, छन्दमाला, आचार्य चिन्तामणि त्रिपाठी-कृत रसविलास, कविकुलकल्पतरु, आचार्य मतिराम-कृत अलंकारपंचाशिका, ललित-ललाम, रसराज आचार्य देव-कृत भावविलास, काव्यरसायन आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। 

नवोत्थान काल

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने भारतीय काव्यशास्त्र के इस पाँचवें नवोत्थान काल का समय उन्नीसवीं शती के अन्तिम चरण से लेकर आज तक माना है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में यह काल आधुनिक काल के नाम से जाना जाता है। गुप्त जी ने इस काल को भी तीन भागों में बाँट कर अध्ययन किया है- 1. भारतेन्दु-द्विवेदी काल 2. शुक्ल काल 3. शुक्लोत्तर काल । भारतेन्दु-द्विवेदी काल के विद्वानों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, मिश्रबन्धु, डॉ. श्यामसुन्दरदास आदि का नाम लिया जाता है। शुक्लकाल में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा शुक्लोत्तर काल के काव्य-शास्त्रीय विद्वानों में डॉ. गुलाबराय, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी एवं डॉ. नगेन्द्र का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने ग्रन्थ 'नाटक' के माध्यम से प्राचीन एवं नवीन सिद्धान्तों के समन्वय पर बल दिया। ठीक इसी तरह डॉ. श्यामसुन्दरदास, महावीरप्रसाद द्विवेदी आदि ने भी अपने लेखों एवं पुस्तकों के माध्यम से काव्य-सिद्धान्तों का विवेचन किया। इन विद्वानों ने भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की सामग्री को हिन्दी गद्य में प्रस्तुत कर समन्वय की दिशा में संकेत किया है। हाँ, शुक्लयुग में अवश्य ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के द्वारा परम्परागत काव्य-शास्त्र को नया रूप, नया दृष्टिकोण प्राप्त हुआ। उन्होंने आधुनिक कालीन परिस्थितियों के अनुसार रस-सिद्धान्त की अपने ढंग से व्याख्या प्रस्तुत की। 

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने लिखा है कि- इस क्षेत्र में उनकी देन महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने आनन्दवादी रस-सिद्धान्त को नीतिवादिता से समन्वित करते हुए रस की दो कोटियाँ निर्धारित की है। जहाँ हमारा काव्य के आश्रय से तादात्म्य हो जाता है, वहाँ उच्चकोटि की रस-दशा प्राप्त होती है, अन्यथा- नायक के दुष्चरित्र होने की स्थिति में मध्यम कोटि की रसानुभूति होती है। शुक्लोत्तर कालीन विद्वानों में बाबू गुलाबराय एवं आचार्य नन्द- दुलारे वाजपेयी ने भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य-सिद्धान्तों को सरल एवं सुबोध शैली में प्रस्तुत कर परवर्ती अनुसंधित्सुओं का मार्ग प्रशस्त करने का स्तुत्य कार्य किया। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ऐतिहासिक एवं व्यावहारिक समीक्षा प्रस्तुत की। 

डॉ. नगेन्द्र ने भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य-शास्त्र की नवीन एवं विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की जो पूर्णतया आधुनिक एवं मौलिक है। इन विद्वानों के अतिरिक्त आचार्य बल्देव उपाध्याय, श्री रामदहिन मिश्र, डॉ. भगीरथ मिश्र, डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत, डॉ. भोलाशंकर व्यास, डॉ. सत्यदेव चौधरी, डॉ. भगीरथ मिश्र आदि विद्वानों ने भी अपने ग्रन्थों में भारतीय काव्यशास्त्र के विभिन्न पक्षों, रस, अलंकार, ध्वनि, वक्रोक्ति, रीति आदि एवं उनके सिद्धान्तों का विवेचन आधुनिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। 

उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय काव्यशास्त्र आचार्य भरतमुनि द्वारा आविर्भावित होकर भामह, दण्डी जैसे आचार्यों द्वारा पालित-पोषित हुआ। उसका निरन्तर विकास होता गया। संस्कृत से चलकर हिन्दी के क्षेत्र में उसका इतना विस्तार हुआ कि सामान्य पाठक भी सरलता से उससे परिचित हो जाता है, मानो गंगा का समृद्ध पवित्र जल हो जिसका प्रवाह गंगोत्री के निकटस्थ क्षेत्रों में अधिक संकुचित एवं तीव्र होता है, लेकिन ज्यों-ज्यों वह मैदान में आता जाता है त्यों-त्यों उसका फैलाव बढ़ता जाता है और गति मन्द हो जाती है। फलतः श्रद्धालु जन सरलता से उसके पावन-जल का पान एवं स्नान कर अपने को धन्य मानते हैं। डॉ. गुप्त ने कहा भी है कि- “इसमें कोई सन्देह नहीं कि परम्परागत भारतीय साहित्य-शास्त्र हिन्दी में आकर और भी अधिक विकसित एवं प्रौढ हो गया है। 'साहित्य-विज्ञान' के रूप में वह शास्त्रीय रुढ़ियों एवं परम्परागत असंगतियों से मुक्त होकर नये रूप में प्रस्तुत हुआ है। इस प्रकार भारतीय काव्यशास्त्र आज अत्यन्त उन्नत एवं विकसित अवस्था में है।"

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