कला का अर्थ और महत्व | कला और परंपरा

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कला का अर्थ और महत्व कला और परंपरा भारतीय परंपरा के अनुसार, कला उन सभी क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौशल अपेक्षित हो। इसका अर्थ है कि कला में केवल प्रश

कला का अर्थ और महत्व | कला और परंपरा


ला एक व्यापक शब्द है जिसकी कोई एक निश्चित परिभाषा नहीं है। विभिन्न विद्वानों ने कला की अपनी-अपनी परिभाषाएँ दी हैं, जो कला के केवल एक विशेष पहलू को ही छूती हैं।भारतीय परंपरा के अनुसार, कला उन सभी क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौशल अपेक्षित हो। इसका अर्थ है कि कला में केवल वे रचनाएँ शामिल हैं जिनमें सौंदर्य और कौशल का प्रदर्शन होता है।

पश्चिमी दर्शन में कला को अनुकरण या अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है। प्लेटो के अनुसार, कला सत्य की अनुकृति है, जबकि अरस्तू का मानना ​​है कि कला मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति है।आज के समय में, कला को अनुभव के रूप में भी देखा जाता है। कला दर्शकों को सोचने, महसूस करने और प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करती है।

कला का अर्थ

मानव-मन की एक प्रवृत्ति अनेक वस्तुओं की अनेकता में एकता के सूत्र खोजने की है। इसे वह नियमों के अन्तर्गत देखना चाहता है। एक अन्य प्रवृत्ति रुचियों, इच्छाओं और मनोविकारों से जुड़ी है। यह आकर्षण-विकर्षण के आधार पर व्यक्तिगत सम्बन्धों का रूप लेती है। एक क्षेत्र विज्ञान का है जो वास्तविक जगत् पर आधारित नहीं है। यह 'बल' का अमूर्त क्षेत्र है। इसे हम बुद्धि द्वारा समझ सकते हैं पर व्यक्तिगत रूप से इससे साक्षात्कार नहीं कर सकते। विज्ञान से जो निर्माण होता है वह हमारी ही छाया मात्र है। पर एक संसार और है जो वास्तविक है। हम इसे देखते और अनुभव करते हैं। इसके अनन्त रहस्य हैं। यह विज्ञान से बहुत दूर और कलाओं का क्षेत्र है। अतः कला क्या है ? यह जानने के लिये यह जानना भी आवश्यक है कि कला का जिस संसार से घनिष्ठ सम्बन्ध है वह क्या है ?

कला का अर्थ और महत्व | कला और परंपरा
कला में हमारी सहज तथा अर्द्धचेतन सृजनात्मक एवं आनन्दमूलक प्रवृत्ति जाग्रत रहती है। अतः पहले यह समझना आवश्यक है कि कला का अस्तित्व किसलिये है-किसी सामाजिक उद्देश्य, सौन्दर्यवृत्ति की सन्तुष्टि अथवा आत्माभिव्यक्ति के लिये ।
 
प्राचीन भारतीय कलाविदों ने इसका अनुभव उदासीन आनन्द के रूप में माना है। पशु जगत् मूल रूप से अपने और अपनी जाति की रक्षा के प्रयास में ही लगा रहता है। पर मानव इनके अतिरिक्त क्रियाओं में भी प्रवृत्त होता है जो अपना उद्देश्य स्वयं ही हैं। इनमें से एक क्षेत्र ज्ञान का है जिससे विज्ञान और दर्शन सम्बद्ध हैं। मनुष्य के सुख-दुःख, भय, क्रोध तथा प्रेम जादि उसकी अपनी उपयोगिता की सीमा से बाहर भी प्रभावी होते हैं। इन्हीं की निकासी कलाओं को जन्म देती है। सामाजिक परिवेश में मनुष्य अपनी स्थिति के प्रति संवेदनशील रहता है। कला में वह इसी व्यक्तिगत अस्तित्व की अभिव्यक्ति करता है। व्यक्ति के चारों ओर उसी के द्वारा बनाया हुआ संसार होता है; व्यक्ति के साथ ही वह घटता-बढ़ता और परिवर्तित होता रहता है। हमारे मनोविकार इसे भावुक रूपों में परिवर्तित कर देते हैं। यह बाहरी संसार भी इन्हें प्रभावित करता है। इस स्थिति को संस्कृत काव्यशास्त्रों में रस कहा गया है। बाह्य संसार के तथ्य जब हम स्वयं से सम्बन्धित करते हैं तभी उनके प्रति हमारी प्रतिक्रियाएँ अभिव्यक्ति होती हैं और तभी उनमें हमें रुचि जाग्रत होती है। हम उसकी अनुभूति द्वारा अपनी ही अनुभूति करते हैं। किसी तथ्य का कथन सरल है पर अपने मन की अनुभूति को प्रकट करना बहुत कठिन कार्य है। उसमें हमारा व्यक्तित्व समन्वित रहता है अतः कला में जब हम किसी वस्तु को उपस्थित करते हैं तो उसमें हम स्वयं भी उपस्थित रहते हैं। ऐसे तथ्यों का विश्लेषण करना अत्यन्त कठिन है।

