समाज के प्रति साहित्यकार का दायित्व

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समाज के प्रति साहित्यकार का दायित्व साहित्य मानव जीवन को सुसंस्कृत एवं परिष्कृत करने का एक सशक्त माध्यम हैं सर्जक साहित्य समाज का पथ प्रदर्शक प्रगति

समाज के प्रति साहित्यकार का दायित्व


साहित्य 'सहित' की भावभूमि पर आधारित एक ऐसी विशिष्ट मानवीय सर्जना है, जिसमें समाज का बहुविध रूपायन-चित्रांकन अथवा शब्दांकन होता है. साहित्य के विविध रूप हैं-कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास इत्यादि. इन समस्त विधाओं में समाज का प्रतिबिम्ब विभिन्न रूपान्तर्गत रूपायित होता है. साहित्य-सृजन में तत्कालीन परिवेश एवं साहित्यकार की मनःस्थिति विशिष्ट भूमिका का निर्वाह करती है. इसी लिए साहित्य में परिवेश का आवेश सहज दृष्टिगत होता रहता है. सूर्य की किरणों की भाँति साहित्य भी समाज में चेतना का संचार करता है. साहित्य ज्ञान के अंधकार को दूर करके समाज को आलोकित करता है. साहित्य के उक्त उद्देश्यों की पूर्ति करना साहित्यकार का दायित्व है.
 
साहित्य को सत्यं शिवं एवं सुन्दरम् का त्रिवेणी स्वरूप कहा जाता है. इस त्रिवेणी का आह्वान साहित्यकार का प्रथम दायित्व माना गया है.
 

साहित्य का प्रयोजन

साहित्य का निर्माण क्यों, तथा किसके लिए? यह एक विचारणीय प्रश्न है. इसका उत्तर हमारे संस्कृत साहित्यकारों ने दिया है. आचार्य भामह के अनुसार, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-पुरुषार्थ चटुष्टय, की प्राप्ति साहित्य का प्रयोजन है. काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट ने काव्य के द्वारा-यश, अर्थ, व्यवहार परिज्ञान, अशिव से रक्षा, अलौकिक आनन्दानुभूति तथा कान्तासम्मत उपदेश आदि प्रयोजनों की संसिद्धि माना है. स्व-प्रयोजन सिद्धि को गौण स्थान प्रदान करते हुए जन-मानस को साहित्यानुभूति द्वारा आप्लावित करके साहित्यकार अपने दायित्व का निर्वाह करता है.
 

साहित्यकार का दायित्व

साहित्यकार का दायित्व है कि वह वर्तमान परिस्थितियों की सापेक्षता में साहित्य सृजन का कार्य करे और अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में अन्तश्चेतना जाग्रत करे. समाज में विद्यमान विसंगतियों, असमानताओं और विद्रूपताओं का निरूपण कर जनमानस में इनके प्रति सजगता विकसित करे. और साथ ही समाज को सही दिशा दिखाने हेतु एक आदर्श चरित्र की संयोजना करे और इस प्रकार समाज के बहुविध विकास में सहयोगी बने 

मध्यकालीन संत कवियों का आदर्श

कबीर, तुलसी, सूर ने अपनी साहित्य सर्जना से समाज को एक नवीन दिशा प्रदान की. देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो चुका था. जनता पर अत्याचार चरमोत्कर्ष पर था. उसके समक्ष ही देव मन्दिर गिराए जाते थे. महापुरुषों का अपमान जारी था. जनता निरूपाय थी. समाज में हिन्दू-मुसलमान परस्पर कट्टर विरोधी वर्ग बन गए थे. जनता संत्रस्त थी और दिशाहीन. ऐसे संक्रमण काल में इन संत- कवियों का प्रादुर्भाव एक विशिष्ट घटना थी. संत- कवियों ने अपनी साहित्य सर्जना के माध्यम से न केवल युगीन परिस्थितियों का चित्रण किया. अपितु तत्कालीन समाज के सापेक्ष 'राम' और 'कृष्ण' जैसे महनीय सर्वगुण सम्पन्न चरित्रनायकों की अवतारणा कर समाज को एक सशक्त सम्बल प्रदान किया, जिससे समाज में नई चेतना का प्रादुर्भाव हुआ. संत कबीर ने अपनी फक्कड़ाना भाषा से विशृंखलित होते समाज को एकसूत्रता प्रदान करने का स्तुत्य प्रयास किया.

इसके उपरान्त देश में अंग्रेजी राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर साहित्यकारों ने अपनी लेखनी को तलवार के रूप में प्रयुक्त किया और जंग-ए-आजादी का उद्घोष किया. कहना न होगा कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास साहित्यकारों के प्रदेय से ओत-प्रोत है. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रादुर्भाव से जिस आधुनिक भावधारा का विकास हुआ. तयुगीन साहित्य पूर्णतः सामाजिक संचेतना से सम्पृक्त है. कवियों का वर्ण्य-विषय ही सामाजिक कुरीतियों का उद्घाटन करना, अंग्रेजों के विरुद्ध जनमत तैयार करना, मातृभूमि-प्रेम, विदेशी का बहिष्कार, शिक्षा प्रचार-प्रसार आदि था. राष्ट्रीय चेतना का उदय इस काल के साहित्यकारों की अनन्य विशेषता है. इस युग के कवियों ने अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए देश के उत्कर्षापकर्ष के लिए उत्तरदायी परिस्थितियों को रेखांकित करते हुए जनमानस में राष्ट्रीय भावना जाग्रत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया. देशभक्ति की जो भावना आगे चलकर मैथिलीशरण गुप्त कृत 'भारत-भारती' में परिलक्षित हुई उसकी पृष्ठभूमि, भारतेन्दु, प्रेमधन, प्रताप नारायण मिश्र, राधाकृष्ण दास आदि की कविताओं में द्रष्टव्य है. अंग्रेजों की शोषण नीति का एक उदाहरण भारतेन्दुजी की निम्नलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है-
 