कला का महत्व

प्रतिदिन के व्यवहार में हम केवल आवश्यकतानुसार ही अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति करते हैं। पर जब हमारी भावनाएँ एक ज्वार का रूप धारण कर लेती हैं तो उनका प्रकाशन कलाओं द्वारा ही सम्भव होता है। इस प्रकार कला का उद्देश्य व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति ही है। कुछ लोगों में यह धारणा बनी हुई है कि सौन्दर्य की सृष्टि ही कला का उद्देश्य है, जबकि वास्तव में सौन्दर्य तो एक साधन मात्र है, कला का चरम और पूर्ण लक्ष्य नहीं है। इसी के कारण रचना पद्धति को भी कला का आवश्यक तत्त्व मान लिया जाता है। वस्तुतः कला का सही सिद्धान्त एकता का सिद्धान्त है। सामग्री और नियम जब मिलकर अभिन्न रूप से एक हो जाते हैं तभी कलाकृति बनते हैं। इनकी एकता का आधार कलाकार के व्यक्तित्व में दिखाई देता है।
 
किसी वृक्ष का चित्र बनाने में एक उत्तम चित्रकार उसकी प्रमुख विशेषताओं और प्रकृति को समझकर अंकन करता है, उसके बाह्य सूक्ष्मतम विवरणों का नहीं। वृक्ष के सम्पूर्ण स्वभाव को जाने बिना इस प्रकार का चित्रण सम्भव नहीं है। बाह्य आवरण अर्न्तदृष्टि का अवरोध नहीं करते। सत्य और सुन्दर की रचना ही कला का कार्य है। इसकी अभिव्यक्ति में हम दैनिक व्यवहार के बन्धनों को भूल जाते हैं।
 
अतः हमारी अभिव्यक्ति का संसार हमारे दैनिक यथार्थ के संसार से पर्याप्त भिन्न है। कला का संसार असीमितता की ओर ले जाता है। कला के रूप अत्यन्त समृद्ध होते हैं, अमर होते हैं। कला का सम्बन्ध दैनिक जीवन के यथार्थ के अन्धकारपूर्ण तथ्यों के पार असीम के प्रकाश से ही है।
 
कला में सत्य का कथन व्यक्तिगत रूप ले लेता है। उसे प्रस्तुत करने की जो पद्धति तथा रूपविधान सर्जित किया जाता है उसकी कलाकार द्वारा कल्पना की जाती है। सत्य संसार में पहले से ही उपस्थित है। जिस बिम्ब का प्रयोग कलाकार करता है वह भी पहले से प्रचलित है। पर उस सत्य के साथ अनुभूति के विशेष क्षणों में जब उस बिम्ब का सहयोग कर दिया जाता है तो वह एक सर्वथा नवीन, मौलिक, वैयक्तिक प्रस्तुति बन जाता है।"
 

कला और परम्परा

बोलचाल में जब हम 'भारतीय कला' जैसे शब्दों का उच्चारण करते हैं तो भारतीय परम्परा और स्वभाव का ही संकेत करते हैं। पर मानव संस्कृतियों में परस्पर आदान-प्रदान और नवीन निर्माण निरन्तर चलता रहता है। भारतीय कला में ईरानी तत्वों का और चीन-जापान की कला में भारतीय तत्त्वों का प्रचुरता से समाविष्टिकरण हुआ है। कलाकारों की अपेक्षा कला-आलोचक इस विषय में अधिक जागरूक हैं। वास्तव में कलाकार तो कहीं से भी प्रेरणा लेने के लिए स्वतन्त्र होते हैं। महान् प्रतिभाशाली कलाकारों में प्रभावों को आत्मसात् करने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है। मानवात्मा का गुण सर्व-समाहारी संवेदन-शीलता में है। मानवता को विभिन्न क्षेत्रीय सीमाओं में बाँधकर नहीं रखा जा सकता। केवल रीति अथवा रूढ़ि की बात अपरिपक्व मस्तिष्क वाले ही करते हैं। किसी पुरानी पद्धति पर आज के युग में बनाई गयी कलाकृति को अस्वीकार कर देना चाहिये। इस प्रकार कलाकार जहाँ प्रेरणा लेने में पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है वहीं उसकी कृति किसी सांचे में ढली न होकर व्यक्तिगत मौलिकता से परिपूर्ण होती है।
 
वर्तमान युग में मानव-सम्पर्क अत्यधिक बढ़ गया है, अतः पूर्व युगों की तुलना में ग्रहणीयता का क्षेत्र भी बढ़ा है। पूर्व की भाँति रीति-रिवाज या अन्धविश्वास पर चलना आज सम्भव नहीं है। जीवन में निरन्तर परिवर्तनशीलता का जो तत्त्व है उसे नकारा नहीं जा सकता है। नवीन अज्ञात रहस्यों की खोज, नवीन के समायोजन और भविष्य की ओर दृष्टि वर्तमान आवश्यकता है। कला हमारे सृजनात्मक अजस्र स्रोत और सार्वभौमिक अपील से जुड़ी है। यह सबका स्वागत करती है। 

किसी विशेष क्षेत्र के लोगों की कला का आदर्श उनकी संकीर्ण क्षेत्रीयता पर आधारित हो सकता जो केवल एक ही प्रकार के फूल और पत्तियाँ निरन्तर उत्पन्न करने वाले वृक्ष के समान है। वह किसी भी नवीन आविष्कार अथवा साहसपूर्ण कार्य को करने की आज्ञा नहीं देता। इससे जीवन में न विकास होता है, न समृद्धि ही होती हैं। यह सम्पन्न व्यक्तियों की विशेषज्ञता जैसी बातों पर ही गर्व करती है। यह निरन्तर बहने वाली तथा विभिन्न स्थानों के प्रभावों को समेटने वाली धारा नहीं बन पाती ।
 
कला-परम्पराओं के मूल में आरम्भिक स्वाभाविक और सहज अभिव्यक्ति रही होगी जिसके प्रभावशाली रूपों की कालान्तर में आने वाले कलाकारों ये अनुकृति की होगी। यदि कोई कला-रूप हजारों वर्षों से निरन्तर जीवित रहा है तो इसका आशय यह है कि इन बीच के हजारों वर्षों में कला-प्रतिभा सोती रही है। कला के सभी परम्परागत रूप कुछ न कुछ लचीलापन लिये रहते हैं जिससे कि समय की लय के अनुरूप विकास कर सकें। रूढ़ियाँ अपने मृत रूपों में केवल वहीं चलती रहती हैं जहाँ जिजीविषा को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता, मानव को केवल दास बनकर ही जीवित रहना पड़ता है। जहाँ मुक्त आत्मा की कोई अभिव्यक्ति नहीं होती है। परवर्ती संस्कृत साहित्य और वर्तमान कलाओं एवं शिल्पों में प्राचीन भारत की अंधी आत्मा ही भटक रही है।
 
किन्तु परम्परा पूर्णतः त्याज्य भी नहीं है। यह एक मार्ग की रचना कर सकती है जिस पर कोई धारा प्रवाहित होकर निरन्तर आगे बढ़ती रहे। जनसाधारण परम्परा में सीमित रहकर अपने क्षेत्र के अनुकूल पूर्णता की ओर बढ़ सकते हैं किन्तु प्रगति की असीम सम्भावनाओं वाले व्यक्ति परम्परा की लीक में बँधे नहीं रह सकते हैं। 

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