"भीतर-भीतर सब रस चूसै, हंसि-हंस के तन, मन, धन मूसै। 
जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि सज्जन ! नहिं अंगरेज ||"
 
स्वतन्त्रता के पश्चात् साहित्यकारों के दायित्व में न्यूनता नहीं आई, अपितु वर्ण्य-विषय किंचित परिवर्तन के साथ और अधिक व्यापक हो गया. नवीन राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था के साथ सामंजस्य व संतुलन स्थापन तथा सामाजिक वैषम्य दूर करने का नवीन दायित्व साहित्यकारों को दाय के रूप में प्राप्त हुआ. बदलते परिवेश में साहित्यकारों का दायित्व अत्यधिक व्यापक होता जा रहा है, जो संक्षेप में निम्नांकित बिन्दुओं में द्रष्टव्य है-

समाज के प्रति साहित्यकार का दायित्व
विज्ञान-
आज इस परमाणविक युग में साहित्यकार का दायित्व है कि सशक्त रचनाओं के माध्यम से विज्ञान और समाज का सम्बन्ध स्थापित करे. वैज्ञानिक आविष्कारों का तथा तत्सम्बन्धी विकास का जन-जीवन से नैकट्य स्थापित करे. इसके अतिरिक्त विज्ञान की दुरूह बातों को सरल साहित्य द्वारा सुगम व बोधगम्य बनाया जा सकता है.
 
नैतिकता-नैतिकता किसी भी समाज की श्रेष्ठता का मानदण्ड होता है. उसी के द्वारा राष्ट्र समुचित विकास और उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकता है. आज नैतिकता के अभाव में भ्रष्टाचार का चतुर्दिक बोलबाला है. इसका निराकरण नैतिकता युक्त धर्माधृत साहित्य के द्वारा ही किया जा सकता है. निश्चित ही यह कार्य साहित्यकार ही कर सकता है. 

साहित्य और संस्कृति-साहित्य द्वारा ही किसी भी राष्ट्र की सांस्कृतिक गरिमा और सभ्यता को अक्षुण्ण रखा जा सकता है. और उसमें युगानुरूप गुणात्मक विकास व परिवर्तन परिवर्द्धन किया जा सकता है .

राजनीति - आज राजनीति जीवन का अभिन्न अंग है. कोई भी व्यक्ति जो सामाजिक प्राणी है वह एक राजनीतिक प्राणी भी है. इसलिए राजनीति के समस्त पहलुओं का सम्यक विवेचन साहित्य के माध्यम से जन-जन तक सुलभ किया जा सकता है. साहित्यकारों का दायित्व है कि वे ऐसे साहित्य का सृजन करें, जिससे नागरिक अपने अधिकार, कर्तव्य, न्यायिक व्यवस्था, राजनीतिक स्थिति इत्यादि से परिचित हो सके और राजनीति के प्रति जागरूकता उत्पन्न हो सके तभी लोकतन्त्र की सफलता भी सुनिश्चित होगी.
 
राष्ट्रीय चेतना- साहित्य की उपादेयता तभी सम्भव है, जब वह राष्ट्रीय चेतना से सम्पृक्त हो, जिससे राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की रक्षा हो सके. सर्वधर्म समभाव का विकास हो सके. इसी के साथ ही प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम हेतु प्रौढ़ साहित्य का सृजन भी आवश्यक है. इसके लिए स्थानीय स्तर पर प्रौढ़-साहित्य का निर्माण किया जाना चाहिए.
 
बाल साहित्य- आज के बालक भविष्य के निर्माता हैं. उनके अपरिपक्व मस्तिष्क के समुचित विकास के लिए उत्कृष्ट बाल-साहित्य की प्रभूत आवश्यकता है. दीन बन्धु एण्डूज के अनुसार-" और कुछ करो या न करो, बालकों के लिए साहित्य लिखने का काम अवश्य करो," यद्यपि आज बाल साहित्य की सर्जना हो रही है, तथापि वह पर्याप्त नहीं है.
 
उपसंहार- साहित्य मानव जीवन को सुसंस्कृत एवं परिष्कृत करने का एक सशक्त माध्यम हैं और सर्जक-साहित्य समाज का पथ प्रदर्शक. साहित्य का क्षेत्र जीवन की तरह अति विस्तृत है. देश के निर्माण और उन्नति में साहित्यकार का दायित्व बहुविध, असीमित, अप्रतिम एवं अप्रमेय है.हर्ष का विषय है कि हमारे साहित्यकार जीवन और जगत के साथ पूर्णतः जुड़े हुए हैं. वे परिवर्तनशील परिस्थितियों के साथ निरन्तर अपने को जोड़े रख कर अपेक्षित साहित्य के सृजन में तत्पर हैं. वे परम्परा के वट वृक्ष का सहारा लेकर प्रगति के फूल बखेरते हुए अपने दायित्व का निर्वाह सम्यक् प्रकार कर रहे हैं.

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